Book Title: Apath ka Path Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Jain Vishva BharatiPage 36
________________ संधान, . चक्षुष्मान् ! आश्चर्य है-तुम इस मोहक वातावरण में सांस लेते हो फिर भी सदा प्रसन्न रहते हो । क्या तुम्हें अरति अभिभूत नहीं कर पाती ? अध्यात्म के साधक ने समाधान के स्वर में कहा-मैं संधान करना जानता हूं और मैं संधान के प्रति जागरूक रहता हूं इसलिए मैं सदा प्रसन्न रहता हूँ। जो टूटे धागे को जोड़ना जानता है, जो जागना जानता है, वह अरति से अभिभूत नहीं होता। जीवन की गंगा का प्रवाह सदा एकरूप नहीं रहता। कभी निर्मल और कभी मलिन । मोह कर्म का क्षायोपशमिक भाव निर्मलता है। मोह कर्म का औदयिक भाव मलिनता है। जो पुरुष औदयिक भाव की मलिनता का संस्पर्श पाकर फिर से क्षायोपशमिक भाव की निर्मलता का संधान कर लेता है, उसके आसपास अरति अपना डेरा नहीं डाल सकती, उसे अपना स्थायी निवास नहीं बना सकती। साक्षी है महावीर का वचनसंधेमाणे समुट्ठिए। प्रतिक्षण धर्म का संधान करने वाले, वीतरागता की दिशा में अभ्युत्थान करने वाले व्यक्ति को अरति अभिभूत नहीं कर पाती। 1 जुलाई, 1995 जैन विश्व भारती SHO अपथ का पथ 35 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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