Book Title: Apath ka Path
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 15
________________ अध्यात्म का शास्त्र: चक्षुष्मान् ! हमारे पास कान है। वह शब्द को सुनता है। हमारे जगत् का एक भाग है शब्द । हमारे पास आँख है । वह रूप को देखती है। हमारे जगत् का एक भाग है रूप । हमारे पास नाक है । वह गन्ध का अनुभव करता है। हमारे जगत् का एक भाग है गंध । हमारे पास जीभ है। वह रस का अनुभव करती है। हमारे जगत् का एक भाग है रस । हमारे पास त्वचा है। वह स्पर्श का अनुभव करती है। हमारे जगत् का एक भाग है स्पर्श । जो इनसे परे जाकर नई दुनिया को खोज लेता है, वह आत्मवान् है, ज्ञानी है, शास्त्रज्ञ है, धर्मज्ञ है और ब्रह्मवेत्ता है । प्रिय अप्रिय संवेदनों में उलझा रहने वाला व्यक्ति शास्त्र को पढ़ता हुआ भी शास्त्रज्ञ नहीं बनता, शास्त्र के मर्म को नहीं पकड़ पाता । भीम ने मर्म को पकड़ा, दुर्योधन पर विजय पा ली । अध्यात्म का शास्त्र इन्द्रियातीत चेतना का शास्त्र है। जिसे यह मर्म उपलब्ध हुआ, वह शास्त्रज्ञ बन गया, आत्मज्ञ बन गया । यही है निर्विकल्प समाधि । 14 आचारांग के इस सूक्त का अनुशीलन करो जस्सि में सद्दा य रूवा य गंधा य रसा य फासा य अभिसमन्नागया भवंति से आयवं नाणवं वेयवं धम्मवं बंभवं । जो पुरुष इन शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्शो को भली-भाँति जान लेता है उनमें राग-द्वेष नहीं करता, वह आत्मवान्, ज्ञानवान, वेदवान, धर्मवान् और ब्रह्मवान् होता है । 1 सितम्बर, 1993 राजलदेसर Jain Education International For Private & Personal Use Only अपथ का पथ www.jainelibrary.org

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