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मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू ( ठाणंगसुत्त, ५२९)
अनुसन्धान - ७४
श्री हेमचन्द्राचार्य
प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका
संपादक : विजयशीलचन्द्रसूरि
सीचकेवर जा
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि
2018
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मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू ( ठाणंगसुत्त, ५२९)
'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे'
अनुसन्धान प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य-विषयक सम्पादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका
सम्पादक:
विजयशीलचन्द्रसूरि
MARATHIBHIBHIT pooDoa
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IAL
श्रीहेमचन्द्राचार्य कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी
स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि
अहमदाबाद २०१८
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अनुसन्धान - ७४ आद्य सम्पादक : डॉ. हरिवल्लभ भायाणी सम्पादक : विजयशीलचन्द्रसूरि सम्पर्क : C/o. अतुल एच. कापडिया
A-9, जागृति फ्लेट्स, पालडी महावीर टावर पाछळ, अमदावाद-३८०००७ फोन : ०७९-२६५७४९८१
E-mail:s.samrat2005@gmail.com प्रकाशक : कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम
जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि,
अहमदाबाद प्राप्तिस्थान : (१) आ. श्रीविजयनेमिसूरि जैन स्वाध्यायमन्दिर
१२, भगतबाग, जैननगर, नवा शारदामन्दिर रोड, आणंदजी कल्याणजी पेढीनी बाजुमां, अमदावाद-३८०००७
फोन : ०७९-२६६२२४६५ (२) श्रीविजयनेमिसूरि ज्ञानशाला
शासनसम्राट भवन, शेठ हठीभाईनी वाडी, दिल्ही दरवाजा बहार, अमदावाद-३८०००४ मो. ९७२६५ ९०९४९
E-mail: nemisuri.gyanshala@gmail.com (३) सरस्वती पुस्तक भण्डार
११२, हाथीखाना, रतनपोल, अमदावाद-३८०००१
फोन : ०७९-२५३५६६९२ प्रति : ₹ 250 मूल्य : 100-00 मुद्रक : क्रिश्ना ग्राफिक्स, किरीट हरजीभाई पटेल
९६६, नारणपुरा जूना गाम, अमदावाद-३८००१३ (फोन: ०७९-२७४९४३९३)
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निवेदन
संशोधन ए एक निरन्तर चालती अने संवर्धन पामती प्रक्रिया छे. ए रीते विचारीए तो, 'संशोधन' ए 'सर्जनात्मक प्रवृत्ति के प्रक्रिया होवा छतां 'सर्जन' थी साव जुदी बाबत छे.
आ मुद्दो जरा विगते जोईए :
'सर्जन' एटले एवी प्रक्रिया के जेमां सर्जक पोतानी प्रतिभात्मक क्षमताना बळे कांईक नवं ज, जे अत्यार पहेलां न होय तेवू, प्रगट करे छे के पछी निर्मे छे. पहेला हती ते वातने, चीजने के विषयने नवा रंग-रूप आपीने रजू करवामां आवे तेने 'सर्जन' के 'निर्माण' नथी गणवामां आवतुं; ते तो मात्र ‘अभिव्यक्ति' ज होय-नवा रूप-रंगे थती, प्राकट्य के निर्माण नहीं. वधुमां वधु 'पुनर्निर्माण' एवं नाम आपी शकाय, जे कोई रीते 'नवसर्जन'नुं नाम नहि पामी शके.
ज्यारे 'संशोधन' ए ‘सर्जन' अने 'पुनः सर्जन' ए बन्नेथी तद्दन अलग ज प्रवृत्ति छे. 'संशोधन'मां कशुं ज नवं रचवानुं के सर्जवानुं नथी होतुं. तेमां तो जे बाबत भूलाई गई होय, अर्थात् जे बाबत कोई स्वरूपे, क्यांक, विद्यमान होय अने छतां ते तेना असली स्वरूपे उपलब्ध न थती होय, वीसराई गई होय, रूपान्तर-नामान्तर पामीने बदलाई गई होय, तेना पर विस्मृतिनां, मान्यताओनां के कालनां आवरणो चडी गयां होय, ते बाबतने तेना असली रूपमां अने नामथी उपलब्ध अने प्रस्तुत करवानी होय छे; तेमां अनैतिहासिक अने गलत, कदीक विकृत पण, मान्यताओने खोटी ठराववानी होय छे; विस्मृतिना गर्तमां दटाई होय तो तेने पुनः उजागर करवानी होय छे; तेना पर लागेला काळना काटने दूर करवानो होय छे; घणीवार तो तेनुं 'अस्तित्व' पुरवार करी आपवानुं होय छे.
आम, संशोधनमां नवं कशुं ज सर्जवानुं न होवा छतां, तेमां अवास्तविकने वास्तविकमां बदली आपवानी, भ्रमणाओ, निरसन करी यथार्थने अनावृत करी देवानी सृजनात्मकता तो छ ज. अने छतां ए स्पष्ट समजवानुं छे के संशोधन ए सर्जन करतां साव अलग बाबत के प्रवृत्ति के प्रक्रिया छे.
बीजी वात : संशोधन ए निरन्तर अने अनेक व्यक्तिओ वच्चे चालती
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प्रक्रिया छे. 'सर्जन' पूर्ण थई जाय एटले तेनी प्रक्रिया विराम पामे छे, अने सर्जन ए कोई पण सर्जकनी निजी प्रक्रिया होय छे; एकाधिक सर्जको वच्चे वहेंचातीविस्तरती प्रक्रिया नथी होती. ज्यारे 'संशोधन'ने क्यारेय विराम नथी होतो, अने ते एकथी वधु शोधकोमां वहेंचाती-विस्तरती रहेनारी प्रक्रिया छे. दा.त. एक संशोधके एक विषयमां कोई संशोधन, पोतानी दृष्टि-अनुसार कर्यु, अने ते विद्वानोनी संमति-स्वीकृति पण पाम्युं. परन्तु बीजा कोई शोधकनी दृष्टि, प्रथम शोधक करतां कांईक जुदुं निहाळी ले, अने ते प्रथम शोधक करतां जुदुं संशोधन करी देखाडे; ते जुदो पाठ शोधी आपे, जुदो अर्थ तारवी आपे, पोताना दृष्टिकोणथी अथवा तो अन्य विशेष सन्दर्भोनी मददथी ते जुदी ज वात लावी आपे; तो ते शक्य छे.
आ आखीये प्रक्रियाने लक्ष्यमां लेतां स्वीकारवू ज पडे के संशोधन क्यारेय पूर्ण थतुं नथी; संशोधन, विविध शोधकोमां वहेंचाती-विस्तरती अने सतत नवा नवा उन्मेषोने दर्शावती-प्रगटावती, निरन्तर चाल्या करनारी प्रक्रियारूप छे.
आथी, सर्जक जेम पोताना 'सर्जन' परत्वे गौरव अने आश्वास लई-माणी शके, तेवा गौरव अने आश्वास संशोधके लेवाना नथी होता. तेणे तो पोताना संशोधन विषे पण, जाते, संशोधन करतां रहेवानुं छे, तेमां रही गयेली क्षतिओ - पोते शोधीने अथवा कोई दर्शावे तो ते – ने सतत सुधारता-सँवारता रहीने तेने परिपूर्ण के अणीशुद्ध बनाववा मथतां रहेवानुं छे.
आ समग्र विमर्शना अन्तमां आपणे एटलुं कही शकीए के -
कोई संशोधन आखरी होतुं नथी; तेमां सतत पुनः संशोधनने के सुधारा अने फेरफारने अवकाश होय ज छे. अने,
संशोधन ए एक शास्त्रीय, ऐतिहासिक, धार्मिक तथा सामाजिक जवाबदारी छे. अस्तु.
- शी.
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अनुक्रम
सम्पादन अनेकार्थसंज्ञक बे स्तोत्रो
सं. गणि सुयशचन्द्रविजय
मुनि सुजसचन्द्रविजय कुलमण्डनसूरिकृताः समस्याश्लोकाः सं. उपा. भुवनचन्द्र बे पूजाओ
सं. विजयशीलचन्द्रसूरि बे अप्रगट रचनाओ सं. मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय श्रीविजयसिंहसूरीश्वर-पदमहोत्सव रास कर्ता : कवि दयाकुशल गणि सं. गणि सुयशचन्द्रविजय
मुनि सुजसचन्द्रविजय गूढा - प्रहेलिका - समस्या - हरियाळी (२)
सं. उपा. भुवनचन्द्र स्वाध्याय विहंगावलोकन
उपा. भुवनचन्द्र
३७
·६३
७६
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आवरणचित्र - परिचय
श्री चक्रेश्वरी देवीनुं प्राचीन चित्र
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अनेकार्थसंज्ञक बे स्तोत्रो
- सं. गणि सुयशचन्द्रविजय
मुनि सुजसचन्द्रविजय
अनेकार्थसंज्ञक रचनाओगें वर्गीकरण अन्य रीते ३ प्रकारे पण विचारायुं छे । (१) अनेकार्थी पद्यवाळी रचना (२) अनेकार्थी चरणवाळी रचना (३) अनेकार्थी शब्दवाळी रचना
प्रस्तुत बन्ने कृतिओनो समावेश उपरोक्त त्रीजा प्रकारवाळी रचनाओमां करी शकाय । अहीं प्रथम काव्यमां कविए 'सारंग' तथा 'हरि' शब्दने तेम ज बीजा काव्यमां 'गो' शब्दने विविध अर्थोमां प्रयोजी काव्यनी रचना करी छ ।
आम तो उपरोक्त त्रणे शब्दने विभिन्न अर्थरूपे समावती स्वतन्त्र रचनाओ तो ५-७ मळे छ पण अहीं प्रकाशित करायेली रचनाओमा प्रथम रचना चतुःषष्टिकर्णिकोपेत कमलबन्धबद्ध चित्रालङ्कारनी दृष्टिथी, तेम ज काव्यना प्रत्येक पद्यना प्रत्येक चरणमां आदि-अन्त रूपे प्रयोजायेल २ विभिन्न शब्दोना अनेकार्थी प्रयोगने कारणे वैशिष्ट्यवाळी होइ सम्पादनार्थे पसंद कराई छे । ज्यारे बीजी रचना 'गो' शब्दना मळता अन्य अनेकार्थी काव्यो करता पद्यबाहुल्यथी जिनेश्वर प्रभुनी स्तवनानी दृष्टिथी महत्त्वपूर्ण होवाथी प्रकाशित कराई छ । कृतिकार
श्रीहीरविजयसूरीश्वरनी परम्पराना कोई विद्वान कविनो प्रथम रचना छ । कविए काव्यान्ते प्रयोजेल ‘पर्वतसेवकेन' शब्द कृति-रचयिताना नाम अंगे भ्रम ऊभो करे छे । तेथी कवि कां तो पर्वत छे अथवा तेमना कोई सेवक (शिष्य) होय तेम विचारी शकाय । ज्यारे बीजी रचना लोंकागच्छीय कवि तेजसिंहनी रचना छ। कविए उद्यमपंचविंशिका, गणितपंचविंशिका जेवी अन्य नानी मोटी १५-२० कृतिओ रची छे । जो के हजू तेमांनी घणी अप्रकाशित छे । आ वृतिओनो अभ्यास थाय तो कवि तेजसिंहना जीवनचरित्र पर विशेष प्रकाश पाथरी शकाय ।
प्रान्ते बन्ने कृतिओनी हस्तप्रतनी Xerox आपवः बदल अनुकमे श्री नाकोड़ा पार्श्व. जैन ट्रस्ट (नाकोडा) ना तेम ज श्री नामा-विज्ञान-कस्तूरसूरि ज्ञानभण्डारना व्यवस्थापकोनो खूब खूब आभार ।
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२
अनुसन्धान-७४
चतुःषष्टिकणिकोपेतं कमलबन्धमयं प्रतिपदं चाद्यन्ते सारङ्ग - हरिशब्दमण्डितं जिनस्तवनम्
सारङ्गधरं सुवृषाप्तहरिं, सारङ्गमुखं वृषभं नृहरम् (हरिम्) । सारङ्गकुलानिस(भ)चारुहरिं, सारङ्गधरं कविचक्रहरिम् ॥१॥ सारङ्गगतिप्रमदोग्रहरि, सारङ्गनिभालनकामहरिम् । सारङ्गवितानसुतानहरिं, सारङ्गगतिं नमिताशुहर (रि)म् ॥२॥ सारङ्गजने कृपयाप्तहरिं, सारङ्गनमिं सुवशं सुहरिम् । सारङ्गधराजितपार्श्वहरिं, सारङ्गनिभं नरपापहरिम् ॥३॥ सारङ्गदिने सुकृतेन हरिं, सारङ्गनिभं समताद्रिहर (रि)म् । सारङ्गसुकीर्त्तिललालहरि, सारं गरिमासुमदेभहरिम् ||४|| सारङ्गचलाविषयास्तहरिं, सारङ्गचलाधिपवाणिहरिम् । सारङ्गरवं धृतसारहरं(रिं), सारङ्गविभारगताशुहर (रि) म् ॥५॥ सारङ्गकृपापरपार्श्वहरिं, सारङ्गसुपार्श्वमघाहिहरिम् । सारङ्गसुनकृजिताग्रहरि(?), सारङ्गशुभाननतारहरिम् ॥६॥ सारङ्गकचाजितविश्वहरिं, सारङ्गनिदानविमुक्तहरिम् । सारङ्गसुशीलसुवासहरिं, सारङ्गमहातपनीयहरिम् ॥७॥ सारङ्गकलालयनोमिहरिं, सारङ्गवशाङ्गिकभोगहरिम् । सारङ्गततिस्फुरिताङ्गहरिं, सारङ्गसुधामरमास्थहरिम् ||८|| सारङ्गनिधानसुदानहरिं, सारङ्गलसन्त (त्त) नुकान्तिहरिम् । सारङ्गभवं बललब्धहरिं, सारङ्गपदं रमयाभू (भ्र ? ) हरिम् ॥९॥ सारङ्गभवं मदशत्रुहरिं, सारङ्गबलाभिकुरङ्गहरिम् । सारङ्गधरं नतदेवहरिं, सारङ्गभवादरसप्तहरिम् ||१०|| सारङ्गनृपाननशुल्कहरिं, सारङ्गधरं धनदोग्रहरिम् । सारङ्गशरोर्मभिनं नृहरिं, सारङ्गधरं जिनहस्तिहरिम् | ११|| सारङ्गजिनेन्द्रसुरेन्द्रहरिं, सारङ्गधुराद्रविणाब्जहरिम् । सारङ्गधरं वदनाब्जहरिं, सारं गरिमारमयाङ्कहरिम् ॥१२॥ सारङ्गपतेः गणगीतहरिं, सारङ्गपरिच्छदघस्रहरिम् । सारङ्गणनायकहारिहरिं, सारङ्गसुकायमहीनहरिम् ॥१३॥
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जान्युआरी - २०१८
सारङ्गधुरार्कतुषारहरिं, सारङ्गमहीनतुषारहरिम् । सारङ्गधयारपचारुहरिं, सारङ्गमनोविधहस्तहरिम् ॥१४॥ सारङ्गकजस्थपदाब्जहरिं, सारङ्गसुतायसिवाग्रसुहरिम् (?) । सारङ्गजसूरतयोग्रहरि, सारि(र)ङ्गनिभं रिपुदावहरिम् ॥१५॥ सारङ्गकृपं प्रशमाग्रहरं(रि), सारङ्गसुतापसहस्रहरिम् । सारङ्गसुपर्वदनोमिहरिं, सारङ्गगतिं तमसो विहरिम् ॥१६॥ इत्थं मया निजधिया जिनराजवर्य(:), पुण्योदयेन बत संस्तुत आदरेण । सूरीशहीरविजयाह्वपदाब्जसेवा-हेवाकिना विबुधपर्वतसेवकेन ॥१७॥
॥ इति श्रीजिनस्तवनम् ।। चतुःषष्टिकणिकोपेतं कमलबन्धमयं प्रतिपदं चाऽऽद्यन्ते सारङ्ग-हरिशब्दमण्डितम् ।।
"वृषभं विमलं नमि-नेमिजिनं, सुमतिं सुविधिं वरपार्श्वजिनम् । जिनशीतल-शान्ति-मनन्तवरं(र)-अ(म)भिनन्दन-धर्मजिनेन्द्रवरम् ।। गच्छनायकश्रीहीरविजै(ज)यसूरी(रि) । पं. पर्वत" - मध्ये पदप्रतिष्ठितम् ॥ चतुःषष्ट्यक्षरसंयुक्तः(क्तम्)
॥ शुभं भवतु || कल्याणमस्तु ।
मुनितेजसिंहरचितं 'गो'शब्दचतुर्विंशतिविभिन्नार्थयुतं
सर्वजिनसाधारणस्तोत्रम् मुखे -ले-षु-वाक् -दृग्(क्) -कपी-भा -शु-तन्त्रै - भिद्-क्षा-ऽग्नि-गत्या (त्य)[प] -प्रकाशा-स्त्र-सत्त्वैः । पवित्रा-ऽग-दिग्-धेनु-गान्धर्व-स्वर्गः, समुद्रा-ऽक्षि(२४)सङ्ख्यैजिनां(नान्) स्तौमि गौ(गो)जैः ॥ द्वारकाव्यम् ॥१॥ मुदे वोऽब्जसोदर्यसादृक्षगावो' मुदे वोऽस्तु* भूय(यि)ष्ट(ठ)पुण्यैकगावः । मुदे वोऽप्रकृष्टारिसम्भेदगावो मुदे वोऽन्धमिष्टानसोमालगाव: ॥२॥ मुदे वोऽब्जसाधारणद्वैतगावो मुदे वोऽस्तु सन्दानितस्वात(न्त)गाव(वः) । मुदे वोऽस्तु लोभद्रु[म] प्रौढगावो मुदे वोऽस्तु मिथ्यात्वपांशुप्रगाव: ॥३॥
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अनुसन्धान-७४
मुदे वोऽस्तु सम्भाषिताशेषगावो मुदे वोऽस्तु गर्वाद्रिदेवेन्द्रगाव:१० । मुदे वोऽस्तु वाचंयमव्यूहगावो १ मुदे वोऽस्तु कर्मेन्धनादग्धगाव:१२ ।।४।। मुदे वोऽस्तु सञ्छेदितानिष्टगावो३ मुदे वोऽच्युताङ्गोत्थदग्निगाव:१४ । मुदे वोऽस्तु भव्याब्जबोधार्कगावो५ मुदे वोऽस्तु जीवावनारत्रै(स्वे)कगाव:१६ ।।५।। मुदे वो क्रुधारीषुमुक्प्रौढगावो मुदे वोऽस्तु रोगेभशार्दूलगाव:१८ । मुदे वो गुणानेकगात्राङ्गगावो मुदे वोऽस्तु विट् भव्यपक्षीष्टगाव:२० ॥६॥ मुदे वो मताधोर्ध्वतिर्यक्षुगावो२१ मुदे वोऽस्तु मत्र्येष्टशंदेष्टगाव:२२ । मुदे वोऽस्तु नम्रासुरामर्त्यगावो२२ मुदे वः समाख्यातभूमुक्तिगाव:२४ ।।७।।
अथ मालिनीछन्दः -
गणिव(ख)रतरगच्छाधीश्वरः केशवाख्यस्तदनुग(ज)?-मुनिशिष्येणातपेभद्विषेण । रचितमलमिदं हि स्तोत्रकान्त(न्तं?)गुणौघं, सकलजिनवराणां भव्यसौख्याकराणाम् ।।८।। इति सर्वजिनसाधारणस्तोत्र(त्र)म् ।
कृतं मया तेजसिंहेन । || शुभं भवतु ॥
* 'वोऽस्तु'ना स्थाने बधे 'सन्तु' पद होवू जोइए एq लागे छ । १. मुख-इला-इषु-वाक्-दृग्(क्)-कपि-इभ-तन्त्र २. भिदू-उक्ष-अग्नि-गति-अप्-प्रकाश-शास्त्र-अस्त्र-सत्त्व ३. पवित्र-अग-दिग्-धेनु-गान्धर्व-स्वर्ग - उपरोक्त क्रमे २४ अर्थो माटे 'गो' शब्द
वपरायो छे.
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कुलमण्डनसूरिकृताः समस्याश्लोकाः
- सं. उपा. भुवनचन्द्र
जैन श्रमणोनी विद्योपासनानो मूलभूत उद्देश आगमशास्त्रादिना अभ्यास द्वारा तत्त्वज्ञान / धर्ममार्गनी समज विशद करवी - एवो ज रह्यो छे, परन्तु एनी पूर्वतैयारीरूपे संस्कृत ! प्राकृत / छन्द / तर्कशास्त्र । विविध भाषाओनो अभ्यास करवानो थाय अने ए विद्या-व्यासंगनो विनियोग प्रभुभक्ति । ज्ञानप्रसार / संघसेवाना क्षेत्रे सहेजे थाय. आना परिणामरूपे स्तोत्र / प्रकरण / नूतन सर्जन पण जैन श्रमणोना हस्ते थतुं रडुं छे. विद्वत्ता नव-नवा रूपे झळक्या विना न रहे.
विद्वानोने प्रिय एवो एक साहित्यप्रकार छ : कूटकाव्य-चित्रकाव्य-प्रहेलिकापादपूर्ति-समस्याकाव्यो. राजसभाओमां के विद्वत्सभाओमां वाद-वितण्डा-शास्त्रार्थ थता, तेम नवराशनी पळोमां मनोरंजन माटे । बुद्धिविलास रूपे समस्या-पादपूर्ति वगेरे बौद्धिक व्यायाम पण थता. कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य, बप्पभट्टिसूरि आदि प्रखर प्रतिभाओ द्वारा रचायेली आ प्रकारनी रचनाओ उपलब्ध छे. कूटकाव्य, पादपूर्तिरूप रचनाओ पुष्कळ मळे छे.
एक ज कवि द्वारा प्रसंगे प्रसंगे रचायेल समस्याश्लोकोना संग्रहरूप एक कृति अमने अमर जैनशाला - खम्भातना ह.लि. भण्डारमाथी मळी छे. रचयिता छ कुलमण्डनसूरि. एमनो समय छे विक्रमनी पंदरमी शताब्दी. आ विद्वान साहित्यकार आचार्यनी अन्य कृतिओ उपलब्ध छे. 'मुग्धावबोध औक्तिक' ए गूर्जरभाषाना प्राचीन व्याकरणरूप रचना आ आचार्यनी प्रसिद्ध कृति छे. सिद्धान्तालापकोद्धार, विचारमृतसारसंग्रह तथा केटलीक अवचूर्णिओना पण तेओ कर्ता छे. अष्टादशचित्रचक्रविभूषित वीरस्तव, पञ्चजिन हारबन्धस्तव जेवी क्लिष्ट-कूट कृतिओ पण तेमणे रची छे. प्रस्तुत 'समस्याश्लोको' तेमना नामे क्यांय नोंधाया नथी, तेथी आ स्तवना अहीं सर्वप्रथम वार प्रगट थाय छे - एम कही शकाय.
प्रति ३ पानानी छे अने कर्ताना समय पछी तरत (कदाच विद्यमानतामां) लखाई होय एवो सम्भव छे, अने तेथी ज सम्पूर्णपणे शुद्ध छे. मात्र श्लोकाङ्क लखवामां गरबड छे. अहीं अमे नवेसरथी श्लोकोने क्रमाङ्क आप्या छे.
___ आ श्लोको भिन्न भिन्न प्रसंगोए रचाया हशे. आचार्यना शिष्य-प्रशिष्ये
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६
अनुसन्धान-७४
अथवा कोई परिचित विद्वाने ए श्लोकोनो संग्रह करी लीधो हशे श्लोक ७मां अलाउद्दीननुं अने श्लोक ८मां कुमारपाल महाराजानुं नाम जोवा मळे छे. दरेक श्लोक समस्यापूर्तिनो छे. कोई एक विचित्र कल्पनाने एक चरणमां गूंथी, तेने बंधबेसता बाकीना त्रण पाद तत्काल रची आपवानुं आह्वान थाय. ए असम्भव के अशक्य कल्पनानुं चित्रण करवामां उत्प्रेक्षा अलङ्कार मोटा भागे मददरूप बने. प्रस्तुत संग्रहमां श्लोके श्लोके उत्प्रेक्षाओ भरी पडी छे. एक ज पंक्ति आधारित ३-३ के ४-४ पादपूर्तिओ पण आमां जोवा मळे छे. अपवादरूपे क्यांक प्रश्नमाला, क्यांक उपदेश, तो क्यांक प्रहेलिका पण जोवा मळे छे.
आ संग्रह श्रीकुलमण्डनसूरिनी प्रत्युत्पन्न मति, विद्वत्ता अने विनोदप्रियतानां सुन्दर दर्शन करावे छे. रचना विद्वद्भोग्य छे, अने तेथी विद्वानाने प्रसन्नकर बनशे. प्रतिनो अनुक्रम अंक लखवानुं रही गयुं छे. आ कृतिनी प्रतिलिपि आपवा बदल नीतिविजयजी शास्त्रसंग्रह, अमर जैनशाळाना कार्यवाहकोनो आभार.
*
समस्या श्लोकाः ("धनु:कोटौ भृङ्गस्तदुपरि गिरिस्तत्र जलधि:'-)
१. फणीन्द्रो यद्वक्रीकृतनिजतनुस्तत्र भगवान् जिनः पार्श्वो भूयः फणसमुदयश्चोपरि तत: । तदूर्ध्वं नीरौघः कमठरचितस्तत्र घटते धनुः कोटौ भृङ्गस्तदुपरि गिरिस्तत्र जलधिः ॥ २. धनुश्चन्द्रः सोऽयं भुवनजयिनश्चित्तजनुषः कलङ्कस्तत्रायं मधुकरति मेघस्तदुपरि । गिरीन्द्रस्तत्रायं तदुपरि खगङ्गात्र घटते धनुः कोटौ० ॥
३. प्रसूनाग्रालीने मरकतधिया काऽपि मधुपे, कुचं मुग्धा दध्रे प्रियविरहसन्तापविधुरा । अमुञ्चद् बाष्पौघं तदुपरि तदा पुष्पधनुषो, धनुः कोटौ ० ॥
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जान्युआरी - २०१८ ४. कलायाः शीतांशोरुपरि गिरिजाचुम्बनविधौ,
विलग्नं कस्तूरीतिलकमुपरिष्टात् पशुपतेः । जटाजूटं तुझं तदुपरि सरित् तत्र घटते
धनुःकोटौ० ॥ ५. यदा पृथ्वीनाथः पृथुरिति गिरीनग्रसरसी
जुषः प्रोच्चिक्षेप प्रबलधनुरग्रेण वियति । सपर्याकस्तूरीमिलितमधुपं नाजनि तदा,
धनुःकोटौ० ॥ ६. जितः सर्वः सर्गस्तदनु निखिलं भूमिवलयं
जितं जेतुं यातो जलनिधिपथेनोरगमद[म्] । यदा मैनाकाधः स कुसुमधनुःपाणिरभवत् धनुःकोटौ० ॥
"मत्सी रोदिति मक्षिका च हसति ध्यायन्ति वामभ्रवः" ७. युद्वामद(युद्धे श्रीमद)लावदीन(?)नृपतौ कुर्वत्यनीकोद्धरे
पानीयाशयशोषणेन सुभटश्रेणिक्षितिप्राप्तिभिः ।। तादृग्वीरविशेषभत्रधिगमं दिव्यस्त्रियोऽनुक्रम,
मत्सी रोदिति मक्षिका च हसति ध्यायन्ति वामभुवः ॥ ८. तत्तज्जीवविघातरक्षणपरे वित्तं रदन्त्यास्तथा,
मुञ्चन्त्यत्र कुमारपालनृपतौ सुश्रावकेऽस्तं गते(?) । अन्तःप्रोद्यदपारदुःखवशतो तै लक्ष्य(वैलक्ष्य?)तः साध्वसान्मत्सी० ॥ भूपाम्बून्यखिलानि शोषमगमंस्त्वत्कप्रतापोष्मणा, शत्रूणां हृदयं व्यदीर्यत ततः शोकः समुद्(ज्)जृम्भितः । स्थानाभाववशात् क्षताधिगमतः कृच्छ्राकुलत्वादहो
मत्सी० ॥ १०. गङ्गां वीक्ष्य शिरःस्थितामलिलसत्पद्माभिरामामुमा
शम्भोः सेयॆमनाः कपर्द्ध(?) मनु(न)सा तालप्रहारं ददौ ।
."
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अनुसन्धान-७४
तस्मादिन्दुरहो पपात सरितोऽम्भोजेषु पूर्णं तदा चन्द्रश्चुम्बति चञ्चरीकचरणं चञ्चच्चपेटाहतः ॥
"सूचीमुखाग्रे मुशलं प्रविष्टम्'' ११. करोमिकायां प्रतिबिम्बितं यद्
बलस्य वजे मुशलं प्रविष्टम् । विलोक्य लोकस्तदिदं जजल्प
सूचीमुखाग्रे मुशलं प्रविष्टम् ॥ १२. अब्दस्य बिन्दून्मुशलप्रमाणान्
निरीक्ष्य लोकाः पततो यवाग्रे । वदन्ति भोः पश्यत चित्रमेतत्
सूची० ॥ १३. सङ्खण्डयत्या मुशलं युवत्या
करस्थिते कङ्कणहीररत्ने । प्रविष्टमालोक्य वदन्ति लोकाः
सूची० ॥ "शम्भुः कृष्णस्य( श्च ) युद्धं सपदि विदधतौ वीक्षितौ तुल्यकालम्" १४. तैस्तैर्दैत्यप्रकाण्डैरतुलबलयुतैः पीड्यमानं समन्तात्
त्रैलोक्यं वीक्ष्य दक्षौ तरुणकरुणयालिङ्ग्यमानान्तरङ्गौ । उच्छेत्तुं तान् प्रचण्डावहमहमिकया तौ प्रवृत्तौ ततोऽभूत्
शम्भुः कृष्णस्य(श्च) युद्धं सपदि विदधतौ वीक्षितौ तुल्यकालम् ।। १५. शम्भुव॒ते सुरेन्द्रप्रभृतिभिरमरैः सागरोऽयं ममन्थे,
को हेतुस्तत्र लक्ष्मीप्रभृति समभवत् _ मराकाक्षभागे । संजज्ञे कालकूटं मम तु बुधगणा नोचितं स्यात्तदित्थं, शम्भुः० ॥
"भो भोः पश्यत कौतुकं जलमुचा मेघेन दग्धः पुमान्" १६. श्रुत्वा प्रावृषि गर्जमूर्जिततमां तन्वन् श्रवो दुःश्रवां,
धाराभिर्मुशलोपमाभिरनिशं वर्षन् मुमोचानिशम् ।
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सा किञ्चिद्विजघान तं तु विमतं दृष्ट्वा जनः प्रोक्तवान्,
भो भोः पश्यत कौतुकं जलमुचा मेघेन दग्धः पुमान् ॥ १७. पान्थः कश्चन वल्लभामभिनवप्रेमाणमाज्ञावशां,
स्मृत्वा प्रावृषि चन्द्रसुन्दरमुखीं दूनो वियोगाग्निना । श्यामत्वं गतवान् विलोक्य तमिमं लोका वदन्ती(?) भृशं, भो भोः० ॥
१८. दोर्दण्डाभ्यां शकपरिवृढस्यैष बिभ्यत् सुरेन्द्रः,
सर्वं सज्जं प्रहरणगणं कारयामास तूर्णम् । स-- चं (?) धनुरपि समीक्ष्यावदत् सिद्धसंघ(?)
चित्रं चित्रं हरिधनुरिदं रोपितज्यं मयैक्षि । १९. अणिमगरिममुख्याः शक्तयो यस्य वश्याः
कलयति च महान्तं देवताया वरं यः । प्रकटयति स शक्तिं दृश्यतां भोः सदस्याः न भवसि नलिनपात्रे दन्तिनः सञ्चरन्ति ।।
"वज्रेणापि निपातितात्वर( ? )मसौ चित्रं पुमान् जीवितः" २०. बाल्ये वीरजिनं निरीक्ष्य शिशुभिः क्रीडन्तमीÓवशात्
कश्चिद् भीषयितुं सु[रोऽ]मिलदहो वर्द्धिष्णुकायोऽभवत् । मुष्ट्या वामनित: पपात पदयोस्तं वीक्ष्य लोकोऽवदद् -
वज्रेणापि निपातितात्त्वर( ? )नसौ चित्रं पुमान् जीवितः ॥ २१. दम्पत्योः पुरुषायिते मृगदृशा गाढस्मरोष्मस्भृ(पृ?)शा,
पीनोत्तुंगपयोधरोद्धरयुगेनेशो भृशं ताडितः । मूर्ध्वान्ते कसमाश्वसन् पुनरमुं वीक्ष्यावदन्नालयो
वज्रेणापि० ॥ २२. श्रीरामो जनकात्मजाविरहितः संमील्य शाखामृगान्
बर्द्ध सागरमीयिवान् बुधतया भिन्नाभिधानैर्वदन् ।
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अनुसन्धान-७४
अम्भोधिर्जलधिः पयोधिरुदधिरांनिधिर्वारिधिः
षट् सेनापतयस्त्वराधिकमसौ भो बध्यतां बध्यताम् ।। २३. श्रीखण्डद्रर्वगन्धवाहिनि लसल्लावण्येतोये तथा
सौभाग्यैकभुवि प्रदीप्तम,नाग्नौ चन्द्रबिम्बोपमे । नित्यं भर्भास्वति याजके मदमभिख्यामम्बरस्यावह
त्यष्टौ धूर्जटिमूर्तयः स्तनतटे तन्वङ्गि ! दृष्टास्तव ॥ २४. संग्रामे विनिपातितेषु भवता कान्तेषु वैरिस्त्रियो,
वैराग्येण दशावतारमधवाश्चित्रे समालेखयन् । तस्मिंश्चित्प्रतिबिम्बिते करगते स्वस्वस्तनद्वन्द्वके
देव त्वद्रिपुकामिनीकुचतटे कृष्णावतारा दश ॥ २५. नायं कलङ्कोऽपि तु पूजनाय पीयूषकुम्भस्य निशाकरस्य ।
सुधाशिनीनाथनिवेशितोऽसौ दूर्वाङ्करश्चन्द्रमसं चुचुम्ब ॥ २६. तीव्रानुरागात्सुरतप्रयोगे स्त्रीपुंसयोर्गाढतरं प्रवृत्ते ।
तत्साक्षिणी व्रीडवशादिवेयमधोमुखी दीपशिखा बभूव ॥ २७. अरीणामयशःपूरे तव स्वैरं विजृम्भिते ।
जाने श्यामं जगदभू-देहे कज्जलबिन्दुवत् ॥ २८. श्रीजैनशासनं नान्य-वादिभिः परिभूयते ।
क्वाप्यदः सम्भवेत्तत्कि चन्द्रो गिलति भास्करम् ॥ २९. मन्ये कलज्जया रत्न-कुट्टिमे प्रतिबिम्बितः ।
शशाङ्को जर्जरीभूय पतितः क्षितिमण्डले ॥ ३०. प्रकाशयति सिद्धः स्वां शक्तिं पश्यत भो जनाः ।
सूर्यः क्षरति पीयूषं तीव्रस्तपति चन्द्रमाः ॥ ३१. बलिं याचककल्पद्रु-महं बद्धं समागतः ।।
इतीव लज्जया मन्ये विष्णुमनतां गतः ॥ ३२. कलौ पापभराज्जाते विपरीते जगत्त्रये ।
कीटिकाकटकं दृष्ट्वा प्रनष्टा हस्तिनां घटा ॥ ३३. वज्रतुण्डवपुःपीडा-कारकं समुपेयिवान् ।
कीटिका० ॥
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जान्युआरी - २०१८ ३४. वर्षाकाले पयोराशिः कथं गर्जितवर्जितः ।
गुप्तं सुप्तजगन्नाथ-निद्राभङ्गभयादिव ।। ३५. पार्वतीपरिणयादनन्तरे स्थापिते शिरसि शङ्करे तदा । ___घोटकोर्दनकृते सुरङ्गया गङ्गया शिरसि शङ्करः कृतः ॥ ३६. भित्तिस्थोत्तमचित्रस्थं सजलस्थालबिम्बितम् ।
मक्षिकापादघातेन कम्पितं भुवनत्रयम् ॥ ३७. फणीन्द्रनासासंक्षोभं कम्पमाने फणागणे ।
मक्षिका० ॥ ३८. तत्कण्ठे गरलं विराजतितरां १ शीर्षे च मन्दाकिनी २
उत्सङ्गे च शिवामुखं ३ कटितटे शार्दूलचर्माम्बरम् ४ । माया यस्य रुणद्धि विश्वमखिलं तस्मै नमः शम्भवे
जम्बूवज्जलबिन्दुवज्जलजवज्जम्बालवज्जालवत् ॥ ३९. श्रीमत्कुम्भतनूद्भवेन मुनिना निष्पीतनीरार्णवे,
सम्यक्तिर्यगधःप्रसारितदृशा निर्वर्णयांचक्रिरे । श्रीकृष्णोऽमृतकुण्डकं फणिवपुः कोलोऽथ दैत्यालयः,
जम्बू० ॥ ४०. सङ्ग्रामे रिपुभूभुजां मुखरुचिर्जीवश्च देवाङ्गनाः,
चक्षुः प्रोल्लसदश्रुमांसनिवहैस्तन्मेदिनीमण्डलम् । तद्व्याप्योद्गतबाणसंहतिरभूच्छीरामभूमीपतेः
जम्बू० ॥ ४१. अस्याः केशकलापकान्तिविभवो भालस्थितं मौक्तिकं
चक्षुः प्रेमलसत्कपोलफलके कस्तूरिकामण्डनम् । भ्रूभङ्गीभिरतरतस्मि(?रितस्ततः)स्तबकितैराकृष्य बद्धं मनः,
जम्बू० ॥ ४२. भवस्योद्भूभाले हिमकरकलाग्रे गिरिसुता,
ललाटस्याश्लेषे हरिणमदपुण्ड्रप्रकृतिभिः(प्रतिकृतिः) । कपर्दस्तत्प्रान्ते यदमरसरित्तत्र तदहो धनुःकोटौ० ॥
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१२
अनुसन्धान-७४
४३. आलोक्य बालामुखचन्द्रबिम्बं कण्ठे च मुक्तामणितारहारम् ।
पुनर्निशेशोदयभीतिरेषा सूर्योदये रोदिति चक्रवाकी ॥ ४४. मेघान्धकारप्रसरेण रुद्ध मार्तण्डबिम्बे तिमिरप्रसारे ।
जाते समन्ताद्रजनीति मत्वा सूर्योदये रोदिति चक्रवाकी । ४५. आलोक्य लोचनयुगेन सुलोचनाभ्यां (?)
स्फाराभिरामवदनामहमात्मचित्ते । श्यामालकैविलुलितैरिति चिन्तयामि
चन्द्रं महीतलगतं भ्रमराः पिबन्ति ।। ४६. नैवागमोऽत्र सुलभस्य(भोऽस्य) च मारुतस्य
स्नेहक्षयो न भवति प्रथमेऽपि यामे । अव्यक्तनूपुररवप्रतिबोधितेन
पारापतेन पतता कृतमन्धकारम् ॥ ४७. गच्छन् सरसस्तीरे कमलवने केतकीप्रिया वक्ति ।
पश्य सर: प्रतिबिम्बिततरुशिखरे तिमिरयं तरति ॥ ४८. मुशलप्रबलजलैरिह सलिलधरे वर्षति द्रुतं प्रभृते ।
भूमितले सकले किल तरुशिखरे तिमिरयं तरति ॥ ४९. बाला सखीमिति शशाङ्कमुखो बभाषे ।
हेतुं विना भ्रमर एष कथं वलक्षः । स्मित्वाह सा वदनचन्द्रिकया तवैव
लीलाम्बुजस्थितमिमं धवलं न वेत्सि ॥ ५०. हीनहत्या दधात्येव महतामपि लाघवम् ।
इति मत्वा द्विषद्वेषी मृगात् सिंहः पलायते ॥ ५१. कस्तूरी जायते कस्मात् को हन्ति करिणां कुलम् ।
किं कुर्यात् कातरो युद्धे मृगात् सिंहः पलायते । ५२. जगत्त्रयीव्यापि निशान्धकार-मर्केण कालं कवलीकृतं द्राक् ।
प्रातर्निरीक्ष्याभिदधे जनौघो हस्ती प्रविष्टो मशकस्य मध्ये ॥ ५३. सर्वत्रापि प्रतापप्रबलहुतवहस्फीततापानि भूतः,
शीतलॊर्वप(?) तालीतटवननिलयो नष्टचैतन्यभावः ।
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वैरिप्रातस्तवश्रीगजनरपतेः शर्करामत्ति यद्वद् -
ग्रीष्मेऽग्नि ताम्रभूमौ धृतखग इनगो (?) तापितायां - भुंक्ते ॥ ५४. मुञ्ज श्रीरामराजन् जलधिनियमनोपक्रमं दीर्घदर्शिन्
नानाशक्त्याकरोऽसौ त्रिभुवनभयदो राक्षसानामधीशः । यद्दासस्यापि विद्या विभवभवतनुः खादिरं धानिकावद्
ग्रीष्मे० ॥ ५५. भूतलास्थितत्तरीनिवहोर्ध्वं तां सहस्रमुखिकां गगनाग्रे ।
वीक्ष्य खेचरवचोऽजनि गंगा वाहनोपरि तरन्ति समुद्राः ॥ ५६. नोसदृक्षनयनत्रितयोर्ध्वं शंभुमूर्ध्नि बहुधा प्रवहन्ती ।
वीक्ष्य के न जगदुः सुरसिन्धु-वाहनोपरि तरन्ति समुद्राः ॥ ५७. निपुणलोकगणो निगदेदिमां सकलसिन्धुषु मुख्यतया कथम् ।
स्थिति मजी जनदंडिसुतापतेः शिरसि विष्णुपदी न नदी यदि ॥ ५८. सुखमखण्डितमेव मनोमते, कथमुमा न लभेत निरन्तरम् ।
ननु भवे न भवेद्विनिवेशिता, शिरसि० ॥ ५९. अशुचिचर्मसमावृतवर्मणा, नरकपाल विभूषणधारिणः ।
शशभृतः शुचिता कथ मन्यथा, शिरसि० ॥ ६०. ननु तृतीयविलोचनवह्निजं, विततदाहमहो किमु सा सहिः
गिरिसुतापतिरेष भवेत्सदा शिरसि० ॥ ६१. स्फूर्जदाहुमहाग्रहेण सहसा किञ्चिन्निगीर्णत्वतः
शोणांशे परिदृश्य कज्जलनिभां के शुभ्रशेषांशके । शान्ताशो विलसत्यसौ विधिवशात्तेन प्रपूर्णोऽपि सो
ऽकालाकज्जलशोणिमा धवलयत्यर्द्ध नभोमण्डलम् ॥ ६२. गङ्गायाः समवेक्षणे शिवशिरःस्थाया उमाया रुषा
रक्तीभूतसकज्जलेक्षणयुगे वक्त्रामृतांशावभूत् । तस्मादर्धविसारिरश्मिततिना तेनेक्षणे तत्र सा,
काला० ॥ ६३. शम्भोः शक्तिमनुत्तराणि मुमुखा(?) माकर्ण्य सर्वे सुरा,
जाता: कौतुकदर्शनोत्कमनसा स्वेषां महाप्रार्थनात् ।
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१४
अनुसन्धान-७४
इत्थं रूपविधानतः सपदि तां संव्यञ्जयामासिवान्, भृङ्गो भूमिधरं दधार मशकस्तया ( ?स्या ) बलं चागिलत् ॥ ६४. देवानां नितरामचिन्त्यमहिमा प्रोज्जृम्भते विष्टपे,
यस्मादाभरणत्वतः खलु महादेवस्य संसेवनात् । विष्णोर्या तनया विलासवसतित्वेनामराणां पुननागेश: खगराजमत्ति स महामेरुं स चापीश्वरम् ॥ ६५. लङ्केशे विकटे बलोत्कटभटैः सण्टङ्किते कोटिशो
रामेणेह सहायवारवियुतेनापि क्षयं प्रापिते । तज्ज्ञैः कैरिति तर्कितं स्वहृदि नासम्भाव्यमप्यते (?) किं, नागेश: ० ॥
६६. आस्तां प्रवृद्धा धिषणा विशुद्धा विनेयवारस्य गुणान्वितस्य । प्रबोधरूपं सुगुरुप्रयोगात् सूते सुतं गर्भगता कुमारी ॥ ६७. प्रकोपरूपोऽखिलदुर्जनाना-मस्तोकलोकमिति दाहदायी ( ? ) । रसाचितानुत्तरसामवाक्य पयोधिना वह्निरुपैति वृद्धि ॥ ६८. देव त्वद्वैरियात्रासमयसमुचिते मंगलालीविलासे नृत्यन्त्यादत्तमौलिभ्रमिकरणजुषस्ताण्डवाडम्बरेण । आयासोल्लालवक्षोरुहघुसृणरजःपातदोषोद्भवेन
भालस्थं भिन्नमस्या मृगमदतिलकं चारिणा चाक्षुक्षे(षे ) || ६९. निरन्तरं वर्षति भूमिमेघे प्रवाति वाते शिशिरे बहिस्तात् । पङ्काकुले भूमितले समन्तात् सीदन्ति गावस्तृणतोयमध्ये | ७०. भास्वद्भामण्डलेन त्रिजगदधिपतेर्द्वादशार्कैकजैत्रा
७१.
निर्जिग्येऽसौ ततस्तद्व्यतिकरजनितात्यन्तभीतिप्रभावात् । दृष्ट्वा खद्योतपोतं लघुमपि नितरां चण्डभानुर्बिभेति यद्वत्सर्पेण दष्टो दवरकमपि संवीक्ष्य बाढं बिभेति ॥ दर्पाध्मातेन केन प्रवरतरकलाकौशलालोकनार्थं स्वस्यालेखि प्रकामं चणककणदले शिल्पिना हस्तियूथम् । तद् गर्वोच्छित्तिहेतोरतिनिपुणमतिस्फीतिनाऽन्येन सृष्टो देवाद्रिः संप्रविष्टः सह कुलगिरिभिर्मक्षिकानेत्रकोणे ॥
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७२. मिथ्यादृष्टेर्जनस्य प्रविशति हृदये जातु न क्षुद्ररूपे
साधू श्री वीतरागो गुरुतरमुनिभिर्मोक्षमार्गकतानैः । दृष्टः केनापि कस्मिन्नपि किमु समये क्वापि खण्डे पृथिव्यां
देवाद्रिः ॥ ७३. सेव्या सत्सरणिः प्रवीणितगुणा त्याज्योऽनिशं दुर्जनः,
क्रान्तः प्रौढमदेन गाढविपुलं कार्यं स्वकीयं मनः । पाल्यं ब्रह्म सुनिर्मलं बुधवचः श्रव्यं विवेकार्थिना
गङ्गावद् गजगण्डवद् गगनवद् गाङ्गेयवद् गेयवत् ॥ ७४. कोपादुदस्यत रसागगनाग्रगत्वा(?)
वृत्त्यन्तसूक्ष्ममवलोकितमन्मुखेन । भीमेन सम्भ्रमविसंस्थलकेशसंस्थ
लिक्षामुखे करिशतं हरिणाधिरूढम् ॥ ७५. कैषा भूषाक्षिरोम्णां तव भुजगपते रेषयामास भूत्या
धूतैर्मन्मूनि शम्भुः सदशनवसतानक्षपाताद्विजित्य । गौरात्वानंजदृष्टीजितनखनवभूस्तद्विशेषात्तदित्थं
शीर्षाणां सैव वन्ध्या मम नवतिरभूल्लोचनानामशीतिः ॥ ७६. कश्चिद्वायससुस्वरश्रवणतो जातप्रियासंगम
प्रत्याशोऽभिमतार्थसाधनपटुं कूर्मावतारं हरिम् । सर्वानिष्टहरं हरं च बहुधाराध्याप्यसिद्धे स्मितः
काकं कूर्ममुमापति समशपत् कान्तावियोगातुरः ॥ ७७. कल्याणैकनिकेतनं सकृद--गेन संवीक्षितः
सा श्रीमल्लिजिनेश्वरस्य तनया तस्यैव जायाजनि । संजाता: सकला अपि प्रतिकलं सम्पत्तयो हस्तगाः
प्रक्षीणा विपदस्तदस्य निखिला दुःखप्रकर्षप्रदाः ॥ ७८. यामुनेऽम्बुनि तमस्ततिकल्पे, स्याद्यदोपरिगतः प्रतिबिम्बम् ।
चिन्त्यते स्म जगतीह तदा किं, कज्जलैः कलुषितो रविरेषः ॥
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अनुसन्धान-७४
७९. भूमिनाथ तव वैरिजनानां, शिल्पकीर्तिभिरशेषविशेषैः । ___तैः समं शुभति कृष्णितविश्वे, कज्जलैः० ॥
८०. शम्भोरंभो(?)रयसुरसरित् क्लिन्नकृप्त(?)क्रमोत्थे
घर्षे(?)शीर्षे चिकुरनिकरे वासुके वासकर्तुः । कश्चित्प्रोञ्चच्छुचिरुचिरधीर्मानवो मानबोधा
दाकाशस्थं जलचरपदं दृष्टिहीनो ददर्श ॥ ८१. सर्पाः सर्पात् प्रभ(?)नभसि य: पाद आद्यः समासीत्
ऊर्ध्वं मूर्धस्थितमिममिलाराध्यराधार्कतर्कात् । प्रातश्चित्ते क इव गणिता ज्यौतिषोन्मेषदृष्टे
राकाशस्थं० ॥ ८२. पक्षद्वन्द्वाद्वियति चरतः कुक्कुटाख्योरगस्य
प्रोद्यत्पादं व्यपगततनुर्मोक्षसंस्थो यदात्मा । ईक्षांचक्षे(क्रे) स्थिरतरचिदा जातमेतत्तदानी
माकाशस्थं० ॥ ८३. विश्वं विश्वं धरति जठरे यत्तदन्तर्विषं च
विष्णुस्तेनाजनि विषधरस्तस्य तारामयं ह्यौ(द्यौः) । दुष्टान्धेन स्फुरदुरुचिदापूर्णमेतत्तदानीमाकाशस्थं० ॥
८४. प्रौढैर्देवैनिभृतममृते पीयमाने निगूढ
ाजभ्राजद्ववरतरवपुर्बिभ्रदभ्रालिशुभ्रम् । चक्रच्छिन्नः सदसि विलुठन् विह्वलः पार्श्वसंस्थो
राहुः पद्भ्यां स्पृशति गगने चन्द्रसूर्यौ निशीथे । ८५. कालं जालंधरबलवशाद्दिव्यदेहं दधानः ।
सर्पन् दर्पादि(द्दि)वि दिवि सदा संसदं शाङ्गपाणेः ।
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व्यक्तं नक्तंचरविभुरभीरक्षिणी रोषपुष्टो
राहुः ० ॥
८६. श्रीपार्श्वनाथस्थ महाप्रभावाद्वावक्ति मूको बधिरः शृणोति । वन्ध्या प्रसूते तनयं दिवापि तारागणं पश्यति नेत्रहीनः ॥
८७. सौख्यं वैषयिकं मुखेऽतिमधुरं प्रान्ते ततो नीरसं लक्ष्मीः स्थैर्यविवर्जिता जगदिदं कोषावृतं कण्टकैः । स्त्रीवर्गः सुजुगुप्सनीयकरणो बन्धुव्रजो बन्धनं, जम्बूवज्जलबिंदुवज्जलजवज्जम्बालवज्जालवत् ॥
८८. या मौनेन विरौति दुर्बलतमा बध्नाति मेरुं गले, श्रान्ता धावति पर्वते सविषमे ग्रीष्मे मरौ लीयते । शीतार्ताऽप्सु निमज्जते हुतवहं घर्मातुरा सेवते, नग्ना नेच्छति चाम्बरं वद सखे सा नाम का नायिका ॥
इति समस्याः श्रीकुलमण्डनसूरिकृताः समाप्ताः ।
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बे पूजाओ
- सं. विजयशीलचन्द्रसूरि
जिनेश्वर प्रभुनी पूजाना ३, ५, ८, १७, २१, १०८ एम अनेक प्रकारो छे. धर्मी गृहस्थो पोतानी शक्ति-भक्तिने अनुरूप पूजा करतां होय छे. ते पूजा - प्रकारोने अनुरूप काव्योनी रचना केटलाक कवि-साधुओ करे छे, जे 'पूजा'ना नामे आपणे त्यां जाणीती छे. दा.त. पंचकल्याणकपूजा, सत्तरभेदीपूजा वगेरे. आवी अनेक पूजाओ आपणे त्यां प्रचलित-प्रसिद्ध छे, अने ते जिनालयोमां गान-वादन साथे भणावाय पण छे.
पूर्वकाळमां जिनालयमा 'अर्हदभिषेक' जेवां अनुष्ठान के विधान थतां, जेने माटेनी विधि-पद्धतिओ तथा पाठो संस्कृत - प्राकृत भाषामा रहेतां. आजे जेम स्त्रात्रपूजा के पूजा भणावाय छे तेम पूर्वे ते अनुष्ठानो थतां अने ते पाठ बोलातां. काळांतरे ते संस्कृत - प्राकृत विधानो प्रासंगिक बन्यां हशे, अथवा लोकोनी अपेक्षा लोकभाषामां आवां विधाननी उद्भवी हशे, तो मध्यकालमां लोकभाषामां रचनाओ आरंभाई, जेनो एक प्रकार 'पूजा' तरीके प्रख्यात थयो.
उपलब्ध जूनी पूजा वाचक सकलचन्द्रकृत सत्तरभेदी पूजा होवानुं मनाय छे. सत्तरमा शतकमां थयेली ए रचना, भारतीय खयाल गायकीना विविध ३५ रागोमां गुंथायेली, ३५ गीतोनी रागमाला छे. ए पूजा आजे पण जैन मन्दिरोमां गवाय छे, विधिवत् अनुष्ठानरूपे भणावाय छे. ते पछी तो अनेक कविओए रचेली अनेक पूजाओ प्राप्त छे. तेमां घणीबधी मुद्रित पण छे, चलणी पण. परन्तु केटलीक रचनाओ हजु पण प्रकाशमां नथी आवी. तेवी बे रचनाओ अहीं प्रस्तुत छे.
१. सत्तरभेदी पूजा. तेनी रचना वि.सं. १६०४ के ते अगाऊ थई छे. तेना कर्ता अज्ञात छे. सं. १६०४मां लखायेली ३ पत्रोनी एक प्रतिमां प्रथम २ पत्रोमा आ पूजा छे, अने पछीना अंशमां 'व्यवहार चउपई - सज्झाय' छे. सज्झाय १७ कडीनी छे, अने तेना छेडे पण कर्तानुं नाम नथी जोवा मळतुं प्रान्त-पुष्पिका परथी एटलं जावा मळे छे के सं. १६०४मां तपा. सोमतिलकसूरिना राज्यमां 'खदिरालयनगर' मां (खेराळुमां) आ प्रत लखाई छे; अने सम्भवतः आ बे पद्य कृतिओ पण त्यारे ज़ रचाई छे. 'फकू' नामे श्राविकाने पठनार्थे आ रचनाओ लखाई छे. आ सिवाय कर्ता विषे कोई उल्लेख नथी.
१७ प्रकारनी जिनपूजा माटे १७ गीतो रचायां छे. गीतोनो राग के ढाळ एक ज रखायो छे. प्रथम एक कडी (दरेकमां) छे ते 'राग सामेरी' मां गावानी छे. पछीनी
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षट्पदी छे ते 'द्रूपद-ध्रुपद'मां गावानो संकेत प्रारम्भमां थयो छे. वा. सकलचन्द्रजीए पोतानी पूजामा प्रथम ढाळ ने पछी गीत एम १७ x २ = ३४ गीतो रच्यां छे तेनुं मूळ आ रचनामां होवानुं जोई शकाय. अहीं रागमाला नथी ते अलग बाबत छे, पद्धति एक ज. देखीती रीते आ रचना सकलचन्द्रजीकृत पूजा करतां पहेलांनी छे. __ आ रचनामां केटलाक शब्दो अने क्रियापदोनो प्रयोग भाषादृष्टिए ध्यानार्ह छे.
२. बीजी रचना 'अष्टप्रकारी पूजा' छे. तेना कर्ता 'ज्ञान-उद्योत' नामे छे, जेनो छेल्ली 'अर्घ' स्वरूप ढाळमां चोथी कडीमा उल्लेख थयो छे. अंचलगच्छना आ. ज्ञानसागरसूरिना उद्योतसागर थया छे, तेमनी आ रचना छे. तेओ सं. १७४० मां विद्यमान होवा- 'जैन गुर्जर कविओ' (भाग ४, ६५) नोंधे छे. प्रस्तुत रचना सं. १७२४मां रचाई होवा- 'संवत गुणगण अचल इंदु' ए पंक्तिथी जणाय छे.
__ पूजानी भाषा मिश्र हिन्दी (मारुगूर्जर?) अने मिश्र संस्कृत छे. प्रत्येक पूजा ४ भागे वहेंचाय छे : दूहो, ढाल, श्लोक, काव्य. पछी मन्त्र आवे छे. 'श्लोक' आम तो संस्कृत पद्य माटे प्रयोजाय, पण अहीं ते गुजराती पद्य माटे प्रयोजायो छे. कर्तानो आन्तरिक ढळाव अध्यात्म तरफ छे अने तत्त्व-प्रतिपादननो छे ते पूजानो अभ्यास करतां जाणी शकाय छे.
आजे जैन मन्दिरोमां प्रचलित धर्मानुष्ठानोमां, ‘हर्ष भरी अप्सरावृंद आवे' ए तथा 'विमलकेवलभासनभास्कर' ए बे पद्यो सर्वत्र बोलातां होय छे, ते बन्ने उद्योतसागर कविना रचेला होवा, आ पूजानी प्रथम जलपूजा वांचतां जाणवा मळे छे. क्यारेक कोईक रचना एटली लोकभोग्य बनी जाय छे के पछी ते, लोकगीतनी माफक, लोकप्रिय बनी जाय अने तेना कर्ता कोण - ए वीसराई जाय. कविना भावजगत्नी आ मोटी सिद्धि ज गणाय.
३ पत्रोनी आ प्रति नेणचन्द्र नामना साधु द्वारा सं. १८७२मां नीमच गामे लखाई छे. एक कल्पना एवी पण थई शके के 'हर्ष भरी अप्सरावृंद आवै', इत्यादिमां मूल रचनाकारे 'आवे' 'भावे' 'टले' 'चरचो' एम ज लख्युं हशे, परन्तु नीमच (म.प्र.)ना लेखके त्यांनी लखावटमां तथा बोलीमा ढाळीने 'आवै', 'भावै', 'टलै' 'चरचौ' एवं लख्युं हशे.
बन्ने पूजाओ अत्रे प्रथम वार प्रकाशित थई रही छे.
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२०
अनुसन्धान-७४
सत्तरभेदपूजाविधिः ॥
राग सामेरी
चंदवदन वीतरागर्नु अवलोकी चंदन कीजइ रे । अंगतणउ नीमाल निवारी, निरतिइं न्हवण करीजइ रे ॥ केवली वचन ए दीपंता दीसइ, सतरे भेदे पूजानी विधि पंचम गणधर भासई रे ॥१॥
द्रूपद ॥
कनक कलस निरमल भरी अनइ क्षीरसमद्रह नीर । न्हवण करंता नाथनई रोमंचीइ शरीर । स्वामी रोमंचीइ शरीर स्वामी रोमंचीइ शरीर जिन वांदुं त्रिभुवनवीर रे ॥१॥ प्रथम पूजा ॥
बावन चंदन अतिभो, प्रभु-पाए परिघल चरचुं रे । कुंकुमसिउं घनसार घसीनइ, अंगि विलेपन अरचुं रे ॥२॥ केव० ॥ अंग विलेपन उकली अनइ रचना ते कीजइ रंगि । प्रभु-चलणे कर फरसतां, ऊलट माइ न अंगि ॥ स्वामी ऊलट माइ न अंगि, जिनपूजा छइ बहु भंगि रे ॥२।। द्वितीय पूजा ॥
(३) पवित्र करि सुपहिरामणी, लई क्षोमयुगल सुकुमालं रे । इंद्र ठवइ जिम ऊजलूं, परमेसर खंधि विशाल रे ॥३।। केव० ॥ इं(च)द्रकिरण जिम ऊजलां, सोहइ ते आसो मासि । तिम झलकंती [आ? ] पीइ, पहिरामणी उल्लासि ॥ स्वामी पहिरामणी उल्लासि, अति ओपइ ते स्वामी पासि रे ॥३॥
तृतीय पूजा॥
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२०१८
(४)
सखर सुगंध चडावीइ, अतिनिरमल सार कपूर रे I सामी अंगि ऊजलुं, निरखंतां आनंदपूर रे ||४|| केव० ॥ गंधतणी पूजा करी, अमरपण ते भोगवई ।
२१
[...] गुरुआ गंध सुजाण ॥
स्वामी गुरुआ गंध सुजाण, पछइ पामइ ते निरमल नाण रे ॥४॥
चउथी पूजा ॥
(4) नंदनवनि विधिसिउं जाई, अम्हे फूल अमूलिक ल्यावुं रे । कमल गलाल नइ केतकी, जिन चलणे चांपा चडावूं रे ॥५॥ केव० ॥ कुसुम चडावुं मोकलां, अनइ परिमलबहुल सुवन्न ।
महीअलमंडण तेह नर, जगि जयवंता धन्न ॥
स्वामी जगि जयवंता धन्न, जेह लागउं जिनसिउं मन रे ||५|| पंचमी पूजा ॥
(६) टोडर नवसर गुंथइ, आणी कुसुमतणी बहु जाति रे ।
कुलीय मिलीय रुलीआमणी, तीणइ पूगी मननी खंति रे || ६ || केव० ॥ टोडर सार सोहामणुं, अनइ कीजइ ते वृत्ताकार ।
मधुकर झंकारव करई, जिन पूजउ जगआधार ॥
स्वामी पूजउ जगदाधार, एह अवसर लाधु सार रे ||६|| छठ्ठी पूजा ॥
(७)
नीलकमल नई रातडां, संध्याराग - समान रे ।
सोवन जाइ सोहामणी, माहि मरूआ केरा पान रे ||७|| केव० ॥
दमणउ मरूउ नीलडा, अनइ जमलूं तेज सुरंग ।
वर्णक - रचना रूअडी, अति ओपइ ते स्वामी अंगि ॥
अति ओपइ ते स्वामी अंग, जिनपूजा लागुं रे ||७|| सातमी पूजा ॥
(८)
सूकडि केसर अभिनवां, घनसार सरीस सुवास रे ।
अरिहंतदेव चडावीइ, तु पूरइ मननी आस रे ॥८॥ केव० ॥
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अनुसन्धान-७४
वासविशेष करी नवु, पूजउ ते प्रभु-पाय । वली वली किहां पामीइ, त्रिभुवनकेरु राय ॥ स्वामी त्रिभुवनकेरु राय, अनइ पामुं ते पुर ठाय ॥८॥ पूजा आठमी ॥
सामी ऊपरि झलहलइ, धज पंचवरण उदार रे । घमघमती घणुं घूघरी, बहु घांटडी नाद अपार रे ॥९॥ केव० ॥ धजआरोपण विधि करी, अनइ शबद वाजंति ।। ऊठ कोडि रोम उल्लसइ, अनइ पुहुचइ ते मननी खंति ।। [स्वामी पुहुचइ ते मननी खंति,] धज सारी सामी चडंति रे ॥९॥
पूजा नउमी ॥
(१०) माणिक हीरा मेलवी, अनइ मोतीना मंडाण रे । सोवनमइ आभरण अपूरव, सोहइ त्रिभुवन भाण रे ॥१०॥ केव० । त्रिभुवन-भानु निहालतां, निरमल थाइ चित्त । सार सरोमणि जे करइ, भूषण खरा जडित्त । स्वामी भूषण खरां जडित्त, मनरंगि चडावु नित्त रे ॥१०॥ पूजा दसमी ॥
मोटी माला वाटली, माहि वर्णक सोभाग रे । मस्तक हुंती मुंकीइ, परमेश्वर नीज पाग रे ॥११॥ केव० ॥ परमेश्वर पाइ लहकंती, अनइ पेखं ते मोटी माल । परमानंदिइ पूजीइ, तीर्थंकर त्रिणि काल ॥ स्वामी तीर्थंकर त्रिणि काल, नित पूजन ते रूप विशाल रे ॥११॥
पूजा एकादशमी ॥
(१२)
पंचवरण कुसुमे भरी, प्रभु आगलि पूज सोहावं रे । परगट पुण्यतणउ गढ दीसइ, सूधी भावना साचउ रे ॥१२॥ केव० ॥
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२०१८
चंपक वेउल केवडी, कमली जूही जाइ । फूलपगर ढीचण समु, अमर करइ प्रभुपाई ॥ स्वामी अमर करइ प्रभुपाइ, तीणइ दीनइ ते बहु सुख थाइ ॥ १२॥
पूजा बारमी ॥
२३
(१३)
तंडुल सालितणां सही, घणां अखंड आषे आणउ रे ।
अट्ट मंगल नित पूरीइ, जिन आगलि युगतिर जाउ रे || १३|| केवली० ॥ रायभोग रुलीआमणां, अथवा सुगंध शालि ।
अखंड सुख ते पामिसइ, जे पूरइ मंगल पालि ॥
स्वामी पूरइ मंगल पालि, इम कर्मतणां मल टालि रे || १३|| पूजा तेरमी || (१४)
अगर अपूरव मेलीइ, माहि कस्तूरी संयोग रे ।
रयण धूपधाणइ करी, ऊखेवइसु अतिघण भोग रे || १४ || केव० ॥ भोगतणी घडि माडीइ, अनइ समोसरणि सुगंध ।
अमर करइ अधिक विनय, आणी अविहड रंग रे ||
स्वामी आणी अविहड रंग, प्रभु दीसइ ते निरमल अंग रे ||१४|| पूजा चउदमी ॥
(१५)
नादतणी पूजा करउं, वर वीणा झालर ताल रे ।
मादल वंश विशेखीइ, घणु वाजइ घंटा लाल रे || १५ || केव० ॥
पडह भेर भुंगल भलां, अनइ वाजइ वर ते नीसाण ।
जाणे दुंदुह देवनी, निरतुं आणि मान ॥
स्वामी निरतुं आणइ मान, जिनपूजा एह प्रमाण रे || १५ || पूजा पनरमी ॥
(१६)
अरथविशेषइं ऊजलउ, गुणगुरुआनु अवदात रे ।
निरमल कंठइ गाईइ, जे त्रिभुवन माहि विख्यात रे || १६ || केव० ॥
गीत छंद पद बंध बहु, धूआ माठा चंग |
जगन्नाथगुण गायंता, आविउ अविहड रंग ॥
स्वामी आविउ अविहड रंग, जीणइ छूटइ भवनु संग || १६ || पूजा सोलमी ॥
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२४
अनुसन्धान-७४
(१७) वस्त्र विशेषइ पहिरीइ, अनइ रूअडां बहु आभरण रे । नाटक सार सोहावीइ, मनि आणी सामी शरण रे ॥१७|| केव० ॥ नाटकसार सोहामणउं, अनइं करता खपीइं कर्म । सतरभेद पूजा इसी, भाषइ स्वामि सुधर्म ॥ स्वामी भाषइ सुधर्म, जीणइ पामिउं सिद्धिशर्म ॥१७|| पूजा सतरमी ॥
(१८) सात आठ पग ओसरइ करइ अट्ठोत्तर सु काव्य रे । डाबु ढींचण ऊचुं राखीइ, मस्तकि हाथ चडावि रे ॥१८॥ केव० ॥ इंद्रतणी परिई ऊचरइं, अनइ नमोत्थुणं मनठाणि रे । भाव खरू जउ आदरइ, तु वरीइंवो केवलनाण ।। स्वामी वरीइ केवलनाणि, एह पूजाविधि जाणि रे ॥१८॥ इति सतरभेदपूजाविधिः समाप्तः ॥ श्रा० फकूपठनार्थं ॥
नीमाल - निर्माल्य गलाल - गुलाब ऊठ - साडा त्रण
केटलाक शब्दो रोमंचीइ - रोमांचित थाय टोडर - हार धूआ - ध्रुवा
उकली - ओकळी (?) घांटडी - घंटडी
दूहाः
अथ अष्टप्रकारी पूजा लिख्यते ॥
कर्ता : उद्योतसागरजी गंगा मागध नीरनिधि, औषध मिश्रित सार । कुसुमैं वासित शुचि जलें, करो जिनस्नात्र उदार ॥१॥ मणि कनकादिक अड बिधि, करि भर कलस सफार । शुभरुचि जे जिनवर-न्हवणे, तसु नहि दुरित प्रचार ॥२॥
ढालः
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जान्युआरी - २०१८
२५
मेरुशिखर जिम सुरवर, जिनवर न्हवण अमांन ।
करता वरता निजगुण-समकित-वृद्धि-निदान ॥३॥ श्लोकः हर्ष भरी अपच्छरावृंद आवै, स्नात्र करि एम आसीस भावै ।
जिहां लगि सुरगिरि जंबुदीवो, अमतणा साधु जीवानुजीवो ॥४॥ काव्यः विमलकेवलभासनभास्करं जगतजन्तुमहोदयकारणं ।
जिनवरं बहुमानजलौघतः शुचिमनाः स्नपयामि विशुद्धये ॥५॥ है ही परमात्मने अनन्तानन्तज्ञानशक्तये जन्मजरामृत्युनिवारणाय श्रीमज्जिनेन्द्राय जलं यजामहे स्वाहा ॥१॥ इति ॥
अथ चंदन ॥ दहाः बावनाचंदन कुंकमा, मृगमद नै घनसार ।
जिनतनु ले तसु टलें, मोह संताप विकार ॥१॥ ढालः सकल संताप निवारण, वा(ठा?)रण सहु भवि चित्त ।
परम अनि(नी)हा अरिहा-तनु चरचौ भवि नित्त ॥२॥ निजरूपे उपयोगी(ग)-धारी जिन गुणगेह ।
भावचंदन सहु भावथी, टालै दूर(रि)त अच्छेह ॥३॥ श्लोकः जिनतनु चरचतां सकल नांकी, कहै कुग्गता उष्णता आज म्हाकी।
सफल अनिमेषता आज म्हाकी, भव्यता अमतणी आज पाकी ॥४॥ काव्यः सकलमोहति(त)मिश्रविनाशनं, परमशीतलभावयुतं जिनम् ।
विनयकुंकम-दर्शनचन्दनैः, सहजतत्त्वविकाशकृता(ते)ऽर्चये ॥५॥ में ही परमात्म० चन्दनं यजामहे स्वाहा ॥२॥
अथ फूल ॥ दूहाः शतपत्री वरमोगरो, चंपक जाय गुलाब ।
केतकी दमणो बोलसिरी, पूजो जिन भरी छाब ॥१॥ ढालः अमल अखंडित विकसित, शुभ सुमनी घन जाति ।
लाखिणो टोडर ठवौ, आंगी रचौ बहु भांति ॥२॥ गुणकुसुमै निज आतम, मंडित करवा भव्य । गुणरागी जडत्यागी, पुष्प चढावो नित्य ॥३॥
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२६
अनुसन्धान-७४
ढालः
श्लोकः जगधणी पूजतां विविध फूलै, सुरवरा ते गिणै क्षण अमूलै ।
खांति धरी मानवा जिनप पूजै, तसु तणां पाप संताप धूजै ॥४|| काव्यः विकचनिर्मलशुद्धमनोरमै-विशदचेतनभावसमुद्भवैः ।
सुपरिणांमप्रसूनघनैर्नवैः, परमतत्त्वमहं यज[या]म्यहम् ॥५॥ है ही परमात्म० पुष्पं यजामहे स्वाहा ॥३॥
अथ धूपः ॥ दूहाः कृष्णागर मृगमद तगर, अंबर तुरुप्क लौबांन ।
मेलि सुगंध घनसार घन, करो जिन-मुख धूपदांन ॥१॥ धूपघटी जिम महमहै, तिम दहै पातिकवृंद । अरति अनादिनी जावै, पावै मन आणंद ।।२।। जे जिन पूजै धूपै भवकूपै फिरी तेह ।
नावै पावै ध्रुव घर, आवै सुख अच्छैह ।।३।। श्लोकः जिनघरै बासतां धूप पूरै, मिच्छत्त दुर्गंधता जाय दूरै ।
धूप जिम सहज ऊध्र्वग स्वभावै, कारका उच्चगतिभाव पावै ॥४॥ काव्यः सकलकर्ममहेन्धनदाहनं, विमलसंवरभावसुधूपनं ।
अशुभपुद्गलसंगविवर्जतां, जिनपतेः पुरतोऽस्तु [सु]हर्षतः ॥५॥ ही परमात्मने० धूपं यजामहे स्वाहा ॥४||
अथ दीपपूजा ॥ दहाः मणिमय रजत ताम्रना, पात्र करी घृतपूर ।
वर्ति सूत्र कोसंभनी, करो प्रदीप सनूर ॥१॥ ढालः मंगलदीप बधावौ गावौ जिनगुण-गीत ।
दीपतणी जिम आलिका, मालिका मंगल नित ॥२॥ दीपतणी शुभज्योति द्यौति जिनमुखचंद ।
निरखी हरखो भविजन जिम लहौ पूर्णानंद ॥३॥ श्लोकः जिनग्रहै दीपमाला प्रकासैं, तेहथी तिमिर अज्ञान नासै ।
निजघटै ज्ञानज्योती प्रकाशै, जेहथी जगतणा भाव भासै ॥४॥
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काव्यः
भविकनिरमलबोधविकासकं, जिनगृहे शुभदीपकदीपनं । सुगुणरागविशुद्धसमन्वितं दधतु भावविकाशकृतेर्जनाः |||| ह्रीँ परमात्मने० दीपं यजामहे स्वाहा ॥५॥
दूहा:
अथ अक्षत |
अक्षत अक्षतपूरसुं, जे जिन आगै सार । स्वस्तिक रचतां विस्तरे, निजगुणभरविस्तार ॥१॥ ढाल: ऊजल अमल अखंडित, मंडित अक्षत चंग | पुंजय करो स्वस्तिक, आस्तिक भावै रंग ॥२॥ निजसत्तामै सनमुख उन्मुख भावै जेह । ज्ञानादिक गुण ठावै, भावै स्वस्तिक एह ||३||
श्लोकः स्वस्तिक पूरतां जिनप आगै, स्वस्ति श्री भद्रकल्याण जागै । जनमजरामरणादिक असुभ भांगै, नियत शिवसर्म रहै तास आंगे ||४|| सकलमंगलकेलिनिकेतनं, परममंगलभावमयं जिनं ।
श्रयति भव्यजना इति दर्शयेत्, दधतु नाथपुरोऽक्षतस्वस्तिकं ॥५॥ ह्रीँ परमात्मने० अक्षतं यजामहे स्वाहा ||६|
अथ नैवद्यपूजा ॥
सरस शुचि पकवांन बहु, शालि दालि घृतपूर । करौ निवेद्य जिन आगलिं, क्षुधा दोष तस दूर ॥१॥ लपनश्री घेवरवर मधुकर मोतीचूर । सिंहकेसरीया सेवीया, दालिया मोदकपूर ॥२॥ साकर द्राख सिंघोडा भक्ति व्यंजन घृत सद्य ।
काव्यः
२०१८
दूहाः
ढाल:
२७
करो निवेद जिन आगलि, जिम मिलै सुख अनवद्य ||३||
श्लोकः ढोकतां भोज्य परभाव त्यागै, भविजना निजगुणै भोज्य मांगै । अमतणी अमतणी सरूप भोज्य, आपज्यौ तातजी जगतपूज्य ! ||४|| काव्यः सकलपुद्गलसंगविवर्जनं, सहजचेतनभावविलासकं । सरसभोजनभव्यनिवेदनात् परमनिर्वृतिभावमहं स्पृहै ॥५॥
ह्रीँ परमात्मने० नैवेद्यं यजामहे स्वाहा ||७||
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अनुसन्धान-७४
अथ फलपूजा ॥ दूहाः पक्व विजोरा जिनकरौ(रै), ठवतां शिवपद देई ।
सरस मधुर सुरफलै(ल)गणै, इह जिन भेट करेय ॥१॥ ढालः श्रीफल कदली सुरंगा, नारंगा आंबा सार ।
अंजीर वंजीर दाडिम, करणा षट बीज स्फार ॥२॥ मधुर सुस्वादिक उत्तम लोक आनंदे तजेह ।
वरण गंधाकर मणी बहुफल ढोके तेह ।।३।। श्लोकः फलभर पूजतां जगतस्वामि, मनुजगति वेल है सफल पांमी ।
सकल मुनि ध्येयगतिभेद रंग, ध्यावतां सफल समाप्तिप्रसंगै ॥४|| काव्यः कटुककर्मविपाकविनाशनं, सरसपक्वफलव्रजढौकनं ।
विहितमोक्षकफलस्य प्रभोः पुरः, कुरुत सिद्धिफलाय महाजनाः ।।५।। है ही परमात्मने० फलं यजामहे स्वाहा ॥८॥
अथ अर्घः ॥ दूहाः इम अडविधी जिन पूजतां, विरचै जे थिर चित्त ।
मानव भव सफलौ करै, वाधै समकित चित्त ॥१॥ अगणित गुणगण आगर, नागरवंदितपाय । श्रुतधारी उपगारी, श्रीज्ञानसागर उवझाय ॥२॥ तास चरणपंकजसेवक, मधुकर परि लयलीन । श्रीजिनपूजा गाई, जिनवाणीरसपीन ॥३॥ संवत गुणगणअचलइंदु, हर्ष भरी गाईयो श्रीजिनेंदु ।
तास फल सुकृतथी सकल प्राणी, लहौ ज्ञानउद्योत शिवनीशानी ।।४।। काव्यः इति जिनवरवृन्दं भक्तितः पूजयन्ति
सकलगुणनिधानं देवचन्द्रं स्तुवन्ति । प्रतिदिवसमनन्तः तत्त्वमुद्भावयन्ति
परमसहजरूपं मोक्षलक्ष्यं श्रवन्ति ।।५।। न ही परमात्मने अनन्तानन्तशक्तये जन्मजरामृत्युनिवारणाय श्रीमज्जिनेन्द्राय अर्घ पामते (?) स्वाहा ।।९।।
ढालः
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जान्युआरी २०१८
इति श्री अष्टद्रव्यपूजा समाप्तम् ॥
संवत् १८७३ का वर्षे मिति कार्त्तिक सुदि १० शनिवासरे लिपीकृतं नेणचन्द्रेण मी (नी) मचग्राममध्ये वाचनार्थ ऋषजी श्रीअमरचंदजी जावदमध्यै ॥
दू
बाचणहार सदासुखी, लिखणहार सुखकार । करज्यो या पोथी सदा, दिन दिन चढते वांन ॥ श्री ॥
*
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२९
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बे अप्रगट रचनाओ
- सं. मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय [आ बन्ने रचनाओनी हस्तप्रतिओनी फोटोझेरोक्स नकल तीथल शान्तिनिकेतन श्रीबन्धुत्रिपुटी मुनिवर्यश्री कीर्तिचन्द्रजी महाराज तरफथी प्राप्त थई छे. प्रतिओ तेमना संग्रहमां सचवायेली छे.]
(१) वाचक श्रीसकलचन्द्र विरचित
गुणस्थानक-कर्महेतु-त्रिभंगीस्तवन तपगच्छपति श्रीविजयदानसूरिशिष्य उपाध्याय श्रीसकलचन्द्रजीनी प्रायः अप्रगट जणायेली एक रचना, १ छूटा पानाना आधारे प्रतिलिपि करीने अत्रे मूकी छे. 'षडशीति' नामना कर्मसाहित्य-अन्तर्गत प्रकरणमां जीवने कर्मनो बन्ध थवानां ४ मूळ अने ५७ उत्तर हेतुओ तथा १४ गुणस्थानकोमाथी ते ते गुणस्थानके केटला हेतुओनो सद्भाव होय तेनुं निरूपण आवे छे. आ निरूपणने आधार बनावीने कविओ ओ ज प्ररूपणाने २६ कडीना आ काव्यमां गूंथी छे. आटली नानकडी कृतिमां पण श्वेताम्बर अने दिगम्बर बन्ने मत अनुसार कर्महेतुओनी प्ररूपणा करवामां आवी छे ते आनी विशेषता छे. कर्मसाहित्यना अभ्यासीओने रस पडे तेवी आ कृति छे.
वि(वं?)दिअ सुरवंदिय जितराजी, हेतु त्रिभंगि गइ जसु भाजी,
वछुटि न आई लाजी । जे जिम जेणइ गुणठाणइ चाजी, जाणइ ते जसु हुइ मति साजी,
गुरुप्रसादि कहूं गाजी ॥१॥
॥ भाषा ॥ कर्म-बंधन-हेतु विना को, कर्म-बंध करइ नवि लोको । मूल हेतु तस च्यारि वखाणुं, अपर भेद सतावन जाणउं ॥२॥ पंच मिथ्यात छ जीव-विराधन, इंदिअ पण मण खड नवि साधन,
हेतु सतर ए जाणे ।
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जान्युआरी - २०१८
३१
नोकसाय नव सोल कसाया, पंचवीस बीयाल मिलाया,
जोग पनर गुणि आणे ॥३॥ साचउं [१] जूठउं [२] जूठउं साचउं [३],
नही साचउं जूठउं मन चउथउं [४],
वचन च्यारि इम आठो । ऊदारिक ऊदारिक-मीसं, तिम वेकुच्चि अहारक मीसं,
कम्मण ए सत पाठो ||४|| यतः उक्तं च - अभिगहिअ-मणभिगहिआ-भिनिवेसिअ-संसइअ-मणाभोगं । पण मिच्छ बार अविरई, मणकरणानिअम छजीअवहो ॥५॥ नव सोल कसाया पनर, जोग इअ उत्तरा उ सगवन्ना । इग चउ पण ति गुणेसुं, चउ-ति-दु-इगपच्चओ बंधो ॥६॥
॥ ढाल ॥ आहारक-दुग विणु पुण जाणइ, हेतु पंचावन धुरि गुणठाणइ,
मिथ्या पंचह छेदो । आहारक-दुग पण मिथ्या विणु, हेतु पंचास हुइ दूजइ गुणु,
अण-कसाय-चउ भेदो ||७|| मिथ्या पण अण च्यारि कसाया, मीस जोग तह तीनग गाया,
हारक कम्मण जाणे । चउदह विण त्रीजइ गुणठाणि, बंध-हेतु त्रितालह जाणइ,
छेद नही मनि आणे ॥८॥ च्यार कषाय अणंताबंधी, पंचह मिच्छ-मती नवि संधी,
हारक-दुग इग्यारो । एह विना अविरति छइताली, सात विच्छेद लीउ संनाली,
बितीय कसाय च्यारो ॥९॥
॥ भाषा ॥ अविरती त्रसनी रहइ सीस, कम्मणं च ऊदारिक-मीस । सात छेद इम चउ गुणठाणइ, मिश्र काल करिइ नहीं जाणइ ॥१०॥
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अनुसन्धान-७४
मिथ्या पण त्रस आठ कसाया, मीस ऊदारिक कम्मणया,
हारक ए अट्ठारो । वीस दिगंबर तुअ(?) दुग विक्किअ, पंचम गुणि सइंतीस हेतु कीय,
एगुणच्यालशि कारो ॥११॥
॥ भाषा ॥ पनर च्छेद करइ गुण पंचमिइं, अविरतीय इग्यार तिहां वमइ । तित्तीअ च्यार कषाय तिहां छुणइ, पनर हेतु इणीपरि ए हणइ ॥१२।। नोकषाय नव चउ संजलना, आठ जोग चउ चउ मन-वचना,
हारक वेक्किय दो दो । ऊदारिक एक हेतु छवीसो, देगंबर-मति ते चउवीसो,
छठुइ हार-दु छेदो ॥१३॥
॥ भाषा ॥ एगतीस तित्तीस दिगंबरइ, हेतु दोइ विना इहां पंत रहइ । बार अव्रति बार कसाया, मिच्छ पंच तणु-जोग दु लाया ।।१४।। आठ योग तिम तेर कसाया, हार ऊदारिक विक्किय गाया,
ए सत्तमि चउवीसो । बंध-हेतु तेत्रीस विना इम, उगणत्रीस कह्या पाच्छिइ यम,
___जोग च्यारि मुणि सीसो ॥१५।।
॥ भाषा ॥ हार-मिश्र ऊदारिक-मीसं, कम्मणं च विऊब्विअ-मीसं । बंध-हेतु चउवीस सितंबरा, छेद नत्थि दुवीस दिगंबरा ॥१६॥ हेतु दुवीस अपूरव गुणि मुणि, बंध-हेतु पिइं तीस विना मुणि,
हारक विक्किय दोइ । एते तीसह उपरि वाधइ, अट्ठमि हास-छ-छेद ज लाधइ,
हेतु संभाली जोइ ॥१७॥ चउ कसाय संजलण ति वेदो, आठ योग उदारिक खेदो,
नवम गुणिइ ए सोलो ।
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२०१८
बंधन - हेतु नही एकतालीस, हास-षडग पणतीस हां चालिस, नवमत्थ(छ?) भागह गोलो ॥ १८ ॥
|| भाषा ॥
पढम-भागि एक कोह विलोडीइ, मान माया तिय वेद विछोडी । पंच भाग इम एक विहीणा, नव गुणे इम एह छ खीणा ॥ १९॥ दसमिइ गुणि दस हेतु गुणीजइ, आठ योग एक लोभ भणीजइ, उदारिक एक योगो । बंधन - हेतु नहीं सइतालीस, कोहादिक षट तिम एकतालीस, दसमि लोभ - वियोगो ॥२०॥
॥ भाषा ॥
आठ योग पुण एक ऊदारिक,
नव हुइ गुणठाण इगारक ।
कर्म - हेतु नही अडयालया,
नैगुणो नही छेद संभाला ॥२१॥
तेही ज नव बारम गुणठाणिइ, ते अडयाल मुणी तिम जाणइ, हेतु चतु छेदो । सत्यासत्य अस[त्य] वचो मन, ए चतु छेदी हूआ ते मुनिजन, बारम गुण भेदो ॥२२॥ तेरम गुणठाणि सत हेतो, साचूं वचन हुइ तिम चेतो, असच्च-मोस ए च्यारो ।
ऊदारिक ऊदारिक-मीसो, कम्मणस्यूं सत हुई सीसो, एह सयोगि-विचारो ||२३||
उक्तं च
पणपन्न५५ पन्ना ५० तिअ ४३
छहिअ ४६
चत्त गुणचत्त ३९ छ २६ चउ २४ दुगवीसा २२ ।
३३
सोलस १६ दस १० नव ९ नव ९ सत्त ७ हेऊणो न उ अजोगंमि ||२४||
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३४
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धिन धिन जिनशासन धिन ते जिन चउवीस, तिम ते धिन जगमां ज्ञान-निधी(धा)न मुनीस । समरु हु तसु गुण-रासि नमुं निसदीस, गुणठाणुं पाम्या चउदमुं विण रीस ॥२५॥ विणुरी सिव परणी कर्म-हेतु सब छेदी, कह किम नारि किसी गति होसि ते च्छइ सर्व अवेदी । तेसु घरि रीति गति सवि जाणइ विजयदान सुयभेदी, सकलचंद नेतु सब जाणइ जउ हुइ केवलवेदी ॥२६।।
॥ इति गुणस्थानक-कर्महेतु-त्रिभंगीस्तवनं समाप्तम् ।।
भक्तकवि-श्रीऋषभदास-कृत
जिनपूजाफल-स्तवन भक्तकवि श्रीऋषभदास. मध्यकालीन जैन भक्तिकाव्य साहित्य- अक महामूलुं तेमज आदरपात्र नाम. एमणे रचेली अेक नानकडी कृति अप्रगट जणायाथी अत्रे प्रस्तुत करी छे. अरिहंत प्रभुनी पूजानुं माहात्म्य वर्णवq अ आ कृतिनो उद्देश छे. जे माटे कवि 'आ करणी, आटलुं फळ' एवी आंकडाशास्त्रीय गणतरीनो सहारो लीधो छे. साची श्रद्धापूर्वक थतुं नानुं पण सत्कार्य घणुं मोटुं फळ आपे छे ओवा सृष्टिना सनातन नियमना परिप्रेक्ष्यमां आ वातने जोई - समजी शकाय.
स्तवननी १ पानानी प्रत सं. १७०९मां बुरहानपुरमा पण्डित अनन्तविजयना शिष्य रत्नविजय गणि द्वारा लखायेली छे.
पण्डित श्री ५ श्री अनन्तविजयगणिगुरुभ्यो नमः ।।
॥ ढाल चोपइ ॥ सरसती सामिणि समरी माय,
जिनपूजा-फल विवरी गाय । मन चिंतइ जीव देहरइ जाय, ।
चोथतणुं फळ तेहनइ थाय ॥१॥
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देवल जावा ऊभो जस्यई,
छठ तणुं फल भाख्यं तस्यइं । जावा उद्यम पंथि कीध।
अठमतणुं फल तेणइ लीध ॥२॥ जिनमंदिर भणी पगला दीध
___दसमतणुं फल पोतइ कीध । मारगि जातां निर्मे चिंत, ।
दुवास-फल भाखइ भगवंत ॥३॥ अर्ध-पंथि जिन-मंदिरि गयो,
पासखमण-फल तेहनइं भयो । जिन-मंदिर देखइ जेतलइ,
मासखमण-फल नर तेतलइ ॥४॥ एकसो वरस करइ उपवास,
प्रदक्षिणा देतां फल तास । सहस वरस उपवास वखाणि,
____फल होस्यइ जिन दीठइ जाणी ॥५॥ भावि वंदइ अरिहंत देव,
____ अनंत फल नर लहइ ततखेव । पूज्यि पुण्य हुइ सोगणुं,
सहसगुणं विलवि(पि) भणुं ॥६॥ लाखगुणु फल लहिसइ तेह,
__मालारोपण करस्यइ जेह । गीत-गान-वाजित्र अनंत
गुण नर लहइ वचित्र ॥७॥ जिन पूजइ ते पूजा लहइ,
धूपिं तन सबलां महमहइ । दीवो करतां दीपक थाय,
__ अस्युभ (अस्युं) वचन भाखइ जिनराय ॥८॥
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आपे फल दीइ अक्षयपणुं, नवण करंता निर्मल घणुं ।
थूइ करतां पदवी इंद्र,
जेहन पाय नमइ सुर-वृंद ||९||
नाटक - थूइ करतां जोइ,
गणधर - तीर्थंकर पद होइ ।
प्रभाति पूजइ जिनराय,
निशा तणुं तस पातक जाइ ॥१०॥ मध्य-दिवस जे पूजा करइ,
जनमतणुं पातक उपहर । संध्या पूजइ जिन आप,
सात जनमनां टालइ पाप ॥११॥ जे जिन पूजइ त्रिणि काल,
त्रीजइ भवि सिव- गति वृद्ध - बाल | उत्कृष्टा भव सात नई आठ,
ते नर लहइ मुगतिनी वाट ॥१२॥ एकवीस सतर अष्ट प्रकार,
पंचम त्रिणि भेद पणि सार ।
एणी परि जे जिन-पूजा करइ,
ऋषभदास कहइ ते नर तरइ ||१३||
॥ इति स्तवन संपूर्णम् ॥
॥ गणि रत्नविजयेन लखीतं संवत् १७०९ वर्षे श्रावण वदि १५ दिने । लिखितं बर्हाणपुरे ॥
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अनुसन्धान-७४
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कवि दयाकुशल गणि रचित
श्रीविजयसिंहसूरीश्वर - पदमहोत्सव रास
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सं. गणि सुयशचन्द्रविजय
मुनि सुजसचन्द्रविजय
तपगच्छ - ईश्वर सिंहसूरीश्वर, केरा शिष्य वडेरा ...
स्नात्रपूजानी आ पङ्क्ति सांभळिये के तुरन्त ते महापुरुषनी उज्ज्वल प्रतिभा आपणने चोक्कस याद आवे । पूर्वकालना महापुरुषोए पोताना पुण्यथी तथा चारित्रनी शुद्ध परिणतिथी अनेक जीवोना हृदयमां सम्यग् दर्शननां बीजोनुं सफलपणे वावेतर कर्तुं । कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यजी, आ. श्रीसोमसुन्दरसूरिजी आ. श्रीहीरविजयसूरिजी आ. श्रीविजयसेनसूरिजी जेवा केटलाय प्रभावक पुरुषोनां नामो आवा पुण्यपुरुषोनी आगली हरोलमां मूकवा योग्य छे । अहीं आपणे एवा ज एक महापुरुष श्रीविजयसिंहसूरिजीना जीवनचरित्रनो थोडो परिचय प्रस्तुत रासना आधारे करीशुं । कवि दयाकुशलजी
ओ हीरविजयसूरिजीनी परम्परामां मुनि मेहना शिष्य पण्डित कल्याणकुशल गणिना शिष्य छे । कवित्वनी साथे तेमनी विद्वत्ता पण अजोड हती । तेथी ज बादशाह जहांगीरे तेमने पोतानी पासे राख्या हता । ते वातना पुरावारूपे सं. १६७४मां बादशाह जहांगीरे विजयदेवसूरिजीने उद्देशी लखेलुं एक फरमान आपणने जोवा मळे छे । कविए लाभोदयरास, पूर्वदेश- चैत्यपरिपाटी-स्तव, त्रेसठ शलाकापुरुष चरित्र विचारगर्भित स्तवन, विजयसिंहसूरि रास जेवी नानी मोटी अनेक कृतिओ रची छे.
जाणे कवित्व सहज होय तेवी तेमनी रसाळ - प्रवाहित शैली छे । संस्कृतप्राकृतभाषाना तत्सम के तद्भव शब्दोना अति प्रयोगने त्यजीने सरळ शब्दप्रयोगो द्वारा काव्यने मधुर बनाववामां पण तेमनी अनेरी सिद्धि हशे एवं काव्य वांचता अनुभवाय छे । काव्यमां प्रयोजायेल विविध रागो तथा देशीओनी सूचि पण कविना संगीतशास्त्र परत्वेना विस्तृत बोधने स्पष्ट करे छे । बीजी रीते कहीए तो श्रेष्ठ कविनां बधां ज लक्षणो अहीं जोवा मळे छे ।
कृतिपरिचय
प्रस्तुत कृति विजयसिंहसूरिजीना पदप्रदान - महोत्सवने ध्यानमां लईने लखायेली
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रचना छे । जो के कृतिनुं साद्यन्त निरीक्षण करता कविए काव्यरचनाना मूळ विषयने थोडो गौण करीने पण सूरिजीना जीवनचरित्रनी घणी घटनाओ अहीं रजू करी छे एम जाय छे । आम करवा पाछळना कारणमां एवं विचारी शकाय के जो फक्त पदप्रदान प्रसंगनुं वर्णन एकलुं गुंथवामां आवे तो तेमां अन्य प्रसंगोथी उमेराती रसाळता ओछी थई जाय । बीजुं जेमना पदप्रदाननुं वर्णन काव्यमां छे तेमना जीवनचरित्र थी अज्ञात जीवोनो तेमना प्रत्येनो बहुमान भाव जो नहिवत् होय तो कृतिवांचनमां पण आनन्द न आवे । अथवा त्रीजुं आना पूर्वे १५ मी शताब्दीमां कवि समयप्रभ उपाध्याये रचेली जिनभद्रसूरि-पट्टाभिषेक रासनी रचनानुं बंधारण जोई आ कृतिमां पण कविए ए प्रमाणे प्रसंगोनी सांकळ करी होय । जो के ए माटे ए रास जोवो घटे ।
आगळ आपणे जोई गया तेम अहीं घणी खरी ढाळो जुदा जुदा रागमां, जुदी जुदी देशीओमां छे । तो ढाळ पूर्वेना दूहाओमां पण कविए जुदा-जुदा रागो पसंद कर्या छे । तेथी ते अंगे फरी फरी न लखता आपणे फक्त ढालोनो क्रमबद्ध परिचय मेळवीशुं ।
कविए मंगलाचरणना प्रारम्भमां मां सरस्वतीने नमस्कार करी गुरुगुण स्तववा तेमनी कृपानी अभिलाषा व्यक्त करी छे. गुरुभगवन्तनुं जीवनमां स्थान शुं ? तेमनो प्रताप शु ? तेवी सुन्दर वातो कवि बीजा, त्रीजा, चोथा पद्यमां रजू करे छे । पांचमा दूहामा 'शुद्ध परम्परा' नो उल्लेख करी कविए ते शुद्ध परम्पराना आचार्योनी सुधर्मास्वामी थी शरु करी पोताना दादागुरु हीरविजयसूरिजी सुधीनी परम्परा प्रथम ढाळमां आलेखी छे । खास तो ढाळनी २२मी गाथामां कविए प्रयोजेलुं 'गौवध जेणइ निवार्यउ' ए पद विशेष ध्यानार्ह छे ।
विजयसेनसूरिजीनी गुणवर्णनानी साथै सूरिजीना माता-पिता तथा अकबरना नामोल्लेखवाळी विगतो बीजी ढाळमां आलेखाई छे । तो त्रीजी ढाळमां कवि विजयदेवसूरिजीना गुणवैभवथी प्रभावित बादशाह जहांगीर द्वारा अपायेल 'महातपा ' बिरुदनी सिद्धचल - गिरनार तीर्थयात्रानी, सूरिजीना माता - पिताना नामनिर्देश रूप पद्योनी दस्तावेजी सामग्री पूरी पाडे छे । जाणे शुद्ध परम्परा शब्दनी व्याख्या करता होय तेवुं वर्णन कविए ३८ थी ४२ पद्यो द्वारा रजू कर्तुं छे । ज्यारे बाकीनां पद्यो द्वारा तेओ प्रस्तुत काव्यरचनाना प्रयोजनने जगावे छे ।
जीवनचरित्रनी मूळ वातो चोथी ढाळथी शरु थई छे । जेमां सौ प्रथम गुरु भगवंतना जन्मना मरुधर राज्यनुं, त्यांनी प्रजानुं, नाना-मोटां तीर्थस्थानोनुं, जिनप्रासादोनुं तथा श्रावको द्वारा कराती धर्माचरणानुं स्वरूप अनुक्रमे जोवा मळे छे । पूर्वनी ढाळनी जे पांचमी ढाळमां गुरुजन्मस्थान मेडतानुं, त्यांनी प्रजानुं, प्रासादोनुं, व्यापारीओनुं, उपाश्रयनुं, लोकोना दानादि गुणोनुं तथा पासेनां तीर्थो वगेरे बाबतोनुं वर्णन छे । आ
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ज ढाळमां सूरिजीना गोत्रनी, दादा-दादीनां नामोनी अने तेमना आदर्शोनी विगतो पण छे । त्यार पछी छठ्ठी ढाळना दूहामां साह मांडणना पुत्रपरिवारनी अने ढाळमां पुत्रवधू तथा पौत्र परिवारनां नामोनी नोंधो छे । ए सिवाय साह मांडणना अनशन पूर्वकना स्वर्गगमननी, मातानी कुटुंबे करेली सेवानी, तेमज पिताना मृत्युथी वैराग्यवासित थयेला नाथूनी धर्म आराधनानी मुख्य-मुख्य वातो छे ।
३९
हवेनी ७मी ढाळमां कविए कोई जोषीनी छटाथी आलेखेलुं कर्मचंद्रनी देहयष्टिनुं, जन्मसमये रहेला ग्रहमाननुं तेमज तेना फळनुं कथन जोवा मळे छे । आ विषयमा पण कविना ज्ञाननी ऊंडाइ पद्यो वांचतां अनुभवाय छे। तो आठमी ढाळमां जीवननी अनित्यता, धन-यौवननी चंचळता अने चारित्रनी सार्थकताना भावो वर्णववा रचायेला साह नाथूनां पद्यो खरेखर सुन्दर छे । तेमांय १०९, ११२ तेमज ११७ ए पद्यो हृदयने विशेषे स्पर्शे तेवां छे । आ ज ढाळना अन्तमां नाथूनी साथे विजयसेनसूरिजी पासे दीक्षित थनार पत्नी नायकदे अने तेना पुत्रनी दीक्षानी वात एक ऐतिहासिक विगत छे ।
उपरनी वातना सन्दर्भमां ९मी ढाळना दूहाओमां कविए नूतन दीक्षितोनां नामो स्पष्ट कर्यां छे । जेमां साह नाथू ते नेमविजय, केसव ते कीर्तिरत्न, कर्मचंद ते कनकविजय, श्राविका नायकदे ते साध्वी नयश्री । अहीं पांचमुं जे कुंवरविजय नाम छे ते अंगे विचारता एवं लागे के आगल ११९मा पद्यमां जे 'भ्राता' शब्द प्रयोज्यो छे ते तेमना (नाथूना) मोटा भाई सूरताण माटे छे. जेओनुं संयमी अवस्थानुं नाम कुंवरविजय रखायुं छे । वळी आ ज ढाळना आगळना ३ पद्योमां मुनि नेमविजय तथा बे बांधवोनी (अहीं बे बांधव शब्द नाथूना २ दीक्षित पुत्रोने अनुलक्षी वापर्यो छे) संयमप्रीतिनी वात कवि वडे आलेखाई छे तो छेल्ला ३ पद्योमां सं. १६७०मां योगोद्वहन करवा पूर्वक विजयसेनसूरिजी द्वारा अपायेला पंडित पदनी, तेमज सं. १६७६मां पाटणनगरे श्राविका लालीना प्रतिष्ठा महोत्सवमां विजयदेवसूरिजीना हाथे अपायेल वाचक पदनी ऐतिहासिक माहिती अपाई छे.
पदप्रदानना घटना-प्रसंगोना क्रममां ढाळ १० मी सौथी महत्त्वपूर्ण छे । पोतानी पछी पोताना पदनो भार कोने सोंपवो ए माटे सुयोग्य व्यक्तिनी पसंदगी करवा माटे विजयदेवसूरिजी साबलीगामे सं. १६७८ ( जैन परम्पराना इतिहास प्रमाणे सं. १६७६)मां मंत्री पदमसीनी विनंतीथी सूरिमन्त्रनुं ध्यान करवा बेठा । मन्त्र - आराधनाना आ अवसरे सूरिजीए केवा - केवा तप त्याग कर्या तेनुं अने श्रीसंघे पण सूरिजीने कई ते पीठबळ पूरुं पाड्यं तेनी सुन्दर नोंध कविए अहीं आलेखी छे । ध्याननी फळश्रुति रूपे यक्षराज गणिपिटक द्वारा कनकविजयजीने पदयोग्य सूचव्यानी विगत विशेष
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ध्यानार्ह छे । पद सोंपवा आ रीते आराधना कर्यानी विगत प्रायः कोई अन्य स्थळे जाणवा - जोवा मळी नथी । आ परम्परा हीरविजयसूरिनी पाटपरम्परामां ज जोवा मळे छे ।
त्यार पछीनी ११मी तथा १२मी ढाळ इडरनगरना वर्णननी छे । कोई लघुमहाकाव्यनी जेम थोडी साहित्यनी छांट अहीं देखाय छे । राजा कल्याणजीनी ऋषभदेवप्रभुना प्रासादनी, आनन्दविमलसूरि आदि आ ज नगरना ३ प्रभावक श्रमणरत्नोनी, उत्तम श्रावकोनी तेमज नगरनी समृद्धिनी विशेष विगत अहीं गुंथाइ छे । पछीना १६३ थी १८१ पद्योमां श्रीसंघना आग्रहने ध्यानमा लई सूरिजी द्वारा पदप्रदान करवाना शुभ मुहूर्त जोवराववानी, पदमहोत्सव प्रसंगनी उजवणी रूप साह सहिजू द्वारा विविध गामोना संघोने कंकोत्री मोकलवी, मंडप बंधाववा, प्रभावना वहेंचवी, स्वामीवात्सल्य कराववा जेवां आयोजनो गोठवायानी, शेठाणी लाली द्वारा पहेरामणी कराई वगेरे बाबतो जोइ शकाशे ।
शुभ दिवसे समवसरण मंडाया बाद गुरुए ज्यारे पदग्रहण करवा कनकविजयजीने बोलाव्या त्यारे सौ प्रथम तेमणे ते पद अंगेनी पोतानी असमर्थता दर्शावी. वळी पोतानाथी गुणश्रेष्ठ मुनिभगवन्तने पद आपवा कह्युं । छतां य अंते तेओ ज्यारे त्यां हाजर थया त्यारे श्रीसंघने थयेला आनन्दनुं तथा पदप्रदान प्रसंगनुं वर्णन ढाळनां अन्त्य पद्योमां छे। आ प्रसंगे २ मुनिने वाचक पद आप्यानी तेमज ८ मुनिने पण्डित पद आप्यानी विगत पण ऐतिहासिक दृष्टिए महत्त्वपूर्ण छे ।
पंदरमी तथा सोलमी ढाळमां सूरिजीना पुण्यथी थतां शासननां कार्योनी अने तेमना विहारनी विगत नोंधाई छे. जेम के पद प्राप्त कर्या बाद सूरिजी ईडरथी विहार करी सीरोही, त्यांथी झालोर, त्यांथी संघपति धूल्हा तथा धरकणना आग्रहथी शांतलपुर पधार्या । अहीं नवा जिनमन्दिरमां नूतन बिम्बोनी तेमणे प्रतिष्ठा करावी । आ प्रसंगे श्रेष्ठि सवजीए घणुं द्रव्य खरच्युं । त्यांथी विहार करी सूरिजी राधनपुर, शंखेश्वर थई पाटण पधार्या । अहीं श्रेष्ठी सामले सामैयुं घणुं द्रव्य खरची कराव्यं । त्यांथी विहार करी सूरिजी सिद्धपुर, झालोर, सीरोही थई फरी झालोर पधार्या । अहीं श्रेष्ठि जयमल्ले राजा संप्रति-कारित चैत्यनो जीर्णोद्धार करावी सूरिजीना हाथे तेमां नवा बिम्बनी प्रतिष्ठा करावी । पछी चातुर्मास विजयदेवसूरिजी साधे सूरिजीए अहीं ज कर्यु । मन्त्री जयमल्लना राजा गजसिंह साथेना सम्बन्धोनी वात अहीं विशेष ध्यानार्ह छे ।
छेल्ली बे ढाळो सूरिजीना वांदणा महोत्सवने उद्देशीने रचाई छे । संघपति तेजपाल तथा जयमल्लना आग्रहथी आ. श्रीविजयदेवसूरिजीए जालोरमां ज सूरिजीनो वांदणा महोत्सव कर्यो । वली ए प्रसंगे अन्य २ मुनिभगवन्तनो वाचकपदप्रदान प्रसंग
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पण उजवायो । महोत्सवमां श्रीसंघे करेली पहेरामणी, दानादिनी विगत ते वखतनी व्यावहारिक रीतिनुं उदाहरण छे । पदमहोत्सव कर्या पछीनी तुरंतनी रास रच्यानी संवत् कृतिनुं ऐतिहासिक महत्त्व बतावे छे । छेल्ली ढाळमां कविए पोतानी गुरुपरंपरानो उल्लेख करी रास- समापन कर्यु छे ।
कृतिनुं लेखन प्रायः कर्तानी ज परम्परामां थयेला सूरकुशल गणि द्वारा सं. १६८६ मां थयुं छे । लेखन एकंदरे सुन्दर छ । प्रत आपनार अनामी व्यक्तिनो आभार चोक्कस मानीए छीए ।
राग-देशाख वेलाउल ॥
॥ धुरि दूहा ॥ सरस वचनरस वरसती, सरसति भगवति देवि, तुझ प्रसादि गुरुगुण थुगुं, हिअडइ हरख धरेवि मात पिता गुरु देवता, गुरु गति-मतिदातार, गुरु विण भवजलनिधि तणु, कवण उतारइ पार अनंत तित्थंकर जे हुआ, होसि वलीअ अनंत, ते सहू सुगुरू पसाउलइ, गुरुगुणनो नहीं अंत त्रिभुवनमां जे जे कला, गुरु विण ते नवि कोए, जिम जल विण सब बीजनो, उदभव कदीअ न होए सुद्ध परंपर सुद्ध गुरु, पुण्यइ लब्भइ जेह, श्रीतपगछ रयाणयरू, जिहां सहू लहीइ तेह एक(६१)सठिमइ पाटिइं प्रगट, आचारजि विजयसिंघ, महामुनीश्वर तेहना, गुण गावा मुझ रंगि ॥ ढाल-पहिली ॥ राग-आसाउरी ॥ जिनवरस्युं मेरो चित लीनो ए देसी ॥
सुद्ध-परंपर तेह कहीस्यु, करवा समकित सुद्धि रे, अहनिसि नाम जपंतां होवइ, आतम निरमल बुद्धि रे ७ धन्य धन्य श्रीतपगछ रयणायर, सुद्ध परंपर जास रे, वीर जिणंद थकीअ पटोधर, थुणस्युं धरिअ उल्हास रे ८
धन्य धन्य श्रीतपगच्छ० । आंकणी ।
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सुधर्म' जंबू' प्रभव' सिज्जंभव, यशोभद्र, भद्रबाहू रे, थूलभद्र पाटइं आर्यमहागिरि, आर्यसुहस्थित साहू रे,
धन्य धन्य श्रीतपगच्छ० । कोटि वार सूरिमंत्र जापथी, नाम कोटिकगण धन्य रे, सुस्थित सुप्रतिबद्धनइ पाटिई, इंद्रदिन्न" सूरि दिन्न ११ रे १०
धन्य धन्य श्रीतपगच्छ० । सीहगिरिपाटिं वयरस्वामि प्रभु, तिहांथी वैरिशाख प्रसिद्ध रे, वज्रसेर्णेपाटिइं चंद्रसूरीश्वर ५ नाम चंद्रकुल लिद्ध रे
११
धन्य धन्य श्रीतपगच्छ० ।
सामंतभद्र ६ सूरी वृद्धदेवो", उद्योतन" सुप्रसिद्ध रे, मानदेव ९ श्रीमानतुंग गुरु, जेणइ भक्तामर किद्ध रे
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१२
धन्य धन्य श्रीतपगच्छ० । वीरसूरि २९ जयदेव २२ देवनंद, विक्रम २४ - पाटि नरसीह" रे, समुद्दसूरि २६ मानदेव २७ बिबुध" गुरु, जयानंद” रविप्रभ" लीह रे १३ धन्य धन्य श्रीतपगच्छ० । जसदेव" प्रद्युम्न मानदेवसूरि विमलचंद " उद्योतनसूरि" रे, सर्वदेव" श्रीदेवसूरीश्वर ३७, सर्वदेव" गुणभूरि रे
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१४
धन्य धन्य श्रीतपगच्छ० । यशोभद्र नेमिचंद्र गुरुबंधव, मुणिचंदसूरि" अजिअदेव" रे, विजयसिंह पार्टि सोमप्रभस्युं, मणिरत्ननी करु सेव४३ रे १५
धन्य धन्य श्रीतपगच्छ० । जेणई लिद्ध रे, अधिक प्रसिद्ध रे १६
धन्य धन्य श्रीतपगच्छ० । चंग रे,
देवेंद्रसूरि ४५ धर्मघोष ४६ गुरु, सूरि सोमप्रभ" सोमतिलक" श्रीदेवसुंदर ४९ गुरु, सोमसुंदरि राख्यु रंग रे १७
धन्य धन्य श्रीतपगच्छ० ।
श्रीजगच्चंद्रसूरीश्वर" मोटो, तपा बिरुद तप-जप-संयम - विद्याबलथी, दिन दिन
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श्रीमुनिसुंदर " रत्नशेखर र गुरू, लक्ष्मीसागरसूरि + ३ भाण रे, सुमतिसाधुसूरि-'"पाटप्रभावक, हेमविमल " वरनाण रे १८ धन्य धन्य श्रीतपगच्छ० । जे जगनइ हूओ आणंदकारी, जस गुणनो नही पार रे, सुविहित-साधु-शिरोमणि वंदो, श्रीआणंदविमल गणधार रे, १९
१६
४३
धन्य धन्य श्रीतपगच्छ० ।
श्रीविजयदानसूरीश्वर महिमा, त्रिभुवनमांहि प्रसिद्ध रे, श्रीहीरविजयसूरीश्वर" हीरो, सहीअ विधाता किद्ध रे
२०
धन्य धन्य श्रीतपगच्छ० ।
साहि अकबर जेणई प्रतिबोध्यो, चिहुं खंडि राख्यं नाम रे, धन धन साह कुंरानंद नाथी, वली वली करुं प्रणाम रे २१ धन्य धन्य श्रीतपगच्छ० ।
गौअ तणो वध जेणइ निवार्यउं, शत्रुंज मुगतो किद्ध रे, जगाति जीजीउ कर मूकावी, सब जगि हूउ प्रसिद्ध रे २२ धन्य धन्य श्रीतपगच्छ० । एक जीभि कुण सकइ वखाणी, हीर तणा गुण जेह रे, अखंड अमारि पलइ चिहु खंडइ, तो हेमसूरि सही एह रे २३
धन्य धन्य श्रीतपगच्छ० । परतखिदेव सेव सही करता, अतिसय महिमावंत रे, अंग रोमंचइ जस गुण सुणतां, भाग्यवंत भगवंत रे
२४
धन्य धन्य श्रीतपगच्छ० ।
॥ दूहा ॥ राग वसंत ॥
विजयसेनसूरि तास पटि, सूरिसवाई जेह, सुधर्म जंबू साचलो, जस गुणनो नहि छेह
२५
॥ ढाल - बीजी ॥ २ राग - देसाख ॥ चरम जिणेसर केवलनाणी ए देशी ॥ विद्याइं सुरगुरु सम राजइ, पंच सुमति त्रिणि गुपति विराजइ, न्यान दरिसन चारित्र सोहावइ, जस दरिसन चित आणंद पावइ २६
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उपशमरस केरो भंडार, वइरागि ध्यन धनो अणगार, साही-सदसि जीत्यो जेणइ वाद, कुमती तणा उतार्या नाद २७ खुसीअ हूउ अकबर साह बोलइ, गुरुजी अवर नही तुम्ह तोलइ, हीरपाट दीपावणहार, लाहोरि प्रमुख जेणइ कीउ विहार २८ तप-जप-संयम-क्रियानिधान, साहिब साचो युगह-प्रधान, साह कमा-कोडमदेनंद, जास पसाइ अति आणंद
॥ दूहो ॥ राग गोडी ॥ श्री विजयदेवसूरीसरू, तस पटि उदयो भाण,
संप्रति गुरु गौतम समो, उदयवंत जस आण ॥ ढाल-त्रीजी ॥ ३ राग-सिंधूओ मिश्र ॥ नगर द्वारावती जांणीइ ए देशी ॥
गुणवंत गुरु महिमानिलो, जस अद्भुत रूप, तप-संयम-कर्म आगलो, सेवइ बहु भूप ३१ बलिहारी गुरु नांमनी, महा चारित्रपात्र, उपशमरस-रयणायरु, गुणवंता गुरु गात्र, बलिहारी०.... ॥ आंकणी ।। शासनि शोभ चढावतो, नवकलपी विहार, करइ भविक प्रतिबोधवा, वली परउपगार ३२ बलिहारी.... तुझ महिमा महिअलि भलो, तपिइं धनो अणगार, सरसति मुखि वासिं वसी, विद्याइं वयरकुमार ३३ बलिहारी.... संवत सोल चिउतरइ, मांडवगढ मांहि, साह सलीमई प्रसंसीओ, अति घणइ उच्छाहिं ३४ बलिहारी.... 'महातपा'- बिरुद तिहां, जिहांगीर जगीस, साहि कहइ मुखि आपणइं, ध्यन ध्यन सूरीश ३५ बलिहारी.... खांन निवाजसिं मांनीउ, देश सोरठ मांहिं, सेजगिरि गिरनारनी, करइ यात्र उच्छाहिं ३६ बलिहारी.... साह थिरा रूपाईनु, नीको ए नंद, भविजन-कैरव बोधवा, सही साचो चंद ३७ बलिहारी....
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॥ दूहा ॥ राग सामेरी ॥ स्वामी सुधर्माथी प्रथम, निग्रंथ एहवू नाम, सुस्थित-सुप्रतिबद्धथी, कोटिकगण अभिराम चंद्रसूरिजी चंद्रगण, पनरमइ पाटि प्रसिद्ध, सामंतभद्रसूरि सोलमा, नाम वनवासी किद्ध वडगछ नाम पांत्रीसमइ, पाटि उद्योतनसूरि, संवत नव चउराणुंइ, हूउं ते चढतइ नूरि देस मेवाड आहड नगरिं, सूरी श्रीजगचंद्र संवत बार पंच्यासीइं, तपगछ नामाणंद कौटिकगण नई चंद्रकुल, वैरी शाखा जेह, ए त्रिण्णि जिहां पांमीइ, सुद्ध-परंपर तेह पाट-परंपर सुद्ध जस, सूरि श्रीविजयदेव, पुण्यपसाइं पांमीइं, ए सुविहित गुरुसेव सुधर्मस्वामिथी साठिमई, पाटइं सुद्धाचार, तास पटोधर वर्णवउं, गुणमणितणुं भंडार आचारजि विजयसिंघजी, देस कवण ? कुण गाम ?, मात-पिता कुण गोत्र तस ? कहिस्युं सहू अभिरांम ४५ रयण रयणायरि पांगीइं, पणि छिल्लरई न होय,
उतपति उत्तम नरतणी, उत्तम कुलि तूं जोय ४६ ॥ ढाल - चउथी ॥ ४ राग - भूपाल ॥ श्रीजीराउलि पासनाह ए देसी ॥ जंबूद्वीपमां भरत क्षेत्र, मरुमंडल देश, आर्य सदा न्याय नीति रीति, नही पाप प्रवेश, चोर चरड नही चाडीआ, नहीं मच्छर-रोग, दान मांन उपगार बहू, षट रितुना भोग । माहो-मांहिं जिहां संप घणा, घणां आदर मांन, 'शत्रुकार घर घर प्रति, बहूलां अन-पान,
१. सत्रागार
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जेणई देशइं वर गाम नयर, नहीं किहिं ऊजाडि, वाटि घाटि भय नांम नहीं, नवि प्रभवइ धाडि नहीं अदेखा मच्छरी, नही नंद्या ढाल, हित वंछइ एक एकनइ, गुणवंत मयाल, कुमत कदाग्रह नहीं अ कदा, सज्जन सुविचारी, त्रिणि काल जिनपूज करइ, उत्तम आचारी श्रावक श्रावी जेणि देशि, बहु गामोगामि, उदय श्रीजिनधर्मनो, दीसइ सहू ठांमि, भइ गुणइ सिद्धांत सुणइं, जे साचा धर्मी, नवतत्वादिक कर्मग्रंथ, समझइ जे मर्मी बहूलां तीरथ जेणि देशि, आबू राणपुर, गुणवंत गोडीचउ जिहां, शिवपुरी जालहुर, बंभणवाडि जिणंदचंद, पूरइ जे आस, वरकाणो फलवधि मंडोर र जीराउलिपास शिखरबद्ध प्रासाद बहू, बहु मुनिजन ठांम, सदा करइ गुरुदेव सेव, जपई अरिहंत नांम, सात खेत्रे भलइ भावस्यूं, वावइ जे वित्त, तीरथयात्रानइ संघ-भगति, करइ परिघल चित्त प्रवर प्रतिष्टा करइ स्नात्र - महोछवि मंडाण, धवल मंगल गीत नादस्यूं, मानइ जिनआंण, हिंदू आणूं जेणि देशि सदा, नित पलइ अमारि, गुणवंत गछनायकतणा, जिहां नित्य विहार
॥ दूहो ॥ राग - मल्हार ॥
सोहई सहिर सोहांमणां, श्रीमरुमंडलमांहि, गुरुजनमथी मेडतुं वर्णवस्यूं उच्छाहि.
२. आ शब्द 'मंडार' माटे प्रयोजायो होय तेम लागे छे.
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॥ ढाल - पांचमी ॥ ५ राग - मल्हार ॥ चतुर चउमासूं पडिकमी ए देशी ॥ मोहनगारुं मेडतुं दीठइ अतिहि उल्हास रे, परतखि स्वर्ग समोवडिं, जांणू सहीअ कैलास रे ५५ मोहनगारुं... महाचक्रवत्ति जे हूउ, मांधाता माहंत रे, तेणइ ए नयर वसाविउं, जिहां सरलतर संत रे ५६ मोहनगारुं... त्रिपति न पांमइ नयणडां, जोतां नगरनूं नूर रे, वाडीअ वावि सरोवरई, जिहां सजल जलपूर रे ५७ मोहनगारु... प्रवर प्रासाद सोहामणा, चउपद चहुटइ रंग रे, मंदिर मोटां सोहांमणां, चतुर चित्त हरइ चंग रे ५८ मोहनगारूं... धनिइं करी धनद समोवडइ, व्यवहारी गजघट्ट रे, दान पुण्यइ करी आगला, पुण्यवंत गहगट्ट रे ५९ मोहनगारु... रूप रूडां नर नारिनां, उपई अदभूत वेष रे, सुललित वाणी सोहामणी, नहीं राग नइ द्वेष रे ६० मोहनगारूं... केइ बेसइ वर पालखी, हय गय रथ कोडि रे, जोता युगतिस्यूं तेहनी, कुण मांडीइ जोडि रे, नहीं खंपण खोडि रे
___६१ मोहनगारु... दंड कलस धज लहलहइ, सोवन-शिखरनइ शृंगि रे, घंटानाद सोहामणां, सुणतां रतिरंग रे
६२ मोहनगारुं... अबल उपाशिरइ पेखीइं, मुनीजनतणां वृंद रे, अमृत वाणि सुणावतां, टालई पापना फंद रे, दीठइ अतिहिं आणंद रे
६३ मोहनगारुं... उपगारी जन तिहां वसइ, करइ पात्रना पोष रे, दांन दीइ मन मोकलई, नहीं कोयस्यूं रोष रे ६४ मोहनगारूं... पढइ पढावइ शास्त्रना, जे जाणइ मर्म रे, पुरुषारथ त्रिणि साचवइ, अवसरि धर्म कर्म रे ६५ मोहनगारूं... अरिहंत भगति जिहां घणी, करुणापर लोक रे, शत्रूकार सदा दीइं, स्वप्ने नही शोक रे ६६ मोहनगारुं... पासइ तीरथ फलवधी, कोस त्रणि तिहां तेअ(ह) रे, जाई तिहां जिन पूजवा, नर नारि बहू नेह रे ६७ मोहनगारुं...
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श्रीओसवंसी तिहां वसइ, श्रावकधुरि लीह रे, चतुरगोत्र चोरवाडीआं, जपइ जगत्र जस जीह रे मोटो मांडण साह ते, विवहारी - शिरताज रे, धर्मधुरंधर साचलो, करइ पुण्यना काज रे, पूजइ श्रीजिनराज रे
६८ मोहनगारुं...
६९ मोहनगारुं...
७१ मोहनगारुं....
स्वामिअवच्छल नित करइ, दीनं दान सुपात्र रे, साधु साधवी भलइ भावस्यूं, पोषइ गुणवंत गात्र रे. ७० मोहनगारुं... सफल फूलां घरणी सती, गुणवती अ सुरंग रे, परतखि जांणुं अ पदमिनी, धरमी - जन-संग रे महिअलि जस महिमा घणो, जाणइ शास्त्रविचार रे, त्रिकाल नित जिन पूजीइ, कीजइ पर उपगार रे वस्त्र - पात्र - पुस्तक तणां, चतुरविध आहार रे, देतां कर खंचई नहीं, पोषइ सुद्ध अणगार रे, वली शत्रूअकार रे
७२ मोहनगारुं....
अनुसन्धान-७४
७३ मोहनगारुं...
॥ दूहो ॥ राग - परजीओ ॥ सफल करइ निज जनमनई, तीरथ यात्र अनेक, गिरिनारि श्रीशेज प्रमुख, भेटइं वडइ विवेक सुत दोए गुणवंत तस, सुरताण नई नथमल्ल, जाणुं धर्मधुराधणी, दुज्जण - जण - - शिरि सल्ल ७५
७४
॥ ढाल - छठ्ठी ॥ ६ राग - कालहरू ॥ तुंगिआगिरि शिखरि सोहइ - ए देशी ॥
मात दाता तात उल्हासदाता, विख्याता गुणवंत रे, पंडित पासइ पढ्या विद्या, हूआ यौवनवंत रे, मेधावी माहंत रे, सरल सुंदर संत रे करु सुअणा पुण्यकरणी, जेहथी नव निद्ध रे, सुख - संतति सकल संपद, हुई वंछित सिद्धि रे लघुबंधव जेह नाथू, उदय तास अपार रे, नायकदे जसी सती सीता, रूपि रति अनुकार
रे
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करु सुअणा...
करु सुअणा...
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विविध विधि-सुख जेह विलसइ, लहीअ योवन-योग रे, प्राणपिअस्यूं प्रेम पूरइं, पंच विषयना भोग रे ७९ करु सुअणा... वित्त वावइ त्याग भोगई, पांमी सघला संच रे, मेरु पंच जिम हुआ सुंदर, तेहनई सुत पंच रे ८० करु सुअणा... जयो जेठो पुत्र जेसो, केशव बीजु चंद रे, कर्मचंद कपूरचंदो, पंचायण आणंद रे ८१ करु सुअणा... एक एकथी रूपि रूअडा, बीज चंद जिम वृद्ध रे, प्रेमपूरइ तेह वाधइ, वाधइ तिम घरि ऋद्धि रे ८२ करु सुअणा... मांम मांडण तणीअ वाधी, वलीअ तिम परिवार रे, करइ तिम तिम पुण्यकरणी, उदय जस अवतार रे ८३ करु सुअणा... साह मांडण सुद्ध समकित, आराधी जिनधर्म रे, अनशनादिक सुद्ध पामी, स्वर्गमां लहइ शर्म रे ८४ करु सुअणा... पंच पुत्रस्यूं साह नाथु, सवाई हूउ जेह रे, मात फूलां तणीअ सेवा, किम्हइ न चूकइ तेह रे ८५ करु सुअणा... सात षेत्रे वित्त वावइ, धन उपाई आप रे, पडिकमणां जिनराजपूजा, करीअ धोवइ पाप रे ८६ करु सुअणा... चित्त चिंतइं साह नाथू, एह अथिर संसार रे, पार भवनो तेह पामइं जे, लीइ संयमभार रे ८७ करु सुअणा... पजूसण चउमासि त्रिणिइं, आसोई चित्र मास रे, जूउ जेहनां अतुल करणी, अठाई उपवास रे ८८ करु सुअणा.. भात पाणी ठामि बइठां, एकासण चउव्विहार रे, गंठसी पच्चखाण पालइ, लीइ प्रासुक आहार रे ८९ करु सुअणा... द्रव्य-संख्या नित्य कीजीइ, संभरइ चउद नेम' रे, सचित्तनई वली नीलवणिनी, अगड पालइ एम रे ९० करु सुअणा... छठ अठम सूखडीपरि, अहनिशि करइं उपवास रे, छती ऋद्धि चित्त भूषइ, रहिवू गृहस्थावास रे ९१ करु सुअणा...
१. नियम
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करावइ बहु पुण्यकरणी, निज मातनई मनरंगि रे, फुलांना गुण केम भूलई, जेह वसीआ अंगि रे
॥ दूहा ॥ राग - रामगिरि ॥
महिमा जिम पंचमेरुमा, मध्य मेरुनो जेम, पंच पुत्रमां अतिघणो, कर्मचंद महिमा तेम भाग्य सौभाग्यइं आगलो, परतखि मोहणवेलि, देखत हरखइ नयन-कज, सोभागी रंगरेलि
अनुसन्धान-७४
९२ करु सुअणा...
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॥ ढाल - सातमी ॥ ७ राग - रामगिरि ॥ निसुणो मगधदेस मज्झारि ए देशी ॥
कर्मचंद ते महिमानिलो, सुरतरु परि सोहइ अतिभलो,
बीसइ लख्यण जस अंगि, उपइ ऊरध रेखा रंगि
अणी आली नाशा उपती, अधर उपइ परवाली रंग,
अरध चंद्र परि दीपइ भाल, नयन - कमल ते अतिहिं विशाल, हीरा परि दंतह - पंकती कंबू परि ग्रीवा जस चंग,
हृदय - कमल अति पहूलो भलो, केसरी परि जस कटि-लंकलो ९७ गजगति मति अति सोहइ सदा, हरखावइ सहू जन-मन मुदा, संवत सोल चिउंआला मास, जास जनम कहुं अतिहिं उल्हास बीज फागुणनी नई रविवार, नक्षत्र उत्तरभद्रह सार कुंभ संक्रांति अनइ शुभयोग, पूरण करकलगननो भोग माता नायकदे प्रसवइ नंद, सकल लोकनई अति आणंद, उच्चलगनि सुरगुरु दीपतो, दुष्टग्रहनां बल जीपो महिमा जास सकइ कुण कही, राजयोग ए साचउ सही, पंच नवमहं सुरगुरुनी दृष्टि, संतति धर्म तणी करइ पुष्टि राहु कन्यानुं निज घरि कह्यु, एह ज ग्रह उत्तम अति लघु, सहजभवननां सुंदर सहू, राहु कन्यानो फल दिइ बहू धर्मभवनि चंद्र-मंगल योग, सुख-धर्मनो करइ संयोग, कर्कलगननो स्वामी चंद्र, धर्मभवनि तेहथी आणंद कर्मभवनिथी शनि दुख हरइ, रवि आठमानो रख्या करई, धनभवनि बुध शुक्रह द्रष्टि, धन-सुख-संपतिनी करइ पुष्टि
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जोसी जूइ जनमविचार, कुंअर ऊपनो कुलशृंगार, कइ राजा कइ गच्छाधीश, पुण्यवंत पूरइ सकल जगीश दुरगति दुख दारिद्र चूरस्यइ, मनह मनोरथ सहू पूरस्यई, जनमपत्री जोतां अतिरंग, सज्जन पंडितना ठरइ अंग
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॥ दूहा ॥ राग - परदु ॥ वाधइ कंअर कुलतिलो, बीअ तणो जिम चंद, सकल कलाई दीपतो, तिहुअण-नयणाणंद १०७
॥ ढाल - आठमी ॥ ८ राग - अधरस परजीउ ॥ सुग्रीवनयर सोहांमणुजी ए देशी ॥ कुटुंब सहूनई वीनवीइ जी, नाथू साह सुचंग, यौवन धन सहू कारिमूं जी, कहु स्यो तेहस्युं रंग १०८ सुणु सहू ए संसार असार, दुरगति पडतां ऊधरई जी,
धर्म तणो आधार सुणु सहू... आंकणी जिम वीजली जल-बिंदुउ जी, जिम संध्या- राग, तिम सहू देखी कारिमूं जी, आणो मनि वइराग १०९ भवसमुद्रमां बूडतां जी, चारित्र नाव समान, तेणइ बइसी भविजन तरइ जी, आउलां व्रत पचखाण ११० जो आपण नवि मूंकीइ जी, तोहइ थिर न रहाई, एहवू जांणी आदरो जी, साचो धर्म सहाय १११ सुणु सहू... आउखू पूरुं थइ जी, राखइ नहीं खिण एक, तो सही पहिलां चेतीइ जी, उत्तम एह विवेक ११२ सुणु सहू... ए दोलति दिन च्यारनी जी, भूलइ देखि गमार, जलनिधि-जलकल्लोल-जिउं जी, आवत जात न वार ११३ बालपणि रामति गयो जी, गयुं यौवन उनमत्ति, वडपण देह परवश थयुं जी, पुण्य विण तुझ कुण गत्ति ११४ सुणु सहू... यौवन धन सुख संपदा जी, कोए न आवइ संगि, तो तेस्यूं माया किसी जी, सुख दुख सहिवू अंगि ११५ सुणु सहू...
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अनुसन्धान-७४
आगइ जे उत्तम हूआ जी, तेणे न लीधो अंत, विषय कषाय परिग्रह जी, छांडइ ते माहंत जो तुं ए छंडीसि नहीं जी, सही तुझ छंडइ एह, एहवूं जांणी चेतस्यइ जी, सुखीआ थास्यइ तेह आदरस्यूं संयम सही जी, लही सहगुरुनो संच, पंच सुमति त्रिणि गुपतिस्यूं जी, लेस्यूं महाव्रत पंच भ्राता पुत्र नइ भार्या जी, सहूई थयूं एक मन्न, महा महोच्छवस्यूं ते लिई जी, संयम सुद्ध रतन्न संवत सोल बावनई जी, सुदि बीजई माहा मासि, धन्ना सालिभद्रनी परिं जी, श्रीविजयसेनसूरि पासि १२० सुणु सहू...
११८ सुणु सहू...
११९ सुणु सहू...
११६ सुणु सहू...
११७ सुणु सहू...
॥ दूहा ॥ राग - मालवीगुडु ॥
१२१
जेसा जेठा पुत्रनई, सूंपी सह घरभार, नाथू नायकदे सहू, व्रत लेई करइ विहार केसव जे सुत लाडिलो, कीर्त्तिविजय तस नाम, कनकविजय कर्मचंद ते, कुंअरविजय गुणधाम १२२ नायकदे नयश्री सती, रहइं गुरूणीनई साथि, श्रीविजयसेनसूरीश्वरइं, वास ठव्यु निज हाथि १२३
॥ ढाल - नवमी ॥ ९ राग - मालवीगुडु ॥ कुसुम जाति आंगी मनि खंति - ए देशी ॥
सूधूं समकित जे आराधइ, साधइ आतम काज रे,
भई गुण क्रिया सुद्ध पालई, सेवइ चरण गुरुराज रे १२४ ध्यन ध्यन ए सुद्ध संयमधारी, आचारी गुणवंत रे, संयमस्यूं लय पूरी जेहनी, साचा ए माहंत रे
१२५
ध्यन ध्यन ए सुद्ध० ॥ आंकणी ॥ नेमिविजय गणि साह नाथू ते, हूआ वेआवचकारी रे, बंधव भव बेहू समारइं, जे हूआ निज हितकारी रे
१२६
ध्यन ध्यन ए सुद्ध...
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योग वही पंडितपद पामइ, सोल सित्तरिइं जेह रे, श्रीविजयसेनसूरीश्वर हाथि, कनकविजय गुणगेह रे
__थासइ भट्टारक एह १२७ ध्यन २ ए सुद्ध... श्रीविजयदेवसूरीश्वर थापइ, वाचकपद उच्छाहिं रे, त्रिहोतरिइ श्रीपत्तन नगरिइं, श्राविका लालीनी प्रतिष्टाई रे १२८
ध्यन ध्यन ए सुद्ध... विनयवंतं रंजई गुरुनु मन, गौतम परिहिं वजीर रे, अंग उपांग सहू भणइ भणावइ, गुणवंत साहसधीर रे १२९
ध्यन ध्यन ए सुद्ध... ॥ ढाल - दसमी ॥ १० राग - सिंधुओ मिश्र ॥ चेतन चेतन प्राणीआ ए देशी ॥ सहिर सषर सही साबली. जिहां जैननं राज, महा महोत्सवे पधारिआ, तपगच्छ गुरुराज
सहिर...[आंकणी] विमलमंत्रीश्वर सम सही, रत्नसीह सही रत्न, पुण्यवंत पुत्रह पदमसी, जिहां घरि जीवह यत्न १३१ सहिर... श्रीगुरुनई करइ वीनती, निज मननइ उल्हासि, ध्यान करु गुरुजी ईहां, पूरु श्रीसंघ-आस १३२ सहिर... विधि सहू साचवस्यूं अम्हे, पलस्यइ सुद्ध अमारि, जो मांनी गुरे विनती, हरख्या सहू नरनारि १३३ सहिर... सोल अठ्योतरइ सुदि छछि, गुरु बइठा ध्यान, मौनपणइ एकांत तिहां, युगतइं युगह-प्रधान १३४ सहिर... चउथ अठमनइ छठस्यूं, आंबिल ऊजल अन्न, नही प्रमाद निद्रा नहीं, गुण चूसूट्ठि मन्न १३५ सहिर... सूरिमंत्र सूधु जपइ, पदमासनि जेह, कारजि ते लिखवइ करी, जणावइ सहू तेह १३६ संघ चतुरविध तिहां करइ, अठम छठ उपवास, आंबिल तप उच्छाहस्यूं, जेहथी पूगइ आस १३७ सहिर....
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अनुसन्धान-७४
अमारि पलइ महोच्छव बहू, गुरुनइ यख्यराज, तुठो कहइ तुम्हे आपयो, कनकविजयनइं राज १३८ सहिर.... तपगछनो दिन दिन उदय, जेहथी चढतइ नूरि, वंछित सिद्धि सही थई, हरख्या श्रीसूरि । १३९ सहिर.... श्रीसंघनी आस्या फली, जिम मेहथी मोर, तिम गुरु म(मे)हुलि पधारतां, हरखइ संघ चकोर १४० सहिर....
॥ दूहा ॥ राग - श्रीराग ॥ अखात्रीजि आनंद बहू, संघ सहू रंगरोल, दांन मांन दीजई तिहां, बीडां बहू तंबोल १४१ ॥ ढाल - अग्यारमी ॥११ राग - जयतसिरी ॥ फाग धमालनी ॥
श्री जिनवदन निवासिनी ए देशी ॥ रूडो देश ते रायनो, जिहां सदा रंगरोल रे, पृथिवीतल-सुरलोक ए, सहू जन करइ कल्लोल रे १४२
रूडो देश ते रायनो... [आंकणी] सरस सदारस सेलडी, आंबा रायण द्राख रे, दुख दुकाल सुहुणइ नहीं, जन मुखि उत्तम भाख रे १४३ रूडो... जेणइ देशिं बहु जईनना, शिखरबद्ध प्रासाद रे, दंड कलस सोनातणा, करई स्वर्गस्यूं वाद रे १४४ रूडो... जिहां नारी वर पदमिनी, जेणइ देशि वर वेस रे, हींदू-राय कल्याणजी, जिहां नहीं पाप प्रवेश रे १४५ रूडो... वावि सरोवर बहु नदी, वाडी वन आराम रे, सुधन धन नींपजइ बहू, सुखी सहू जिहां गाम रे १४६ रूडो...
॥ दूहा ॥ राग - कानडु ॥ जेणइ देशि ईडर नयर, स्वर्गपुरी सम जेह, डूंगर ऊपरि अति भलो, गढ दृढ दीसइ तेह १४७ जिहां प्रासाद श्रीऋषभनो, बावन शिखरस्यूं रंग, शेजेज तीरथ समोवडई, दीसइ अतिहिं उत्तंग १४८
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जान्युआरी - २०१८
श्रीआणंदविमलसूरी तणो, ईडरि सही अवतार, वली जनम हूउ जांमलई, श्रीविजयदान गणधार १४९ श्रीविजयदेवसूरिसनो, ईडरि जनम जयकार, वर्णवतां गुण देशना, किम्हइ न आवइ पार १५०
१५४
॥ ढाल - बारमी ॥१२ राग - केदारो तथा मधुमाद ॥ तिहां थकी हवई किद्ध पया| ए तथा समोसरणि जिम वाजां वाजइ ए देशी ।। जिहां वसइ बहुला विवहारी, पुण्यवंत सोहइ नर नारी,
राजि काजि अधिकारी १५१ उपई उपासिरइ मुनिवर थोक, सुद्ध समकितवंत श्रावकलोक,
__ नहीं स्वप्नांतरि शोक १५२ नित उच्छव नित नव नव रंग, दान मांन प्रतिष्ठा चंग,
__ वली सज्जन सुखसंग १५३ वारू दीसइ वेस सफार, छाना छयल वसइ दातार,
__ उत्तम जिहां आचार गढ मढ मंदिर पोढी पोलि, ऊपरि कोसीसानी ओलि,
कुंण ईडर सम तोलि १५५ चउटइ चउपट चतुर सुजाण, धर्मधजा दीसइ अहिनाण,
जिनमंदिर अहिठाण १५६ हय गय रथ सोहइ सहू सेरी, वाजित्रनाद निसाण नफेरी,
अलकाथी अधिकेरी १५७ त्रिपति न पामइ निरखत नयण, जिहां वसइ उपगारी सयण,
वस्तु विशेष बहु रायण १५८ तपगच्छपति विजयदेवसूरीश, प्रणमत पूगइ मनह जगीश,
महिअलि महामुनीश १५९ सकल संघ आग्रहइ पधारइं, जिनशासननी माम वधारइ,
गुरु गुणवंत चित्त ठारइ १६०
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अनुसन्धान-७४
आ ईडर अति उत्तम ठाम, नव खंडि जेहनी मोटी माम,
पूज्य जनम ए गाम १६१ संघ वीनती सफल ते कीजइ, पाट-पटोधर इहां थापीजइ,
मनह मनोरथ सीझइ १६२
॥ दूहा ॥ राग - सामेरी ॥ धर्मविजय उवज्झाय वर, चारित्रविजय उवज्झाय, वाचक पंडित मुनिवरूं, वींनवइ सहू गुरुराय १६३ कल्पवृक्ष सम पूजि तुं, तुं आशा विश्राम, एह वीनती संघनी, कीजइ सफल सुठाम १६४ हींदू राजा सहू अनइं, तो सही पाट थपाई, ईडररायतणुं तिलक, जो पहुचइ तिणइ ठाय १६५ ॥ ढाल - तेरमी ॥१३ धन्यासी ॥ कनककमल पगलां ठवइ ए देशी ॥ सुणियई सहि गुरु तिहां वीनती ए, निज मनि धुरइ विचार,
सार सहूनइं रुचइ ए १६६ तपगछि एह परंपरा ए, पासइ श्रीयुवराज,
___ काज कर[इ ते] सुंदरु ए १६७ योगि जोईनइं थापीइ ए, आपीइ निज पद रंगि,
संघ सहू चित ठरइ ए योतिषी पंडित सहू मिली ए, जोयई ते दिन शुद्धि,
बुद्धि मति केवलइ ए संवत सोल एकासीइ ए, वैशाख सुदि सोमवार,
सार तिथि छठि तिहां ए १७० पुष्यनक्षत्र रवियोगस्यूं ए, वृषभलगन जयकार,
सार दिन मुहूरति ए निरणय करी गुरुराजनई ए, वीनवइ करीय विवेक,
एकमन सहू थई ए १७२ दिनसुद्धि देखी हरखीआ ए, गुरु सहू करई प्रमाण,
आण सहूं शिरि धरइ ए १७३
१६८
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५७
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जान्युआरी - २०१८ साह सहिजू एणइ अवसरि ए, करइ वीनती कर जोडि,
कोड अह्म पूरीइ ए १७४ गुरुजी श्रीसंघ तेणइ समइ ए, देखी तस मन चंग,
रंगरसि हा भणइ ए सहूनई लिखिइय कंकोतरी ए, हरख्यो सहिजू साह,
उच्छाहथी संघनइ ए मंडप मोटा मांडीआ ए, दल वादल अभिरांम,
ठाम सोहामणां ए संघ आवइ बहू देशना ए, देशना सुणइ गुरु संगि,
रंगि वित्त वावरइ ए पूजा सुगुरु प्रभावना ए, वाजिवनाद अनेक,
छेकस्यूं शोभता ए साहमीवच्छल बहु करइं ए, पहिरामणी भलइ भावि,
लाछि लाहु लीइ ए महूरतसमय जांणी करी ए, मिलइ संघ सहू थोक,
लोक कुतूहली ए
॥ दूहा ॥ राग - नट्टनारायण ॥ समवसरण रचना करी, जिम तीरथपति चंग, गणधरनी करइ थापना, तिम गछपति मनरंगि १८२ समवसरण मांडी तिहां, सकल संघ समुदाय, कहइ श्रीगुरु तेडो इहां, श्रीकनकविजय उवज्झाय १८३ वाचक बुध बहु मुनिवलं, गुरुवचनथी नाम,
सज्झाय करइ वाचक तिहां, सहू पहुता तेणइ ठामि १८४ ॥ ढाल - चउदमी ॥ १४ राग - धन्यासी ॥ अतिसय सहजना च्यार ए देशी ॥ मानो वीनती एक, वाचकराय विवेक, श्रीगुरु पासिं पधारो, ए अवसर सहू सारो
१८५ वलती कहइ मुनि भाख, जेहवी साकर द्राख, पूज्यनई बहु परिवार, एक एक पाहिं सार
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अनुसन्धान-७४
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मुझथी छइ बहु ज्येष्ट, ज्ञान-क्रिया-गुणश्रेष्ठ, थावं तपगछराय, मइं किम भार झलाय जोतां हुं कुण लेखइ, उत्तम आप ऊवेखइं, वाचक मुनि सहू भाखइ, पुण्यवंत दूरि जो नासइ लच्छि न मूंकइ ए संग, अधिक अधिक तस रंग, वांछई पाट अनंत, पणि पांमई पुण्यवंत तपगच्छनी ठकुराई, उदय तुम्हारइ आई, पाट-परंपर वीर, श्रीगुरु साहसधीर ते तुह्मथी अति दीपई, गुणि करी तुह्म कुंण जीपइ, नाठा किमहइ न छूटो, पुण्य प्रकट हूओ मोटो आग्रह किमहइ न मानइं, निसप्रीही तिहां रहइं छांनइ, बहु हठस्यूं गुरु पासि, लावइ अतिहि उल्हासि कोडिगमे नर नारी, देखी सूरति सारी, गुरुनइं ए पद योगि, एम बोलि सहू लोग मुहूरतसमय जणावइं, वास गुरु शिरि ठावई, निज करि निज पद दीधुं, मनवंछित सहू सीधूं धवल मंगल नाद, सुंदरी गाइं सुसादि, गुणीजननई तिहां तोषइ, बहु दत्त देई संतोषइ
पूजा नव अंगे कीजई, मणुअ जनम फल लीजइ, · तिहां वाचकपद दोइ, आठ पंडितपद होई इस्या महोत्सव देषइ, जनम गणुं तस लेखइं, साह सहिजू संघ हरषई, मेह तणी परई वरषई
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॥ दूहा ॥ राग - सारंग ॥ मनोरथ जे पुण्यवंत करइ, ते सहू चडइ प्रमाण, जोज्यो एणइ दुसमसमई, एहवे सही अहिनाण हरख्या संघ सुगुरु सहू, देव-देवीपरिवार, श्रीविजयसिंघसूरीसरू, नाम सुणी तेणी वार
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जान्युआरी - २०१८
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मंत्रीश्वर मुकुटामणी, सीरोहीइं तेजपाल, आग्रह करी पधराविआ, श्रीगुरु परमदयाल चउमासइं गुरुनई तिहां, लाभ तणो नही पार, संघवी जयमल्ल आग्रहइ, जालहुरि करइ विहार २०१
॥ ढाल - पनरमी ॥ १५ राग - धन्यासी ॥ विजयसेनसूरि सूरिशिरोमणि, रूपिं रतिपति जीतोजी ए ढाल । प्रासाद नूतन नूतन बिंबनी, प्रवर प्रतिष्टा कामिइं जी, शांतलपुरथी संघपति धूल्हो, संघ पठवइ बहु मामिइं जी, संघवी भूपति सुत वली बीजो, संघवी घरकण नामिइं जी, जई जालहरि वंदइ गुरु गछपति, वीनतडी भलई भावई जी, करइ कर जोडि कोड अम्ह पूरु, काज सरइ तुम आवइ जी २०२ श्रीविजयदेवसूरीश्वर हरखइ, श्रीआचारजि रंगिइं जी, श्रीसंघना बहु आग्रह माटइ, पधरावइ संघ संगिइ जी, सांतलपुरि संघ संघवी साहमा, साहमईइवित वावई जी, उछव महोच्छव रंग-रस बहुला, कहतां पार न आवइ जी२०३
श्रीविजय... [आंकणी] सेठ नगरनु शवजी साचो, भणसाली तिहां आवइ जी, श्रीगुरुचरण नमी वित खरचइ, शासनि शोभ चढावइ जी, दान मान प्रतिष्ठा उच्छवि, पइसारो गुरु हाथिं जी, भाग्य भलू जूउ गुरु गच्छपतिनूं, सिद्धि सहू थई साथइं जी २०४ विजय... संघ सहू श्रीराधनपुरनो, गुरुनई लभइ उच्छाहिं जी, अति आग्रह करी पधरावई, उच्छव तिहां बहू थाई जी, आडंबर करई संघ साहमईइ, ते कुण सकइ वखाणी जी, दानि मांनि सहूनइं संतोषइ, हरखइ भविजन-प्राणी जी २०५ विजय... तीरथ तिहांनां भेटइ भावई, पास संखेश्वर वंदइ जी, सकल संघ वीनतीथी पहुचइ, पाटणि अति आणंदि जी, कोणी परि तिहां संघपति सामल, साहमईइ वित वावइ जी, साहिब मान दीइ बहु सुपरइं, आनंद सहू संघ पावइ जी २०६ विजय...
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६०
अनुसन्धान-७४
॥ दूहा ॥ राग - हूंसेनी ॥ जे जे लाभ तिहां हुआ, कही सकइ ते कुंण, कुमत-मिथ्यामत तिम दल्युं, जिम आटा मांहि लूंण २०७ सिद्धपुरि श्रीगुरु पुहचतइ, लाभ संघ बहु लिद्ध,
अनुक्रमि जई जावालपुरि, श्रीगुरु दरिसण किद्ध २०८ हरख हूउ गुरु हिअडलइ, देखि कमाई सीस, उदयवंत ए सही हुस्यइं, श्रीतपगच्छनो ईश
२०९ आलोई वृत्तांत सहू, खांमणडा करी सार, प्रसन्नपणइ पूछइ सुगुरु, हूउ ते सुख विहार २१०
॥ ढाल - सोलमी ॥ १६ राग - धवल धन्यासी ॥ फूल कमलनुं वेधीउ तो ए, तथा लेखनी छेहली एहवा रे गुण तुम्ह तणा ए देशी ॥ मरुधर देश पधारिआ तो, श्रीगुरु परमदयाल रे, आनंद-उच्छव बहु करइ तो, सीरोहइं साह तेजपाल रे २११ पुण्यइं वंछित सहू फलइ तो, पुण्यई आदर माम रे, पुण्यपसाइं पामीइं तो, वंछितसुख अभिराम रे २१२
पुण्य... [आंकणी] जालहुर जोधपुरनो धणी तो, मंत्रीमुकुट प्रधान रे, सुश्रावक संघवी श्रीजयमल, जेहनइं गजसिंघनां मांन रे २१३ पुण्यई... श्रीगुरुनई आग्रहइं करी तो, प्रवर प्रतिष्ठा काजि रे, पधरावइ जालहुरपुरइं तो, महा महोत्सवई गुरुराज रे २१४ पुण्यई... गढ दृढ अतिहिं सोहामणो तो, पोढइ पर्वति राजइ रे, संप्रतिराय तणा तिहां तो, प्रासाद सुंदर छाजइ रे २१५ पुण्यइं... जीरण जाणी उद्धर्या तो, जयमल्ल मुहुणति हरिखिइं रे, ध्यन जगमांहिं ते कहुं तो, समई सदा जे परखइ रे २१६ पुण्यइं... बहु नूतन बिंब तेह भरावई, करइं प्रतिष्टा रंगिई रे, देश देशना संघ तेडावई, उल्हट आणी अंगई रे २१७ पुण्यइं...
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जान्युआरी २०१८
२१८ पुण्यई...
श्रीविजयदेवसूरि श्रीआचारजि, महा महोछवि शुभ वारिहं रे, करइ प्रतिष्ठा अंजनशिलाका, पुण्यवंत परिवारई रे संघवी जयमल्ल संघ पहिरावइ, सात षेत्रे वित्त वावइ रे, आचारजिस्यूं श्रीगच्छपतिनई, जालहुरि चउमास करावई रे २१९ पुण्यई... ॥ दूहा ॥ राग = कल्याण ॥
साह तेजपाल सीरोहीथी, आवी वंदइ पाय, श्रीगुरुना उच्छाहस्यूं, वली वंदइ जिनराय
२२०
२२१
॥ ढाल - सत्तरमी ॥ १७ राग - धन्यासी ॥ अढाई द्वीप मझारि - ए देशी ॥ जयमल्ल नई तेजपाल, श्री संघस्यूं गुरु वींनवई ए श्रीगुरु परमदयाल, वीनतडी अवधारीइ ए जालहुरनयर मझारि, वांदणां महोच्छव कीजिइ ए, हरखइ जिम नर-नारि, जिम अम्हे मन रीझीइ ए मानई श्रीगुरुराय, तेणइ समइ ते आग्रह भलो ए, सोल चउरासीइ सार, पोस सुदि दिन निरमलो ए छठि अनइं बुधवार, उत्तरभाद्रपद शिवयोगस्यूं ए. वली रूडु रवियोग, मकरसंक्रांतिना भोगस्यूं ए मीनलगनि जयकार, महोच्छव श्रीजयमल्ल करइ ए वंदण दीइं गुरुराज, चतुरविध संघस्यूं तेणइ समइ ए २२५ विद्यासागरगुरुसीस, सहजसागर बुध सुंदरू ए, बुध जयसागर तास, वाचकपद सहि गुरु दीई ए भ्राता श्रीअनूचान, कीर्त्तिविजय बुधन तिहां ए, वाचकपद बहुमांन, आपई श्रीगुरु उल्हटइं ए देश देशना संघ, तेहनइं करइय पहिरामणी ए, अश्व हेम रथ-दान, आपई वस्त्र वधामणी ए जिनशासनि मंडाण, श्रीगुरुचरण - पसाउलइ ए, दिन दिन चढतइ वानि, श्रीविजयसिंघसूरी सदा ए
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अनुसन्धान-७४
२३२
ए श्रीगुरुनी जोडि, श्रीभगवंत सदा सही ए, होज्यो पुण्य प्रमाण, तपगछ गुरुगुण गहगही ए २३० ए गुरुना गुण जेह, एक जीभई कुण वरणवइ ए, तास जनम सही धन्य, जे ए गुरुनई संस्तवइ ए २३१ सोल पंच्यासीइ सार, आषाढ शुदि पूनिम दिनई ए, रूड़ तिहां रविवार, रास रच्यु मन उल्हटइं ए, रास रचिउ मंगलपुरिइं ए
॥ ढाल - अढारमी ॥ १८ राग - धन्यासी ।।
हींचिरे हींचिरे हिअयहीं डोलडइ ए देशी ॥ हीरजी हीरलो तास पटि अति भलो, श्रीविजयसेनसूरीश राजइ, श्रीविजयदेवसूरि तास पटि निरमलो, भाग्य सौभाग्य वैराग्य छाजइ २३३
हीरजी... थापिओ जेणि निज पाटि विजयसिंघजी, सदा उदयवंत गुरु एह गायो, कल्याणकुशल गुरु शिष्य सुख रंगरस, कहइ दयाकुशल सही मइं ज पायो
२३४ हीरजी... ॥ इति श्रीविजयसिंघसूरीश्वर पदमहोत्सव रासः संपूर्णः ॥छ।। । संवत् १६८६ पौष शुदि १० ।। ग्रंथाग्रं-३२१ ॥श्री।। सूरकुशलगणि सत्का प्रतिरियं ।।छ।।
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गूढा - प्रहेलिका - समस्या - हरियाळी (२)
- सं. उपा. भुवनचन्द्र
अनुसन्धान ७२मां आ प्रकार- एक संकलन प्रगट थयुं छे. अहीं आवो बीजो संचय रजू को छे.
विद्याविनोद अने मगजमारीनी आ प्रवृत्ति विद्यार्थीओ, विद्वानो जेटली ज सामान्य जनतामां पण प्रिय रहेती आवी छे. कामकाज, अभ्यास अने चिंतनथी थाकेला मस्तिष्कने कदाच ए आराम आपती हशे ! बुद्धिवर्धक अने रसपोषक तो ए छे ज. जाणीती वस्तु के घटनाने अवनवां वाघां पहेरावीने एवी रीते रजू कराय छे के जेथी श्रोताने अनेक दिशामां विचारवं पडे छे. ए रीते तर्कशक्ति, सामान्यज्ञान तथा कल्पनाशीलतानो विकास थाय छे.
गूढा / समस्या / हीयाली वगेरेमां उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, अतिशयोक्ति जेवा अलङ्कारोनो छूटथी उपयोग थाय छे. 'अलङ्कारो ए अशिक्षितोनी भाषा छे' – ए उक्ति कोयडा / गूढा वगेरेमां अक्षरशः साची पडती देखाय छे.
हस्तप्रतोमां दरेक प्रश्नना उत्तर लखेला नथी मळता. ज्यां मळ्या छे अने ज्यां शोधी शकाया छे त्यां त्यां कौंसमां नोंध्या छे. ज्यां नथी मळ्या त्यां कौंस खाली राख्या छे.
अघरा शब्दो
चोटडी = चोटी वाउलि = वायु माती = मत्त-पुष्ट गोली = दासी फलहउ = फलक-पाटियु पंथिया = पथिक
भख = भक्ष्य सू = संतान सुघड = शिक्षित वेढि = युद्धमा गिरड्डी = गरिष्ठ प्रथी = पृथ्वी
चख = चक्षु राखडी = माथा- घरेणुं नविढा = नवोढा निखर = खराब निगरणि = गळामां
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६४
( १ )
गूढा
अठोतर सउ खंडडे, दीसइ जासु सरीर ।
गुणवंती शरि चोटडी, कवणु नारि कहि वीर ॥ [ जपमाला ] फागुण मासि वाउलि वाई, पुरुष पेटि ऊपनि बाली ।
२.
न खांडइ चोखा कहिअइ गोली, इह हिआली कहितां दोहिली ॥
[आंबागोली ]
१.
३. भांभरभोलउ बइठउ बारि, तेहनइं परीसी आवइ नारी;
चावइ पुण न सकइं ते गिली, नारी आवइ पाछउ वली. [ऊखल ] पाणी पीती दूबली, तरसी माती होइ;
कहउ न जोसी पंडिआ, ते गाइ काइसी होइ. [छास]
४.
५.
६.
अनुसन्धान-७४
८.
सो समरउ पंथिया, अव आवहु भिक्खा लेहु . [ रामचंद्र ]
७. गिरिसू कंत जु आभरण, तसु भख सुतह जो स्वामि;
तासु घरिणी जो संचीयउ, सो नांही इणि गामि (सीतानुं संचित = सत)
बारह चांचां सहस पग, पांखां लख अलख;
एक पुरुषनी असंभम वात, वांसइ चडइ नइ लाकड सात; दीहं जीवइ रातइ मरइ, तेह पुरुष मइ दीठउ परइ. [फलहउ] शशिवाहण सुत आभरण, रिपुसुत स्वामी जेह;
सुघड मिल्यां ही पूछस्यां, पंखी तणी परख [?] छप्पयवाहण तासु सुत, तसु धूअ वाहण जास; जाण-सुजाणां जाणज्यो, सो अम्हचो तुम्ह पास. [?] १०. सूकुं सरवर बहुत जल, कमलां अंत न पार;
करण हीयाली पाठवी राजा भोज विचार. [ दर्पण ] ११. कुण मोटउ नर मध्यि उष्णकालि सुखकारण, किमु वंछइ नृपनंद रत्नगर्भा दुहदारण; कुवलय नाणक जीर्ण धरणीतल उदर विदार, गानहेतु कुण अतिहिं समय शीतल चित ठारइ;
୧
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जान्युआरी - २०१८
६५
प्रणमन धातु भुजंग कुण जे भूभारि भग्गइ नही, कुण खमइ घाय टंकण तणउ भणउ भाई भली परिं पही. (राजा, जाली, राज्य, मही, चंद्र, द्रम्म, सीर, ताल, प्रातः, णम्, शेष,
दल(?). एना आद्याक्षरो वडे बने छ : राजा रामचंद्रसीताप्राणशेद (?)) १२. या अंगज गिरि सुता पितरि तर वस्तु निरंतर,
आपकु नाभि बहुत्त तरुणीगुण के किमनुत्तर; कुण पद्धरधन करा दीप को जगति झलामल, मघवमानिनी सुहड वेढि किं वंछइ महाबल, सगउ नहीं कुणइ अम सुणि तत्त्वराशि वद विबुधवर, पढम वर्ण लेयो सकल सो पृथिवीपत्ति शर्मकर. (साज, हिम, जल, लाज, लट, दीह, चिद, रंभा, जय, यम, तुला -
एना आद्याक्षरथी बने छे : साहि जलालदी चिरं जयतु) १३. विहगप्रिय कहु कवण कुनृप किं मग्गइ बहुतर,
त्रपा पुरुष पर्याय आदि अंत अक्षर सुंदर; युगल त्रिगड मित कोटि सुरभि पुच्छि तुझ पूर्छ, सिंधुसलिल कीदृश भणुं हुं वयण न भुंछु, दानी दिनि दिनि वावरइ वरइ वडाइ विविध विधि, विरहिणी वल्लभ रंगभर सकल सुखाकर वदति विधि. (सर, कर, लर, सुर, खार, कर)
(एना आद्याक्षरथी बने छे : सकल सुखाकर) १४. सरस नारी सुपियार सयल संसार गिरट्ठी,
नांउ समाता तीय जतीकू मूल न मिठी; सोलह वरस पपत्थि(?) पुरुष संगति लइ, घडी कटिइं पख वधइ, तितीस वरस पाछिइ माल्हइ; तिस नारीथी नर सोहइ नारी ऊपनी एध जुग,
कवीयण कहइ तुम्हे सांभलो, कहो अरथ छ मास लग्ग. [दाढी ?] १५. तीन कुट्टका एक शरीर, अंन न खाइ न पीइ नीर; जिणि मुख लोही जीव न मंस,
नही पखेरू नही पण हंस;
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६६
अनुसन्धान-७४
जब जाइ अगनिसु नाही, उडत पखेरू वणफल खाई. [?] १६. तरवर एक उत्तंग तास दोइ पेड वखाणू, ।
बडी साख जस वीस, सखर सो वनमें थाणू; दाहोतरसौ लघु साखि साख साख एक ज पल्लव, दस फल लागां तास करै कोकिला किलोरव; कुली तीनसे वीस अगाली, एह वात श्रवणे सुणी;
पूछिजै पढिया पंडिता, केण गयंदा ओ खणी. [?] १७. अछि सबल जुगि एक वसि घटि अंतर वासो,
साथि सुख-दुख सहइ, प्रीति नह छंडइ पासो; भोजन-जल नहु भखइ, प्रथी सा नारी पीयारी; चर्म पांखि चख चलण, मरइ नहीं सा मारी; आथमण थकी साइ ज सबल, हिव ऊगमणे जाइसइ,
उदार सिरोमणी अरथ ओ जसवंत मुहतो जाणस्यइ. [?] १८. हीयाली जे आगलि कहीइ, जे होइ हियइ बलीओ,
एक पुरुष जिमवानइ बइठो, साहमो भाणइ गलीओ. [?] १९. कमन भृमू (?) किंकरोह (?) कवण आवाहन भणीइं,
राजी स्त्री कुण दान अधिक रस केहु सुणीइं; लेख कुसुम कुण गेहभूषण - - सार कहावि, ता सुत कवण चंद मज्झि अंकि आवि अधिक सुहावि; रघुतात कवण भूदेव कुण कवण मंत्र हईडि जपह, सवि बीज नाम आदिख्खरिं ते कवि कहि दिनि दिनि तपह. (अबला, कमल, बलद, रजनी, जलद, लावण्य, लविंग, दीपक, नयन, मदन, हरिण, मलय, दिलीप, गायत्री, जीवन-आ शब्दोना आद्याक्षर मळीने जे नाम थाय ते दिन दिन प्रतपो. नाम बने छ : अकबर
जलालदीन महमदि गाजी.) २०. सूरलक्षण कवण कवण न रहई जलमांहि,
गजगुण गिरुउ कवण काठ कहुनि घट ऊमाहि; कुण दीठइं रिपु बीहई नयननी ओपम ओपइ, हयग्रीव गोरडी मंत्रि कल भूप न कोपइ;
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जान्युआरी - २०१८
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शीतकर शोभा कुण कही वदि व्योमि जगि झगमगई, निःस्व प्रेम चिति चिंतवउ संवच्छर छन्नू लगइ. (सत्त्व, लीह, मद, साग, हस्त, पद्म, रमा, मति, प्रभा, तारा, पद्मा. आ
शब्दोना आद्याक्षर मळीने नाम थाय - सलीमसाह परम प्रताप) २१. रोहिणीरमण अमूल निबल विद्या घट काचु,
दीइ दाय ग्रह क्रूर बाल चालई कही माचु; परिखण विण कुण गलइ अतिहिं उतकट अति मीठं, महा महिमा महि मांहि तेह कुण ज्ञान ज दीर्छ । कुण हेतु शत्रु मित्रह तणुं कुण दोहिलिउं चिति चिंतवउ, जं जं पूर्छ चवउ, अन्न अन्न कां कां लवउ. (सोम, रत्नं, ठग, देहः, शत्रुः, मंद, डग, नंग, विषं, मधु, लग्नं, गिरः, रिण - एना आद्याक्षरथी बने छे : सोरठदेशमंडन विमलगिरि) कुमारोवाच : पढमखर विण मृगपति धाम, बीअक्षर विण देवीनाम; अंतिक्षर विण किंपि न होइ, मस्तकि सुर देई तुं जोइ. [सुरसुंदरी]
कन्या प्राह : २३. पढमक्षर विण म कहु कोइ,
मध्यक्षर विण जिनवर जोइ; छेहल्या विण दोइ करइ निषेध, ते तुं जाणइ चतुर सुजाण. [अमर]
अमरकुमर प्राह : २४. पढमखर विणु ऊभी कहउ,
मध्यक्षर विण कहीइ महु; अंतिक्षिर विण अन्नइ रही, सोहि नित तुझ सिर सारही. [राखडी]
२२.
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अनुसन्धान-७४
कन्या प्राह: २५. पढमखर विण हीइ म राखि,
बीयखर विण नाम मनोहर भाखि; अंतिक्षर [विण] पाड पुरणे, तस उपमा दीजि शशिमुखे. [कमल]
कुमर प्राह : २६. पढमक्षर विण को मत करु,
बीयक्षर विण कां उच्चरु ? अंतखर विण वरीउ रमा, तेहनि लोचनि तुझ उपमा. [हरिणी]
कन्या प्राह : २७. पढमखर विण बालक कांनि,
बीजा विनाणी नविढा मानि; अंतक्षर विणु झीणु सार,
सा कामिनी ग्रहइ अणगार. [लाकडी] २८. पढमक्षर विण प्रथवीकाय,
बीजा विना पंखिणी कहाय; दीरघ विण अंतखर हीण,
सहू वंछई सघले लवुलीण. [सूखडी] २९. विण पग बैसे धरणी, केस विण माथु समारइ,
मुख विण खाइ तंबोल, नयण विण कज्जल सारइ, नउ वा खाइ अन, पाणी न पीयइ न मारी मरि जाइ, न जीवाडी जीवइ, भरतार सेज सदा सूवइ, हासि वयण न वातां करइ, एक नारी इण परि रहइ. [?]
हीयाली गोरी रे गुणवंती गुणि आगली रे, तेहना बापनी जगमां माम रे; बापनो बाप सामो मलइ रे, त्यारे न जइइं गाम रे गो० १ बापना बापस्युं ते मिली रे, त्यारि थयो ते बाप रे; बापस्युं तेणि संगम कीउ रे, तोहि न लागु पाप रे गो० २
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जान्युआरी - २०१८
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बलवंत बेटो तेहनी कूखथी रे, ऊपनो जगि एक रे; मान दीइं मोटा राजवी रे, तेमां घणो य विवेक रे गो० ३ जेठई ते होइ दूबली रे, तोहि वांछइ सहू कोइ रे; भादरवइ ते नारीनइ रे, मान थोडेस्युं होइ रे गो० ४ रूप ते पूर्णिमा सारिखं रे, थोडि मुल्लिं वेचाय रे; उत्तमनइ कुलथी ऊपनी रे, नीच तणी घरि जाय रे गो० ५ ए कुलथी ए ऊपना रे, सात अक्षरचु नाम रे; मेघचंद गणि शीश कहइ रे, ए छइ अरथनो ठाम रे गो० ६
[दूध-दहीं-घी-छाश]
(२) हीयालीगर्भित पार्श्वनाथ स्तवन (१) विबुधजन कुण गुण सहित सोहइ मुदा, (२) तुरीय व[ग्ग] प्रथम अक्षर अछइ जे सदा; (३) करि जेहनई देखि मयणात[तु]रू, (४) जिण [प्रमा]ण कहउ सोभ पामइ वर. १ (५) ---माहि मीठी कहउ कुण लही, (६) नारिनई केहनी ओपमा जगि कही; (७) वदन महिमंडलिई कवण अलंकरइ, (८) सयणनी सोभ कहि कवण माणस हरइ. २ (९) निखर हाटक तणउ कसमल कुण तजइ. (१०) कर वरिइं चंडि सुत कवण वाजिव भजइ; (११) खित्रियवंश माहि कवण मोटउ कहउ, (१२) जोधमाहि जोवतां सुभट कहि कुण लहउ. ३ (१३) चंद्रनउ तात विख्यात जगि कुण अछइ, (१४) नेमिनउ बांधव जीतलउ जिणि पछइ; (१५) रसतणउ स्वाद अनुवाद जाणइ घणउं, (१६) कुण लहइ सार उपगार पूजा पणउ. ४
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(१७) राय आगलि कहउ रंगि बहु कुण रमइ, (१८) पुरुषनइ चडत योवनि कहउ कुण गमइ; (१९) निखर द्रव्य देखि मनमाहि मानइ किस्यउ, (२०) वहत व्यापारि कहि वृद्ध कुण मनि वस्यउ. ५ (२१) शब्द सुणी केसरी केहनउ ऊछलइ, (२२) माण वली रायनउ ते कहउ कुण मलइ; (२३) नेमि जिण छोडी सर्व जीव करुणा करी, (२४) रुद्र घरि घरणी कहउ केणि नामिइं सरी. - ६
पंक्ति चुवीस अक्षर त्रिहुं त्रिहुं तणी, अंति दोइ छंडियइ प्रथम संग्रह सुणी, आगमि गुरुमुखि जासु महिमा सुणी, नाम हुइ जेहनउ भगति वांदउं घणी. - ७ इम दुक्खवारक सुक्खकारक सयल जीवां हितकरू तेज मूरति कर्म चूरति पापपंक निराकर; बाइसमांथी जिन त्रेवीसम पुरखादाणी गुणभर्यउ, वांदइ जिणवर कहइ हर्षचन्द्र ते भवसायर तर्यउ. - ८ (१. लक्षण २. टकार ३. करिणी ४. सायर ५. साकर ६. हरिण ७. नयण ८. इतर ९. पावक १०. डमरू १. इक्षाग १२. श्रीपति १३. सायर १४. मदन १५. लपनी १६. उत्तम १७. पायक १८. रमणी १९. सखर २०. नायक २१. थणिय २२. वामन २३. दयाल २४. उमया ।
आ शब्दोना प्रथमाक्षरोथी वाक्य बने छे : "लटकसा साहनइ पाडइ श्री सामलउ पारसनाथ वांदउ.'')
(३)
परमप्रवीण अणजीत निरमल बिहु पखे; सयल संसार जस वास सारै; पुरुष इक मौज महिराण हरपालगर, वाट घट घाट दुख दाह वार. १
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वदन जस आठ दुनिया न सहि को वदै,
रदन दस पांच ताइ प्रगट राचैः दोइ पग जास दीसै सदा दीपतां, भेटतां दुःख भय भूख भाजै. चपल द्रिग भालियल सोल वारू चवां, जुगल कर जीव सुर सेव सारै; सुगुण जिनहरख ची वीनती सांभलो, धींग नर-नारीचो नाम धारै. ३
( ४ )
राग : धन्यासी
ए तउ एक पुरुष दोइ नारी रे, मइ पेखी पुहवि मंजारी; ते तउ नरि नर सरसी नाथी रे, दोइ चालइ सरसी साथी.
[?]
....
कहु कहु हरियाली सारी रे, कुण पुरुष कवण ते नारी; दोइ सउकि समाणी दीठी रे, ते तउ कलह करंती मीठी. कहु० २ सिर फूंमतडी फुरकावर रे, नाचंती अवर नचावइ
....
जव संपइ थाइ सोइ रे, तव नयणि न जोवइ कोई; गंगाजल सरखी गोरी रे, बिहुं वसवा एक जि ओरी. ते जाण सरिसी गोठि रे, सर अमीय निज होठि; ए तु लाख-कोडि लखवारी रे, पुत्र प्रसवइ बालकुंआरी कहु० भटकंती लाड गहिली रे, बिहुं सरखी छइ साहेली; लावण्यसमय कहइ सोइ रे, लहु जाण हुइ ते जोइ.
७१
(५)
( राग : आसाउरि )
एक पुरुष जगमाहे सारा,
दिसि - विदिसि फिरइ साधारा; जोउ चतुरनर ए चतुराई, तेहनुं नाम किस्युं कहु भाई.
कहु० ४
कहु० ६ [बे आंख ]
जो ० १
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ओछी जातिं जे छइ अबला, तस परिवार धरिइ ते सबला, जो० २ विणि कारणि ढांकी जिणि काया, इसी नारी ते नर नीपाया, जो० ३ भरतमाहि दीसई छई केता, नाम सामान्य धरइं सवि एता, जो० ४ एथी साधु सकल ते साचा, ए विण विकल कहावई काचा, जो० ५ वदनि पडी छइ जेहनी युवती, प्रगट प्रेम ते शुं अनुभवती, जो० ६ परमेश्वर- अछइ दीधउ, भाग्ययोग छइ तेहे लीधउ, जो० ७ लिखमीकल्लोल इम पंडित भाषइ, शिवसुख न लहइ को एक पाखइ. जो० ८
[रजोहरण]
लला मेरे, पंडित देहु विचार, लला मेरे, अक्षर त्रिणि मझार, लला मेरे, पूर्छ तुम्ह इक बार, लला मेरे, मुझ मनि हरख अपार. ल० प्रथम अक्षर विनु लोइ, ल० तरुवर वनमांहि होइ; ल० सामल वरणई सोइ, ल० ऊंचउं अवर न कोइ; ल० दुतीय अक्षर विनु जानि, ल० उत्तम व्रत गुनखानि; ल० सबही सुखकउ ठान, ल० अवर न कोई समान. ल० तृतीय अक्षर विनु देह, ल० सबही धूणइ तेह; ल० दीसइ नयनि न जेह, ल० नाम कहउ कुण एह. ल० तीनि ति हुआ जिनराय, ल० ध्यावउ मनचइ भाय; ल० चामीकर जसु काय, ल० शिवरमणी सुखदाय; ल० प्रणमइ सुरनर पाइ, ल० अंगई हरख न माय, ल० सुररमणी गुन गाइ, ल० नृत्य करत मनराइ, ल० मोहन शशधरवयनी, ल० नीलकमलदलनयनी; ल० मदनमहाभडलयनी, ल० जानत हय सब सयनी. ल० तनि सजि देवदुकूल, ल० बोलती पिक अनुकूल; ल० तेह कटिमेखल रतिमूल, ल० घमकती घूघरी अमूल.
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ल० वीना वेणु उपंग, ल० सरस मधुर सुख चंग; ल० ताल कसाल मृदंग, ल० बाजती नाद अभंग. ल० ततथेइ ततथेइ गान, ल० जिनमुख ऊपरि ध्यान; ल० पद ठवती इक तान, ल० मागती मुक्तिकउ दान. ल० झें झें झें झनकार, ल० पगि नूपुर रणकार; ल० निगरणि नवसर हार, ल० झिगिमिगि सोल सिंगार, ल० जय जय जय जिनचंद, ल० प्रतिपउ जां रविचंद; ल० कहइति सुरवधू वृंद, ल० केवलणाण दिणंद; ल० आइसी भावन भाइ, ल० एकंतिइं चित लाइ; ल० भवियन जिम दुख जाइ, ल० सिवसिरि सुख वसि थाइ; १३ ल० जयनिधान गणि एम, ल० जिनगुण गाया प्रेमि;
ल० संघ करउ नितु खेम, ल०
वाधउ रिधि घरि तेम.
( इति हियाली गीत. सं.
१.
३.
-
४.
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( ७ )
समस्या
२. पयोधर भराक्रान्ता, तन्वंगी गुणसंयुता ।
आयुक्तः पुष्टिदो लोके, वियुक्तः श्रमणप्रियः ।
प्रयुक्तः सर्वविद्वेषी, केवलः स्त्रीषु वल्लभः ॥ [हार:]
१४ १६६७ कार्त्तिक व. १३. लिखितं किरहोरनगर) (अभय ग्रं., बीकानेर, क्र. २७४५६) (उकेल : शीतल (नाथ भगवान)
पुरुषेण समं याति, कन्यां नारीं विना वदेत् ॥ [कावडि]
अनिलस्यागमो नास्ति द्विपदं नैव दृश्यते । वारिमध्ये स्थितं पद्मं कम्पते केन हेतुना ॥ [भ्रमरक]
१०
किं लवइ सद्दरहियं ? किं अणदिट्ठे वल्लहं होइ ? । किं अणचक्खियं सुमिट्टं भंगा किं सुंदरं होइ ? ॥ ( १. नाडी २. मोक्ष ३. (?) ४. वैर)
११
१२
७३
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५. विप्रनेलामिमावैज्ञा-द्याभुमिभत्रनद्यति ।
एते यत्र न विद्यन्ते तत्र वासं न कारयेत् ॥ (वि प्र ने ला मि मा वै ज्ञा
द्या भु मि भ त्र न द्य ति) ६. राजन् ! कमलपत्राक्ष !, करेणुः करणैर्विना ।
सम्पादयति यद्रूपं, तत्ते भवतु चाक्षरं ।।
(क-र-ण विना अ-ए-उ = आयुः) ७. अष्टौ श्लोकान् कुरुष्वेति, पिता पुत्रं समादिशत् ।
पञ्च श्लोकाः कृतास्तत्र, पितुराज्ञा न लङ्घिता ।
(अष्टौ इति सप्तमी, अष्टौ जात्यां इत्यर्थः) ८. वटवृक्षो महानेषो, मार्गमावृत्य तिष्ठति ।
यावन्मार्गं न गन्तव्यं, तावन्मार्ग न मुञ्चति ॥ (वटो + ऋक्षः = वटवृक्षः) आयुक्तः प्राणदो लोके वियुक्तः श्रमणप्रियः ।
प्रयुक्तः सर्व विद्वेषी केवलः स्त्रीषु वल्लभः ॥ (हार) १० सन्तश्च लुब्धाश्च विरक्तचित्ता, विप्राः कृषीष्टाः कृमिराजकीयाः ।
किं किं किमिच्छन्ति तथैव सर्वे, नेच्छन्ति किं माधवदाघयानं ॥
(मानं, धनं, वनं, दानं, घनं, यानं; माधवदाघयानं) ११. सन्ध्यावन्दनवेलायां, त्वं तडागं द्विजोत्तमैः ।
अत्र क्रियापदं गप्तं, यो जानाति स पण्डितः ।।
(ऐः इति क्रियापदं गुप्तम् । हे द्विजोत्तम + ऐ:) १२. एकोना विंशतिः स्त्रीणां, स्नानार्थं सरसीं गताः ।
विंशतिर्गहमादाय(मायाता), शेषो व्याघेण भक्षितः ।
(ना - पुमान् । एको ना, विंशतिः स्त्रियः ।) १३. विद्यया जायते भानुर्दानेन विमलं यशः ।
अत्र षष्ठीपदं गुप्तं यो जानाति स पण्डितः ॥ (नुः - नरस्य)
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१४. मालवे मालवो नास्ति दक्षिणे नास्ति दक्षिणा ।
पुनर्व्याघुट्य यास्यामि गूर्जर जर्जरे वरे ॥
(मा लक्ष्मीः, तस्या लवः अंशः) १५. अखाद्यः खादितो लोकैर्नीरसो रसनायकः ।
अपादो भ्रमते पृथ्वी निर्जीवो विश्वजीवनः ॥ [रूपीयो अर्थ हुवो] १६. वृक्षाग्रवासी न च पक्षिराजः त्रिनेत्रधारी न च शूलपाणिः ।।
त्वग्वस्त्रधारी न च सिद्धयोगी जलं च बिभ्रन् न भवेच्च मेघः ।। [श्रीफल] १७. कृष्णमुखी न मार्जारी, द्विजिह्वा न च सर्पिणी ।
पञ्चभी न पाञ्चाली, यो जानाति स पण्डितः ॥ [लेखण] १८. य एवादौ स एवान्ते मध्ये भवति मध्यमः ।
य एतन्न जानाति तृणमात्रं न वेत्ति सः ॥ [मध्यमः] १९. न तस्यादिर्न तस्यान्तः मध्ये यस्तस्य तिष्ठति ।
तवाप्यस्ति ममाप्यस्ति यदि जानासि तद्वद ॥ [नयन] २०. केशाः कञ्जालिकाशाभाः करकारविनाकिनः ।
बीबीगोगतयो दद्यु-रम्भोजाब्धिनगौकसः ॥ [?] २१. तातेन कथितं पुत्र, लिख लेखं ममाज्ञया ।
न तेन लिखितो लेखः पितुराज्ञा न खण्डिता ॥ [नतेन लिखितः]
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विहंगावलोकन
- उपा. भुवनचन्द्र
अनुसन्धान-७३नु कद सामान्य रीते होय छे ते करतां अडधुं छे. सम्पादकश्रीनी अन्य कार्यमां व्यस्तताना कारणे आम थयुं हशे - एम मानवू रह्यु. बाकी अप्रगट होय एवी रचनाओ तो ज्ञानभण्डारमा हजी ढगलामोढे छे.
_ 'पंचकल्लाण' नामक रचना प्राचीन छे, ताडपत्रीय प्रतिमांथी लेवामां आवी छे. पांच कल्याणकोनुं वर्णन आलङ्कारिक नहीं पण वर्णनप्रधानविगतप्रधान छे, जाणे विगतो नोंधी राखी होय, अहेवाल आपवानो होय ए ढबे थई छे. अन्तमां एक गाथानो क्रमाङ्ग कौंसमां मुक्यो छे ते उचित ज छे. १३४मी गाथामां समाप्तिनी सूचना मळी जाय छे. छेल्ली गाथा महावीरस्वामीना प्रसंगोथी सम्बन्धित छे, विद्वान मुनिए के लिपिकारे पोते समानविषयक समजीने कृतिना अंते लखी-नोंधी राखी छे. एमां 'गब्भाहरणं' शब्दथी गर्भापहार अने जन्म - बन्ने प्रसंगो सूचवी देवाया छे..
३ स्तोत्रो' परम्परागत शैलीनां स्तोत्रकाव्यो छे. ऋषभदेवस्तोत्रमा संस्कृत सर्वनामोना प्रयोगो गूंथी लेवामां आव्या छे. पोताना शिष्यो । विद्यार्थीओना अभ्यास माटे गुरुओ आवी रचनाओ करता.
___ 'ऋषभदेवसिंहावलोकस्तव'मां यमकनी समृद्धि वाचकने चमत्कृत करे एवी छे. संस्कृतभाषाना व्याकरण, सन्धि, समास अने विपुल शब्दकोशनी मददथी आवा प्रकारनी चित्त चमकावनारी रचनाओ पुष्कळ बनी छे. दरेक चरणना अन्तभागना चार वर्ण (अक्षर) तेनी पछीना चरणना आदि अक्षर तरीके आवता रहे छे तेथी रचना सांकळनी कडीओ जेवी थाय छे.
विनयदेवसूरिकृत पहेली रचना 'दानभाषा'मां त्रीजी कडीमां 'नीर न (ज)' - एम सुधारो सूचव्यो छे, परन्तु पछीथी समजायुं के 'ज'नी जरूर नथी, 'न' ज बरोबर छ : सारं जळ कोईने उपकारक बनतुं नथी - एवो अर्थ सुसंगत छे.
पृ. २७ पर 'एक पुरुष...' ए हरियालीनी कडी २मां अन्तमां 'भाव'
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छपायुं छे त्यां 'माव' जोईए. एनी ज पहेली कडीमां प्रेसभूलथी 'कहयइ' छपायु छे, त्यां 'कइयइ' जोइए.
'च सि मा' - आ त्रण अक्षरोनी एक सो वार हाजरी जेमां गोठवाई छे ते स्वाध्याय मनोरंजक अने उपदेशक तो छ ज, पण गूर्जरभाषामां आ प्रकारनी शब्दचातुरीनी कदाच आ एकमात्र स्वतन्त्र कृति हशे. ज्ञानभण्डारोमां आवी अन्य रचनाओ पण हजी पडी होय तो ना नहि.
___ गूजराती-हिन्दीमां आवी शब्दरमत धरावती उक्तिओ । पंक्तिओ जो के मळे छे, पण सम्पूर्ण । स्वतन्त्र कृति प्रायः आ सर्वप्रथम हशे. 'दीवानथी दरबारमां, छे अंधारं घोर'. ए ज पंक्ति फेरवीने जूदा अर्थमां : 'दीवा नथी दरबारमां, छे अंधारूं घोर.' कविश्री दलपतरामना 'मिथ्याभिमान' नाटकमां एक श्लोकमां आवी रमत थई छे :
"ले राख ले राख तुज स्वामी दाखे,
ले राख ले राख मुज स्वामी भाखे" अहीं पहेली वारमा राख = मूक, राखी ले (घरेणुं) एवो अर्थ छे. बीजी वारमां राख = 'भस्म' अर्थ छे.
एक जूनुं हिंदी कवित : "तीन लोक कू तारने कु हजीरा-मसीत हय". नवाबना कोपथी बचवा माटे आ प्रमाणे बोल्या पछी कविए पोतानी श्रद्धा ए ज पंक्तिमां आ रीते व्यक्त करी : "तीन लोक कू तारने कु हजी राम-सीत
हय."
संस्कृतभाषामां आवी शब्दलीला करवा माटे व्याकरण, कोश, समास आदिनी मदद मळी शके छे, परन्तु अन्य भाषाओमां आवी सुविधा अति अल्प ज मळे; छतां प्रस्तुत कृतिमां च-सि-मा आ त्रण अक्षरोनुं पुनरावर्तन एक सो वार निभावीने विक्रम सा छे.
कृतिमां जूनी गुजरातीना क्रियापदोनी भरमार छे, जेना धातुओ अमुक तो म.गु.को.मां पण नोंधायेला नथी. कृतिमांना घणा शब्दो अस्पष्ट रहे छे.
'मुनिविजयजी उपाध्यायनो रास' - आ कृति द्वारा हीरयुगना एक वधु श्रमणवर्यनी जीवनी प्रकाशमां आवे छे. कृतिना पाठमां करि, ओपि, कहि एवा
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प्रयोगो छे. सम्पादकोए तेमने अशुद्ध समजीने कौंसमां करि(रइ) वगेरे सुधारा सूचव्या छे, पण तेवी जरूर नथी. करि, ओपि वगेरे रूपो दीव विस्तारनी बोलीनी छांटवाळां रूपो छे. अनमति (क. ३७), यम (क. ३७) जेवा शब्दो पण बोलीनी असर धरावे छे. क. ६८मां रहा', क. ८९मां 'पांगरा' छे त्यां रह्या, पांगर्या एवो सुधारो सम्पादकोए सूचव्यो नथी, ते योग्य ज कर्य छे. करि, ओपि व.मां पण एम ज समजवू जोइए. क. २८मां 'सामी' छे त्यां कौंसमां 'धर्मी' सूचित कर्यु छे, पण ते खोटुं छे. 'साहम्मी', 'सामी' थयुं छे. (बीजे ठेकाणे 'साहम्मी'नुं 'स्वामी' थयुं छे, अने ए गेरसमज आज सुधी चाली आवे छे.)
तिलकविजयजी कृत ११ रचनाओ परम्परागत स्तवन प्रकारनी छे. जैन हस्तलिखित भण्डारोमां प्रकीर्ण पत्रोमां आवा स्तवन-सज्झाय-पदोनो भण्डार भरेलो छे. मनिओ मोटा भागे शिक्षित होय अने यथाशक्ति-मति भक्तिभावनी अभिव्यक्ति माटे स्तवन वगेरे आश्रय लेता होय. आवी रचनाओमांथी ऐतिहासिक तथ्यो उपरांत ते-ते समयना श्रमण-श्रावक संघनी श्रद्धा भक्ति-स्थितिनां दर्शन पण थाय.
स्त. ४, क. ६मां 'राखे ज्यो' छे त्यां 'राखेज्यो' एम वांचq घटे. स्त. ६ क. ८मां “थोल' नहीं, 'थोभ' साचो पाठ छे. स्त. ८नी देशीमां 'हुंग' छे त्यां 'ट्रंक' शब्द होवो जोईए. स्त. १०मां क. ५मां 'तिमउं' छपायुं छे ते वाचनभूल छे. 'तिम तुं' वांचवें जोइए. १२मी कडीमां 'जिनकी रति' छपायुं छे; 'जिन कीरति' पाठ संगत थाय. ११मी रचनामां क. ५ मां 'या षरमरनां' छपायुं छे. अहीं 'याखर मरनां' पाठ संभवित छे. 'याखर' = आखर.
___'केटलांक पदो'मां वधु स्तवन/पद आपणी सामे आवे छे. नेमिजिनपदनी अंतिम कडीमां 'करमरूपी या' छे ते स्थाने 'करमरूपीया' साचो शब्द बने.
_ 'ट्रंक नोंध'मां नानी-नानी महत्त्वनी वातो रजू थई छे. स्वाध्यायर्नु आवृं अवान्तर फल संघने - अभ्यासीओने सहायक थाय - थर्बु जोईए.
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