Book Title: Apbhramsa Bharti 1999 11 12
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 71
________________ 58 अपभ्रंश भारती - 11-12 भाव-शबलता की यह मन:स्थिति बड़ी स्वाभाविक एवं मनोवैज्ञानिक है । प्रेमानुभूति में प्रायः ऐसा होता ही है। श्रीमद्भागवत में रास के समय मुरली-ध्वनि सुनने पर परम प्रेममयी गोपांगनाओं की भी ऐसी अवस्था का चित्रण दर्शनीय है - बंशी-ध्वनि सुनकर जो गोपियाँ दूध दुह रही थीं, वे अत्यन्त उत्सुकतावश दूध दुहना छोड़कर चल पड़ीं। जो चूल्हे पर दूध औटा रही थीं, वे उफनता हुआ दूध छोड़कर, और जो लपसी पका रही थीं, वे पकी हुई लपसी बिना उतारे ही ज्यों-की-त्यों छोड़कर चल दी। जो भोजन परस रही थीं वे परसना छोड़कर, जो छोटे-छोटे बच्चों को दूध पिला रही थीं वे दूध पिलाना छोड़कर, जो पतियों की सेवा-सुश्रूषा कर रही थीं वे सेवा छोड़कर और जो स्वयं भोजन कर रही थीं वे भोजन करना छोड़कर अपने कृष्ण प्यारे के पास चल पड़ी। कोई-कोई गोपी अपने शरीर में अंगराग, चन्दन और उबटन लगा रही थीं और कुछ आँखों में अंजन लगा रही थीं। वे उन्हें छोड़कर तथा उल्टे-पल्टे वस्त्र धारणकर चल पड़ी। 9वीं संधि में भी मुनि-दर्शन के लिए नर-नारियों में ऐसे ही उत्साह-भाव का चित्रण किया गया है। उसमें पूज्य और श्रद्धा का पवित्र समावेश है।' करकण्ड के चम्पानरेश के साथ युद्ध में पद्मावती के उपस्थित होने और पिता-पुत्र का परिचय कराने पर, जब वह अपने पति के पास खड़ी हुई सुशोभित हुई तथा चम्पा-नरेश उसकी ओर देखने लगे - बरसों के वियोग के बाद हुए इस मिलन में कितनी पवित्रता और भावात्मकता है, इसे पति-पत्नी ही हृदयंगम कर सकते हैं - चम्पा-नरेश ने उसे देखा जैसे रत्नाकर गंगानदी को देखता है - यहाँ उपमा की सार्थकता और प्रांजलता दर्शनीय है - 'सा दिट्ठिय चंवणरेसरेण, गंगाणइ णं रयणायरेण'। इसी प्रकार पिता-पत्र के आलिंगन को श्रीकृष्ण और प्रद्युम्नकुमार के समान कहकर व्यक्त किया है - यह दृष्टान्त अलंकार बड़ा सटीक है - 'जह संगरे जाइवि तेयणिहि पज्जुण्णु कुमरु दामोयरिण।' लयण में ले जाने के लिए जब करकंड ने जिनबिम्ब को उठाया, तो कवि कहता है जैसे लंकेश्वर ने कैलाश को उठाया हो - 'कइलालु णाइँ लंकेसरेण ।' दोनों हाथों से सिर के ऊपर रखा हुआ वह बिंब ऐसा प्रतीत हुआ जैसे हरि ने गोवर्द्धन को उठा लिया हो - 'विहिं करहिं धरिउ सिरउवरि भाइ, गोवद्धणु हरिणा कलिउ णाइँ'। सरोवर में प्रवेश करके ग्वाले ने जब कमल तोड़ लिया, तो कवि कल्पना करता है मानो सरोवर का सिर काट लिया गया हो - ‘णं खुडिमु सरोवरसिरु खणेण' - जैसे सरोवर रूप-विहीन हो गया, क्योंकि रूप तो सिर से ही सुशोभित होता है, इस भाव की व्यंजना बड़ी सटीक बन पड़ी है। मुनि से प्रभावित होने पर करकंड के वैराग्य-भाव की निरूपणा कितनी करुणापूरित और हृदयविदारक है - उप्पाडिय कुंतल कुडिलवंत, णं कम्मभुवंगम सलवलंत। तिणसमउ गणिवि अंतेउराइँ, परिहरियइँ अंगतो अबराइँ। (10.23) सेना की गंध पाने पर हाथी के क्रोधित रूप का चित्रण देखिए - उसके अनुभावों ने जैसे क्रोधभाव को साकार कर दिया है - अपनी सूंड उठाकर व सिर हिलाकर हाथी ने मुख मोड़कर उस ओर अवलोकन किया। उस सेना को देखकर वह भडक उठा और मद की गंध का लोभी

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