Book Title: Apath ka Path Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Jain Vishva BharatiPage 64
________________ PS जैसा भीतर वैसा बाहर चक्षुष्मान् ! शरीर को देखने के दो कोण हैं, एक सौंदर्य और दूसरा अशौच । सरसता और कला पक्ष में शरीर के सौंदर्य का आलक्षिक वर्णन किया जाता है । प्रत्येक भाषा के काव्य इस वर्णन से भरे पड़े हैं। कामासक्ति को कम और वैराग्य का संवर्धन करने के लिए शरीर के अशौच पक्ष को उजागर करने की परंपरा रही है। उसका एक निदर्शन है प्रस्तुत सूत्र । उसका अभिमत हैशरीर जैसा भीतर में अशुचि है, वैसा बाहर में अशुचि है। जैसा बाहर में अशुचि है, वैसा भीतर में भी अशुचि है। इसमें अनेक स्रोत हैं जिनके द्वारा अशुचि प्रवाहित हो रही है। आचारांग की वाणी है जहा अंतो तहा बाहि जहा बाहि तहा अंतो अंतो अंतो पूति देहतराणि, पासति पुढोवि सवंताई । यह शरीर जैसा भीतर है, वैसा बाहर है। जैसा बाहर है, वैसा भीतर है। पुरुष इस अशुचि शरीर के भीतर से भीतर पहुंच कर शरीरधातुओं को देखता है और झरते हुए विविध स्रोतों को भी देखता है। इसलिए साधक को देहासक्ति और कामासक्ति से दूर रहना चाहिए । 33 1 मई 1998 जैन विश्व भारती अपथ का पथ 63 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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