Book Title: Apbhramsa Bharti 1999 11 12
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 44
________________ अपभ्रंश भारती - 11-12 31 अथवा चाक्षुष होते हैं । यहाँ मगधदेश के राजगृह की शोभा के मानवीकरण से निर्मित रूपक और उत्प्रेक्षामूलक चाक्षुष बिम्ब द्रष्टव्य है - घत्ता - तहिं पुरवरु णामें रायगिहु कणयरयणकोडिहिं घडिउ। बलिवंड धरंतह सुखइहिं णं सुरणयरु गयणपडिह॥ कडवक - जोयइ व कमलसरलोयणेहिं, णच्चइ व पवणहल्लियवणेहिं। ल्हिक्कइ व ललियवल्लीहरेहि, उल्लसइ व बहुजिणवरहरेहि। वणियउ व विसमवम्महसरेहि, कणइ व रयपारावयसरेहिं। परिहइ व सपरिहाधरियणीरु, पंगुरइ व सियपायारचीरु। णं धरसिहरग्गहिं सग्गु छिवइ, णं चंदअमियधाराउ पियइ। कुंकुमछडएं णं रइहि रंगु, णावइ दक्खालिय-सुहपसंगु। विरइयमोत्तियरंगावलीहिं, जं भूसिउणं हारावलीहिं। चिंधेहिं धरिय णं पंचवण्णु, चउवण्णजणेण वि अइखण्णु। ( 1.6-7) __ अर्थात् राजगृह नगर मानो कमलसर-रूप नेत्रों से देखता था; पवन-कम्पित वनों से वह जैसे नाचता-सा प्रतीत होता था तथा ललित लतागृहों में मानो लुकाछिपी खेलता था; अनेक जिनमन्दिर उसके उल्लास जैसे लगते थे; पारावत पक्षियों के स्वर से वह कामबाण से आहत होकर चीखतासा लगता था; अपनी चारों ओर की परिखा के जल से वह वस्त्रावृत जैसा लग रहा था; अपने सफेद परकोटों से वह चादर ओढ़ा हुआ-सा लग रहा था; वह अपने गगनचुम्बी गृहशिखरों से चन्द्रमा की अमृतधारा का पान करता-सा दिखाई पड़ता था, कुंकुम की छटा से वह रति की रंगभूमि जैसा बन गया था; मोतियों से बनी रंगावलियों से वह मानो हार से विभूषित हो रहा था और अपनी रंगबिरंगी ऊँची ध्वजाओं से वह जैसे पँचरंगा बन गया था। इस प्रकार, चार वर्णों के समदाय से समन्वित राजगह अतिशय रमणीक प्रतीत होता था। वह उत्तम नगर राजगह स्वर्ण और रत्नों से गढ़ा गया था। वह ऐसा लगता था जैसे देवेन्द्र द्वारा दृढ़ता से धारण किये जाने के बावजूद देवनगर उनसे छूटकर आकाश से धरती पर आ गिरा हो। इस काव्यांश में चाक्षुष बिम्ब के अतिरिक्त नगर के नाचने के दृश्य के कारण चाक्षुष बिम्ब में गत्वरता भी है, साथ ही नगर के पारावत-स्वर के व्याज से चीखने के दृश्य में श्राव्य बिम्ब का भी विनियोग हुआ है। कुल मिलाकर, प्रस्तुत अवतरण में चाक्षुष बिम्ब (ऑप्टिक इमेज) का हृदयहारी विधान हुआ है। प्रस्तुत ऐन्द्रिय बिम्ब में दृश्य के सादृश्य पर रूप-विधान तो हुआ ही है, उत्प्रेक्षा और रूपक के द्वारा भी संवेदना या तीव्रानुभूति की प्रतिकृति के माध्यम से स्थापत्यबिम्ब का चिन्ताह्लादक विधान हुआ है। 'णायकुमारचरिउ' की कथाबद्ध भाषा सातिशय विलक्षण है। इसकी काव्यभाषा आस्वादरमणीय है। इसकी भाषा की संरचना-शैली अलंकृत है। सौन्दर्यमूलक प्रसंगों के उपस्थापन में महाकवि पुष्पदन्त ने अतिशय अलंकृत भाषा के प्रयोग में भी चूडान्त दक्षता का

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