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अनुसन्धान-७४
ढालः
श्लोकः जगधणी पूजतां विविध फूलै, सुरवरा ते गिणै क्षण अमूलै ।
खांति धरी मानवा जिनप पूजै, तसु तणां पाप संताप धूजै ॥४|| काव्यः विकचनिर्मलशुद्धमनोरमै-विशदचेतनभावसमुद्भवैः ।
सुपरिणांमप्रसूनघनैर्नवैः, परमतत्त्वमहं यज[या]म्यहम् ॥५॥ है ही परमात्म० पुष्पं यजामहे स्वाहा ॥३॥
अथ धूपः ॥ दूहाः कृष्णागर मृगमद तगर, अंबर तुरुप्क लौबांन ।
मेलि सुगंध घनसार घन, करो जिन-मुख धूपदांन ॥१॥ धूपघटी जिम महमहै, तिम दहै पातिकवृंद । अरति अनादिनी जावै, पावै मन आणंद ।।२।। जे जिन पूजै धूपै भवकूपै फिरी तेह ।
नावै पावै ध्रुव घर, आवै सुख अच्छैह ।।३।। श्लोकः जिनघरै बासतां धूप पूरै, मिच्छत्त दुर्गंधता जाय दूरै ।
धूप जिम सहज ऊध्र्वग स्वभावै, कारका उच्चगतिभाव पावै ॥४॥ काव्यः सकलकर्ममहेन्धनदाहनं, विमलसंवरभावसुधूपनं ।
अशुभपुद्गलसंगविवर्जतां, जिनपतेः पुरतोऽस्तु [सु]हर्षतः ॥५॥ ही परमात्मने० धूपं यजामहे स्वाहा ॥४||
अथ दीपपूजा ॥ दहाः मणिमय रजत ताम्रना, पात्र करी घृतपूर ।
वर्ति सूत्र कोसंभनी, करो प्रदीप सनूर ॥१॥ ढालः मंगलदीप बधावौ गावौ जिनगुण-गीत ।
दीपतणी जिम आलिका, मालिका मंगल नित ॥२॥ दीपतणी शुभज्योति द्यौति जिनमुखचंद ।
निरखी हरखो भविजन जिम लहौ पूर्णानंद ॥३॥ श्लोकः जिनग्रहै दीपमाला प्रकासैं, तेहथी तिमिर अज्ञान नासै ।
निजघटै ज्ञानज्योती प्रकाशै, जेहथी जगतणा भाव भासै ॥४॥