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भय है प्रमत्त को
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चक्षुष्मान् !
प्रमत्त और प्रमाद- ये दोनों पद अध्यात्म की सीमा में नहीं है।
उसकी सीमा में दो पदों को बहुत प्रतिष्ठा मिली है, वे हैं अप्रमत्त और अप्रमाद।
राग और द्वेष के आवेश से आविष्ट व्यक्ति प्रमत्त है। राग और द्वेष का आवेश व्यक्त होता है तब प्रमत्त की आंखों में प्रमाद का नशा छा जाता है।
मदिरा कुछ लोग पीते हैं, कुछ नहीं पीते । प्रमाद भीतरी मदिरा है। उससे बहुत कम लोग बच पाते हैं। वे ही बच पाते हैं, जो इसमें भय का साक्षात्कार कर लेते हैं।
प्रमत्त को भय और अप्रमत्त को अभय- इसमें बाहरी भय का संकेत नहीं है। इसमें इंगित है आंतरिक भय की ओर ।
उसका सारांश वक्तव्य है- जब तक चेतना स्व के प्रति जागरूक न बन जाए तब तक अभय का विकास नहीं हो सकता ।
पदार्थ के प्रति जागरूक रहने वाला व्यक्ति चारों ओर भय से घिरा रहता है।
इसी सत्य को अनावृत करने के लिए महावीर ने कहासव्वओ पमत्तस्स भयं, सव्वओ अपमत्तस्स णत्थि भयं ।
प्रमत्त को सब ओर से भय होता है। अप्रमत्त को कहीं से भी भय नहीं होता।
1 अक्टूबर, 1996 जैन विश्व भारती
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अपथ का पथ
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