Book Title: Apath ka Path
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 47
________________ - - संधि-दुर्शन चक्षुष्मान् ! साधना का एक सूत्र है - संधि-दर्शन । हम जानते हैं - श्वास भीतर जा रहा है, बाहर आ रहा है। हम श्वास को जान रहे है किन्तु श्वास के भीतर जाने और बाहर आने के बीच का जो संधि क्षण है, उसे नहीं जान पा रहे हैं। __ हम जानते हैं-हृदय धड़क रहा है किन्तु दो धड़कनों के बीच जो संधि का क्षण है अथवा विश्राम का क्षण है, उसे नहीं जान पा रहे है। जो व्यक्ति इन्द्रिय विषयों में लीन रहता है, वह संधि को नहीं जान पाता। संधि को वही जान पाता है, जो इन्द्रिय विषयों से उपरत होता है, विरत होता है, प्रवृत्ति की यात्रा में भी निवृत्ति का अनुभव करता है। शरीर में अनेक संधि स्थल हैं। हाथ, पैर आदि के जोड़ों को जानते है, किन्तु जहां चैतन्य की सघनता है, प्राण केन्द्रीभूत हैं, उन सन्धियों को हम नहीं जानते । उन्हें मन, वाणी और शरीर की गुप्ति के क्षणों में ही जाना जा सकता है। । उस व्यक्ति ने संधि को देखा है, जिसने संयम और अप्रमाद की साधना की है। भगवान महावीर का वचन है एत्थोवरए तं झोसमाणे अयं संधीति अदक्खु । जो आरंभ और इन्द्रिय विषयों से उपरत है, अनारंभ और निवृत्ति की साधना करता है, उसने संधि को देखा है। - - 1 जून, 1996 जैन विश्व भारती - 46 अपथ का पथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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