Book Title: Apbhramsa Bharti 1999 11 12
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 43
________________ 30 अपभ्रंश भारती - 11-12 उपकरणों तथा शब्दशक्ति, रस, रीति, गुण, अलंकार आदि साहित्यिक साधनों का अपने इस काव्य में यथाप्रसंग बड़ी समीचीनता से विनिवेश किया है। प्राचीन संस्कृत-कवियों की भाँति पुष्पदन्त की सौन्दर्यमूलक मान्यता पाश्चात्य सौन्दर्यशास्त्रियों के मत से साम्य रखती है। वस्तुनिष्ठ सौन्दर्यवादी पाश्चात्य मनीषियों का कथन है कि सौन्दर्य वस्तु में होता है, द्रष्टा के मन में नहीं। अत: जो वस्तु सुन्दर है वह सर्वदा और सर्वत्र सुन्दर है । पुष्पदन्त ने भी ‘णायकुमारचरिउ' में राजा श्रीवर्म की कन्या, जो केवल कण्ठहार पहने हुए थी, अधिक अलंकृत न होकर भी अपने शरीर की नैसर्गिक शोभा, जैसे नख की चमक, मोतियों की छटा को मात करनेवाली दन्तपंक्तियों और धनुषाकार विमोहक भौंहों से ही अतिशय रूपवती लगती थी (द्रष्टव्य :1.17)। सौन्दर्य-विवेचन में, विशेषतः नख-शिख के सौन्दर्योद्भावन में महाकवि ने उदात्तता (सब्लाइमेशन) की भरपूर विनियुक्ति की है। उक्त राजकन्या के सौन्दर्यांकन में भी महाकवि ने उदात्तता से काम लिया है। इसी क्रम में वधू से वर की शोभा का एक प्रसंग द्रष्टव्य है, जिसमें दृष्टान्त के माध्यम से शोभा की अतिशयता को दरसाया गया है - सोहइ जलहरु सुरधणुछायए, सोहइ णरवरु सच्चए वायए। सोहइ कइयणु कहए सुबद्धए, सोहइ साहउ विज्जए सिद्धए। सोहइ मुणिवरिंदु मणसुद्धिए, सोहइ महिवइ णिम्मलबुद्धिए। सोहइ मंति मंतविहिदिट्ठिए, सोहइ किंकरु असिवरलट्ठिए। सोहइ पाउसु साससमिद्धिए, सोहइ विहउ सपरियणरिद्धिए। सोहइ माणुसु गुणसंपत्तिए, सोहइ कज्जारंभ समत्तिए। सोहइ महिरुहु कुसुमियसाहए, सोहइ सुहडु सुपोरिसराहए। सोहइ माहउ उरयललच्छिए, सोहइ वरु वहुयए धवलच्छिए। 9.3। अर्थात्, जिस प्रकार मेघ इन्द्रधनुष की कान्ति से, श्रेष्ठ मनुष्य सत्यवाणी से, कवि अपनी रमणीय कथा से, साधु अपनी सिद्ध विद्या से, मुनि मन की शुद्धि से, राजा निर्मल बुद्धि से, मन्त्री मन्त्रणा-युक्ति से, सेवक उत्तम खड्गदण्ड से, वर्षा सस्य की समृद्धि से, वैभव परिजनों की सम्पन्नता से, मनुष्य अपने गुण-वैभव से, कार्य का आरम्भ निर्विघ्न समाप्ति से, वृक्ष पुष्पित शाखाओं से, सुभट अपने पौरुष के तेज से और विष्णु अपने वक्षःस्थल पर विराजित लक्ष्मी से शोभित होते हैं उसी प्रकार वर की शोभा उसकी प्रशस्त आँखोंवाली वधू से होती है। बिम्ब साहित्यिक सौन्दर्य के प्रमुख अंगों में एक है। बिम्बविधान कला का क्रियापक्ष है और बिम्बों के कल्पना से उद्भूत होने के कारण उनके विधान के समय कल्पना सतत कार्यशील रहती है। बिम्ब-विधान विभिन्न इन्द्रियों, जैसे - चक्षु, घ्राण, श्रवण, स्पर्श, आस्वाद आदि के माध्यम से होता है। बिम्ब एक प्रकार का रूप-विधान है और ऐन्द्रिय आकर्षण ही कलाकार को बिम्ब-विधान की ओर प्रेरित करता है। रूप-विधान होने के कारण ही अधिकांश बिम्ब दृश्य

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