Book Title: Apbhramsa Bharti 1999 11 12
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 73
________________ 60 अपभ्रंश भारती - 11-12 णासहे उण्णइ असहंतएण, रत्तत्तणु धरियउ अहरएण। सियकसण नयण सोहंति वार, णं केययदेलि गय भमर तार। अइकुडिली भउहावलि विहाइ, धणुलट्ठि व मयणे धरिय णा। सोहामहग्घु भालयलु भाइ, अद्धिंदु व लग्गउ सहइ णा। अलिणीलकेस सिररुह घुलंति, मुहइंदुभयइँ णं तम मिलंति। (1.16) यही नहीं, कवि ने यहाँ सौन्दर्य-चित्रण के नव-नव आयाम उद्घाटित किये हैं। अमूर्त के मूर्तिकरण के द्वारा जैसे सौन्दर्य सजीव हो उठा है। जिनेन्द्र की स्तुति करता हुआ वह नृपवर कहता है - यहाँ रूपक अलंकार का बड़ा सुन्दर प्रयोग हुआ है। आप कर्मरूपी वृक्ष को काटनेवाले कुठार हैं - 'जय कम्मविडविछिंदण कुठार'। आप पापान्धकार को नाश करनेवाले दिनेश हैं, आपकी जय हो - 'जय पावतिमिरफेडणदिणेस'। आप रागरूपी भुजंग को दमन करने के लिए मंत्र तथा मदनरूपी इक्षु को पेरने के लिए उत्तम यंत्र हो - 'जय रायभुवंगमदमणमंत, जय मयणइक्खुपीलणसुजंत'। आप जयश्रीरूपी वधू के कर्णावतंस एवं भव्यजनों के मनरूपी सरोवर के राजहंस हो - 'जय जय सिरिबहकण्णावतंस, जय भवियणमणसररायहंस'। इसी प्रकार करकंड के पुनर्मिलन से रतिवेगा की आंतरिक प्रसन्नता को उपमा अलंकार के सहारे जैसे मूर्त कर दिया गया है - अपने पति को देखकर हर्ष से उसकी आँखों में अञ्जुल भर आया। वह कृशांगी ऐसी चमक उठी जैसे कृष्णवर्ण सजल मेघ बिजली से चमक उठता है अथवा मयूरी सजल मेघ को देखकर नाच उठती है - रइवेयइँ दिट्ठउ णियरमणु तहिं हरिसइँ वड्ढिउ अंसुजलु। ता विज्जु चमक्किय कसणतणु सिहिकंतएँ णं जलहरु सजलु॥ (8.17) अस्तु, निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि 'करकंडचरिउ' में सौन्दर्य-चित्रण के लिए उसके कवि ने अनेक बिन्दु खोजे हैं। जहाँ वस्तु-योजना की है, वहाँ भावात्मक उद्भावनाएँ भी की हैं। लेकिन कहीं भी मानव-जीवन की उपेक्षा नहीं की है। इस प्रकार कथा-संगठन में तो चार चाँद लग ही गये हैं, उसकी कल्पना-कुशलता का भी सहज परिचय मिल जाता है जो सफल और सिद्धहस्त कवि के लिए अपेक्षित है। यह सौन्दर्य भौतिक और लौकिक दृष्टि से तो आकर्षक है ही, अलौकिक सृष्टि और उद्भावनाओं के कारण बड़ा भव्य एवं अद्वितीय हो गया है। इसी से इसकी अप्रस्तुत योजना में दिव्यता का समावेश हो गया है। इसमें जहाँ बहुत-से इतिवृत्तात्मकवृत्तों और घटनाओं को सँजोया गया है, उनके रूप को साकार तथा दर्शनीय बनाया गया है ; वहाँ रूप-चित्रण में अंग-प्रत्यंग के सौन्दर्य को भी उभारा गया है एवं अलंकारों-अप्रस्तुतों के सहारे आंतरिक भावों को भी मूर्त करके सौन्दर्य के नए आयाम तलाश लिये गये हैं। अप्रस्तुत-योजना में कवि की सर्वोपरि विशेषता यह रही है कि उसमें नवीनता और मौलिकता है, घिसे-पिटे पुरातन अप्रस्तुतों को उसने बहुत कम प्रयोग किया है। पुन: उसके उद्देश्य की पवित्रता और धार्मिकता को भी इनसे बड़ा बल मिला है। इस प्रकार यह सौन्दर्य-चित्रण, काव्य-कला के विचार से

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