Book Title: Apbhramsa Bharti 1999 11 12 Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy View full book textPage 8
________________ सम्पादकीय "हिन्दी का पूर्व और अपूर्व रूप अपभ्रंश है। इसमें प्रणीत साहित्य आज प्रचुर परिमाण में उपलब्ध है। अपभ्रंश में महाकाव्य, प्रबन्धकाव्य, खण्डकाव्य, मुक्तककाव्य, रूपककाव्य, कथा और कथानक के विविध रूप तथा अन्य अनन्य लोक और लौकिक काव्य रूपों में काव्य की सर्जना हुई है। काव्य के अतिरिक्त अपभ्रंश में गद्य साहित्य भी रचा गया है।" __ "अपभ्रंश साहित्य के अध्ययन एवम् अनुशीलन का आधार सामान्य लोकचेतना के उदय और विकास के इतिहास का महत्वपूर्ण अध्ययन है। हमारी राष्ट्रीय चेतना एवम् भावनाएँ जैसेजैसे लोकोन्मुख होती गईं, हमारा ध्यान प्राचीन तथा अर्वाचीन लोकभाषाओं और लोक-साहित्यों की ओर अग्रसर होता गया। जैसे संस्कृत भाषा तथा साहित्य सम्बन्धी अनुशीलन का अभिनव उत्साह आधुनिक सांस्कृतिक पुनरुत्थान का मंगलाचरण है, वैसे ही प्राकृत और अपभ्रंश में क्रमश: बढ़ती हुई रुचि उस पुनरुत्थान की लोकोन्मुखता का साक्ष्य है। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि अपभ्रंश में अब तक जितना साहित्य प्राप्त हुआ है उसमें से अधिकांश केवल दिगम्बर जैन धर्म से प्रेरित एवम् प्रभावित है। अथवा यह भी कहा जा सकता है कि अपभ्रंश साहित्य में मानवजीवन और जगत् की अनेक भावनाओं और विचारों को वाणी मिली है । यदि एक ओर इसमें जैन मुनियों के चिन्तन का चिन्तामणि है, तो दूसरी ओर बौद्ध सिद्धों की सहज साधना की सिद्धि भी है, यदि एक ओर धार्मिक आदर्शों का व्याख्यान है तो दूसरी ओर लोकजीवन से उत्पन्न होनेवाले ऐहिक रस का रागरंजित अनुकथन है। यदि यह साहित्य नाना शलाका-पुरुषों के उदात्त जीवन-चरित से सम्पन्न है, तो सामान्य वणिक-पुत्रों के दुःख-सुख की कहानी से भी परिपूर्ण है।" __"भाषा-विज्ञान के आचार्यों ने अपभ्रंश भाषा का काल 500 ई. से 1000 ई. तक बताया है, परन्तु इसके साहित्य की प्राप्ति लगभग आठवीं सदी से प्रारम्भ होती है।" "अपभ्रंश भाषा का साहित्य ईसा की पाँचवीं शताब्दी के पश्चात् आरम्भ होता है। इस समय अपभ्रंश भाषा भारतवर्ष के अधिकांश प्रदेशों में प्रचलित थी। गौरीशंकर ओझा के मतानुसार अपभ्रंश का प्रचार गुजरात, सुराष्ट्र, मारवाड़ (त्रवण), दक्षिण पंजाब, राजपूताना, अवन्ति और मालवा (मन्दसौर) में विशेष रूप से था।" "छठी से बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी तक अपभ्रंश भाषा ने राजनैतिक और सांस्कृतिक संबल पाकर साहित्य-रचना की प्रमुख भाषा के रूप में जो गौरव प्राप्त किया वह कई क्षेत्रीय भाषाओं के पृथक् विकास का भी कारण बना। समस्त अपभ्रंश क्षेत्र में साहित्य की परिनिष्ठित भाषा के समानान्तर स्थानीय बोलियों का महत्व भी बढ़ता जा रहा था।" "बंगाल में 84 सिद्धों ने अपभ्रंश में रचनाएँ लिखकर अपभ्रंश साहित्य को पल्लवित एवम् पुष्पित किया तथा पालवंशी बौद्धों ने लोकभाषा को प्रोत्साहन दिया। राष्ट्रकूट राजाओं के आश्रय में स्वयंभू एवम् पुष्पदन्त जैसे अपभ्रंश भाषा के क्रान्तिदर्शी कवियों ने प्रसिद्ध ग्रन्थों की रचना (vii)Page Navigation
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