Book Title: Apbhramsa Bharti 1999 11 12
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश भारती - 11-12
बाद महायान के भी अनेक विभाग हो गये । महायान आधारित शून्यवाद तथा विज्ञानवाद लोगों को अधिक समय तक प्रभावित नहीं कर सके। इसमें महासुखवाद के सम्मिश्रण से वज्रयान का आविर्भाव हुआ। इसमें अलग-अलग प्रवृत्ति के लोगों के लिए योग, देवपूजा, मन्त्रसिद्धि, विषयभोग इत्यादि साधन भी अलग-अलग थे। वज्रयान से ही सहजयान की उत्पत्ति हुई जिसने वज्रयान
विभिन्न प्रतीकों की अपने ढंग से व्याख्या करते हुए महामुद्रा, मन्त्र साधनादि बाह्य साधनाओं की अपेक्षा यौगिक तथा मानसिक शक्तियों के विकास पर विशेष जोर दिया। " यद्यपि वज्रयान और सहजयान दोनों का लक्ष्य एक ही था - महासुख या पूर्ण आनन्द की प्राप्ति और समरस की दशा का ही दूसरा नाम सहज था' 14 तथापि दोनों यानों में से सहजयान में जीवन का परिष्कार एवम् सुधार कर मानव को सहज स्वाभाविक जीवन में लाने की भावना थी, परन्तु शीघ्र ही यह सब काम स्वाभाविक रूप में न होकर अस्वाभविक रूप में होने लगा । परिणामस्वरूप सहज मार्ग शीघ्र ही तन्त्र-मन्त्र, भूत-प्रेत, जादू-टोना, अन्धविश्वास, ढोंग एवम् पाखण्ड मार्ग का आश्रित हो गया । अतः बौद्ध धर्म का प्राबल्य अधिक समय तक न रह सका। नालन्दा एवम् विक्रम शिला के विध्वंस के साथ ही प्राय: वह भी ध्वस्तावस्था तक पहुँच गया तथा कुछ समय उपरान्त बौद्ध धर्म भारत में नाममात्र के लिए ही शेष रह गया ।
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जैन धर्म में बौद्ध धर्म की अपेक्षा अधिक संयम था । यही कारण था कि जैन धर्म उतना पतित कभी नहीं हुआ जितना बौद्ध धर्म । जबकि जैन धर्म का प्रसार भी उन्हीं परिस्थितियों में हुआ था जिनमें बौद्ध धर्म का उदय हुआ था । तत्कालीन राष्ट्रकूट तथा गुर्जर सोलंकी राजाओं में से कुछ का जैन धर्म के प्रति विशिष्ट अनुराग था । विशेष श्रद्धा होने पर भी जैन धर्म की अहिंसात्मक प्रवृत्ति उन्हें अधिक प्रभावित न कर सकी। बौद्धों की तरह आरम्भ में तो जैन भी जातिगत विद्वेष से दूर थे, परन्तु धीरे-धीरे परिस्थितिवश इस महामारी की चपेट में आ गये। जैन व्यापारी वर्ग आरम्भ में अहिंसा का पुजारी भी रहा तथा संकट की घड़ियों में शकों और यवनों से युद्ध करते हुए उनके दाँत खट्टे कर अपने क्षत्रिय होने का परिचय भी दिया, परन्तु धीरेधीरे अपने क्षत्रियोचित पराक्रम और साहस को भूल गया। यूँ तो " अपभ्रंश साहित्य अधिकांश धार्मिक आवरण से आवृत है। माला के तन्तु के समान सब प्रकार की रचनाएँ धर्मसूत्र से ग्रथित हैं ।' 115 'कारण भी स्पष्ट है कि अपभ्रंश साहित्य की रचना एवम् सुरक्षा जैसे महत् कार्य में सबसे अधिक सहयोग बौद्धों और जैनों का रहा है। "जैनों ने केवल संस्कृत में ही नहीं लिखा, प्राकृत में भी उनके अनेक ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं। जैनों में व्यापारी वर्ग भी था, जिनके लिए पंडितों की भाषा का ज्ञान न सरल था न सम्भव । उनके लिए अनेक ग्रन्थ देश भाषा में अपभ्रंश में लिखे गये। जैनाचार्यों ने अपने दार्शनिक सिद्धान्तों की व्याख्या के लिए अनेक ग्रन्थ लिखे । किन्तु दार्शनिक ग्रन्थों के अतिरिक्त काव्य, नाटक, ज्योतिष, आयुर्वेद, व्याकरण, कोष, अलंकार, गणित और राजनीति आदि विषयों पर भी इन आचार्यों ने लिखा । बौद्धों की अपेक्षा वे इस क्षेत्र में अधिक उदार हैं। संस्कृत - प्राकृत के अतिरिक्त अपभ्रंश, गुजराती, हिन्दी, राजस्थानी, तेलगू, तमिल और विशेषरूप से कन्नड़ी साहित्य में भी उनका योग अधिक है।" जैनाचार्यों ने महाकाव्य,