Book Title: Apath ka Path
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 28
________________ अभय का मंत्र चक्षुष्मान् ! अपने आप में रहना अभय है। भय है अपने से बाहर जाना । यह मेरा है—व्याकरण की भाषा में इसे सम्बन्ध कहा जाता है और अध्यात्म की भाषा में इसका नाम है भय । जितना जितना मेरापन बढ़ता है, उतना उतना बाहर की ओर फैलाव होता है। जितना जितना बाहर की ओर फैलाव होता है, उतना-उतना ही भय बढ़ता है। इसीलिए महावीर ने कहा-अपरिग्रही बनो, अपने अस्तित्व की ओर लौट आओ। परिग्रह हो और भय न हो, यह कब संभव है ? इसी सत्य को सामने रखकर महावीर ने कहा था एतदेवेगेसिं महडभयं भवति, लोगवित्तं च णं उवेहाए। _क्या कोई शरीरधारी अपरिग्रही हो सकता है ? यदि ममत्व की चेतना है, पदार्थ के साथ मेरापन का भाव जुड़ा हुआ है तो नहीं हो सकता । ‘पदार्थ का उपयोग करना और उसके साथ मेरापन का भाव जोड़ना एक बात नहीं है। इस सचाई को समझ लेना ही अभय का मूलमंत्र है। 1 अक्टूबर, 1994 अध्यात्म साधना केन्द्र नई दिल्ली अपथ का पथ 27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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