Book Title: Apath ka Path
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 10
________________ अनन्य-दुर्शन, चक्षुष्मान् ! आत्मा को देखो, अन्य को मत देखो। जो अन्य है वह तुम नहीं हो। उससे तुम परिचित भी नहीं हो । अपरिचित के साथ इतना संबंध, इतनी मैत्री आश्चर्य है। क्या यह कम आश्चर्य है-तुम जो हो, उसे नहीं देखते, अपने आपको नहीं देखते। तुम अन्य को देखते हो इसीलिए उसमें रमण करते हो । उसके प्रति तुम्हारा आकर्षण है। अपने प्रति कोई आकर्षण नहीं है। तुम्हारी आत्मा तुम से अनन्य-अभिन्न है। अभिन्न की उपेक्षा और भिन्न का समादर, यह कैसा विवेक है ? साधक वह है, जो अनन्य को देखता है | जो अनन्य को देखता है, वह अपने घर में रहता है, दूसरों के घर को देख कभी नहीं ललचाता। इस सत्य का उद्गान है जे अणण्णदंसी से अणण्णारामे। जे अणण्णारामे से अणण्णदंसी। जो अनन्य को देखता है, वह अनन्य में रमण करता है। जो अनन्य में रमण करता है, वह अनन्य को देखता है। - 1 मार्च, 1993 पड़िहारा अपथ का पथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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