Book Title: Anusandhan 2018 04 SrNo 74
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 74
________________ जान्युआरी - २०१८ ६७ शीतकर शोभा कुण कही वदि व्योमि जगि झगमगई, निःस्व प्रेम चिति चिंतवउ संवच्छर छन्नू लगइ. (सत्त्व, लीह, मद, साग, हस्त, पद्म, रमा, मति, प्रभा, तारा, पद्मा. आ शब्दोना आद्याक्षर मळीने नाम थाय - सलीमसाह परम प्रताप) २१. रोहिणीरमण अमूल निबल विद्या घट काचु, दीइ दाय ग्रह क्रूर बाल चालई कही माचु; परिखण विण कुण गलइ अतिहिं उतकट अति मीठं, महा महिमा महि मांहि तेह कुण ज्ञान ज दीर्छ । कुण हेतु शत्रु मित्रह तणुं कुण दोहिलिउं चिति चिंतवउ, जं जं पूर्छ चवउ, अन्न अन्न कां कां लवउ. (सोम, रत्नं, ठग, देहः, शत्रुः, मंद, डग, नंग, विषं, मधु, लग्नं, गिरः, रिण - एना आद्याक्षरथी बने छे : सोरठदेशमंडन विमलगिरि) कुमारोवाच : पढमखर विण मृगपति धाम, बीअक्षर विण देवीनाम; अंतिक्षर विण किंपि न होइ, मस्तकि सुर देई तुं जोइ. [सुरसुंदरी] कन्या प्राह : २३. पढमक्षर विण म कहु कोइ, मध्यक्षर विण जिनवर जोइ; छेहल्या विण दोइ करइ निषेध, ते तुं जाणइ चतुर सुजाण. [अमर] अमरकुमर प्राह : २४. पढमखर विणु ऊभी कहउ, मध्यक्षर विण कहीइ महु; अंतिक्षिर विण अन्नइ रही, सोहि नित तुझ सिर सारही. [राखडी] २२.

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