Book Title: Apbhramsa Bharti 1999 11 12
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 51
________________ 38 अपभ्रंश भारती वय -तव-संजम - मूलगुण मूढहँ मोक्ख ण वुत्तु । जाव ण जाणइ इक्क पर सुद्धउ भाउ पवित्तु ॥ 29 ॥ जब तक जीव अपने स्वरूप को नहीं समझता तब तक वह कुतीर्थों में भ्रमण करता है। 12 वह देहरूपी देवालय में विराजमान जिनदेव के दर्शन न कर ईंट-पत्थरों के देवालय में उनके दर्शन करता है। 13 पर यह नहीं जानता कि देव किसी देवालय, किसी पत्थर, लेप या चित्र में विराजमान नहीं हैं। 14 वे तो मेरे देह - देवालय में ही हैं। 15 इसी तरह (मंत्रादि) पढ़ लेने से धर्म नहीं होता । पुस्तक और पिच्छी से भी धर्म नहीं होता। किसी मठ में रहने से भी धर्म नहीं होता और न केशलुंचन करने से धर्म होता है धम्मु ण पढियइँ होइ धम्मु ण पोत्था पिच्छियइँ । धम्मु ण मढिय पसि धम्मु ण मत्था लुंचियइँ ॥ 47 ॥ - 11-12 स्व-पर भेदविज्ञान इस प्रकार की भ्रान्ति-निवारण का सशक्त साधन है और धर्म के स्वरूप से अवगत कराता है। भ्रान्ति - निवारण से चित्त शुद्धि होती है । चित्त-शुद्धि और शाश्वत सुखोपलब्धि में सद्गुरु का उपदेश, सत्संगति, नरभव की दुर्लभता आदि का चिन्तन, स्व का आत्म-सम्बोधन सहायक है। यह असद् वृत्तियों को मन्द करता है। इससे साधक की साध्य की ओर एकाग्रता बढ़ती है। एकाग्रता बढ़ाने/निजस्वरूप में स्थिरता तथा वैराग्य की वृद्धि हेतु संसार शरीर और भोगों की क्षणभंगुरता, बारह भावनाओं का चिन्तन सशक्त उपाय है। बारह भावनाओं को तो वैराग्य-उत्पादक माता कहा गया है।" इन भावनाओं में कुटुम्ब - परिवार आदि पर-पदार्थों की अनित्यता, अशरणता आदि का चिन्तन किया जाता है । कविवर जोइन्दु ने कुटुम्ब आदि की स्व से भिन्नता का बोध निम्न शब्दों में कराया है। इहु परियण ण हु महुतणउ इहु सुहु दुक्खहँ हेउ । इय चिंततहँ किं करइ लहु संसारहँ छेउ ॥ 67 ॥ यह कुटुम्ब - परिवार निश्चय से मेरा नहीं है। यह मात्र सुख-दुःख का हेतु है । इस प्रकार विचार करने से शीघ्र ही संसार का नाश किया जा सकता है । इसी प्रकार कवि ने जीव को पर-पदार्थों की अशरणता से अवगत कराया है। - इंद फणिंद - णरिंदय वि जीवहँ सरणु ण होंति । असर जाणिव मुणि धवला अप्पा अप्प मुणंति ॥ 68 ॥ - इन्द्र फणीन्द्र, नरेन्द्र भी जीवों की शरणभूत नहीं हो सकते। इस तरह अपने को शरणरहित जानकर उत्तम मुनि अपने आत्मा से निज आत्मा को जानते हैं । 'जीव को इन्द्र आदि कोई शरण नहीं है' इस कथन द्वारा कवि ने वस्तु के अशरण स्वभाव ACT बोध कराया है। अशरण स्वभाव के कारण किसी वस्तु को अपने परिणमन के लिए पर में

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