Book Title: Apath ka Path Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Jain Vishva BharatiPage 25
________________ साधना की भूमिकाएं चक्षुष्मान् ! एक शिष्य आचार्य के उपपात में गया और पंचांग वंदन कर बोला- 'भंते ! कोई भव्य पुरुष धर्म को सुन कर, पूर्व संयोगों को त्याग कर, इन्द्रियों और मन का उपशमन कर प्रव्रजित होता है। क्या इसके पश्चात् भी उसके लिये कुछ करणीय अवशेष रहता है या नहीं !' आचार्य बोले- 'वत्स ! प्रव्रज्या ग्रहण कर लेना ही पर्याप्त नहीं है। यह तो साधना का पहला चरण है। प्रव्रज्या ग्रहण के पश्चात् साधक को तीन भूमिकाएं पार करनी होती हैं। इनमें शरीर और कर्म का पीडन किया जाता है। उसके दो उपाय हैं- श्रुत और तप ।' पहली है आपीडन भूमिका । इसमें श्रुत के अध्ययन के श्रम से तथा श्रुतोपयोगी तप के आचरण से आपीडन होता है । दूसरी है प्रपीडन भूमिका । इसमें अनियत निवास-काल, यात्रा, धर्मोपदेश, शिष्यों के संवर्धन तथा अध्यापन और तप के आचरण में प्रकृष्ट पीडन होता है । तीसरी है निष्पीडन भूमिका । इसमें संलेखना के कारण उत्कृष्ट पीडन होता है । पहली भूमिका का कालमान है— चौबीस वर्ष का, दूसरी और तीसरी भूमिका का कालमान है बारह-बारह वर्ष का । आवीलए पवीलए निप्पीलए जहित्ता पुव्वसंजोगं हिच्चा उवसमं । 1 जुलाई, 1994 अध्यात्म साधना केन्द्र, नई दिल्ली 24 Jain Education International For Private & Personal Use Only अपथ का पथ www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66