Book Title: Apath ka Path Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Jain Vishva BharatiPage 22
________________ ' शग और विशग का संतुलन, चक्षुष्मान् कषाय से संचालित जीवन के दो छोर हैं-एक राग और दूसरा द्वेष । राग जागता है, प्रिय संवेदन उभर जाते हैं। द्वेष जागता है, अप्रिय संवेदन उभर जाते हैं। जो दृश्यमान है, वह इसी द्वन्द्व की परिक्रमा कर रहा है। इस परिक्रमा की समाप्ति का पहला बिन्दु है आगति और गति का परिज्ञान । आगति और गति का साक्षात्कार करने वाला दृश्यमान जगत् से प्रस्थान कर अदृश्यमान बन जाता है। न राग छूटता है और न द्वेष । न प्रिय संवेदन उभरता है और न अप्रिय संवेदन । पुनर्जन्म का सिद्धान्त आचार-शास्त्र को नया आयाम देने वाला सिद्धांत है। वर्तमान जीवन यदि समाप्ति रेखा है तो करणीय और अकरणीय की सीमा छोटी बन जाती है। उसकी विशालता का हेतु है पुनर्जन्म । शरीर और पदार्थ का बन्धन सूत्र है राग। रागात्मकता सामाजिक जीवन का अनिवार्य सेतु है किन्तु विराग रहित राग में समस्या, कष्ट और दुःख अनामंत्रित आ जाते हैं। साधक विराग की ओर प्रस्थान करता है । सामाजिक प्राणी के लिए भी आवश्यक है राग और विराग का संतुलन। दोहिं वि अंतेहिं अदिस्समाणे 1 अप्रैल, 1994 सी.स्कीम, जयपुर अपथ का पथ 21 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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