Book Title: Anusandhan 2018 04 SrNo 74
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 34
________________ काव्यः भविकनिरमलबोधविकासकं, जिनगृहे शुभदीपकदीपनं । सुगुणरागविशुद्धसमन्वितं दधतु भावविकाशकृतेर्जनाः |||| ह्रीँ परमात्मने० दीपं यजामहे स्वाहा ॥५॥ दूहा: अथ अक्षत | अक्षत अक्षतपूरसुं, जे जिन आगै सार । स्वस्तिक रचतां विस्तरे, निजगुणभरविस्तार ॥१॥ ढाल: ऊजल अमल अखंडित, मंडित अक्षत चंग | पुंजय करो स्वस्तिक, आस्तिक भावै रंग ॥२॥ निजसत्तामै सनमुख उन्मुख भावै जेह । ज्ञानादिक गुण ठावै, भावै स्वस्तिक एह ||३|| श्लोकः स्वस्तिक पूरतां जिनप आगै, स्वस्ति श्री भद्रकल्याण जागै । जनमजरामरणादिक असुभ भांगै, नियत शिवसर्म रहै तास आंगे ||४|| सकलमंगलकेलिनिकेतनं, परममंगलभावमयं जिनं । श्रयति भव्यजना इति दर्शयेत्, दधतु नाथपुरोऽक्षतस्वस्तिकं ॥५॥ ह्रीँ परमात्मने० अक्षतं यजामहे स्वाहा ||६| अथ नैवद्यपूजा ॥ सरस शुचि पकवांन बहु, शालि दालि घृतपूर । करौ निवेद्य जिन आगलिं, क्षुधा दोष तस दूर ॥१॥ लपनश्री घेवरवर मधुकर मोतीचूर । सिंहकेसरीया सेवीया, दालिया मोदकपूर ॥२॥ साकर द्राख सिंघोडा भक्ति व्यंजन घृत सद्य । काव्यः २०१८ दूहाः ढाल: २७ करो निवेद जिन आगलि, जिम मिलै सुख अनवद्य ||३|| श्लोकः ढोकतां भोज्य परभाव त्यागै, भविजना निजगुणै भोज्य मांगै । अमतणी अमतणी सरूप भोज्य, आपज्यौ तातजी जगतपूज्य ! ||४|| काव्यः सकलपुद्गलसंगविवर्जनं, सहजचेतनभावविलासकं । सरसभोजनभव्यनिवेदनात् परमनिर्वृतिभावमहं स्पृहै ॥५॥ ह्रीँ परमात्मने० नैवेद्यं यजामहे स्वाहा ||७||

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