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जान्युआरी - २०१८
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मेरुशिखर जिम सुरवर, जिनवर न्हवण अमांन ।
करता वरता निजगुण-समकित-वृद्धि-निदान ॥३॥ श्लोकः हर्ष भरी अपच्छरावृंद आवै, स्नात्र करि एम आसीस भावै ।
जिहां लगि सुरगिरि जंबुदीवो, अमतणा साधु जीवानुजीवो ॥४॥ काव्यः विमलकेवलभासनभास्करं जगतजन्तुमहोदयकारणं ।
जिनवरं बहुमानजलौघतः शुचिमनाः स्नपयामि विशुद्धये ॥५॥ है ही परमात्मने अनन्तानन्तज्ञानशक्तये जन्मजरामृत्युनिवारणाय श्रीमज्जिनेन्द्राय जलं यजामहे स्वाहा ॥१॥ इति ॥
अथ चंदन ॥ दहाः बावनाचंदन कुंकमा, मृगमद नै घनसार ।
जिनतनु ले तसु टलें, मोह संताप विकार ॥१॥ ढालः सकल संताप निवारण, वा(ठा?)रण सहु भवि चित्त ।
परम अनि(नी)हा अरिहा-तनु चरचौ भवि नित्त ॥२॥ निजरूपे उपयोगी(ग)-धारी जिन गुणगेह ।
भावचंदन सहु भावथी, टालै दूर(रि)त अच्छेह ॥३॥ श्लोकः जिनतनु चरचतां सकल नांकी, कहै कुग्गता उष्णता आज म्हाकी।
सफल अनिमेषता आज म्हाकी, भव्यता अमतणी आज पाकी ॥४॥ काव्यः सकलमोहति(त)मिश्रविनाशनं, परमशीतलभावयुतं जिनम् ।
विनयकुंकम-दर्शनचन्दनैः, सहजतत्त्वविकाशकृता(ते)ऽर्चये ॥५॥ में ही परमात्म० चन्दनं यजामहे स्वाहा ॥२॥
अथ फूल ॥ दूहाः शतपत्री वरमोगरो, चंपक जाय गुलाब ।
केतकी दमणो बोलसिरी, पूजो जिन भरी छाब ॥१॥ ढालः अमल अखंडित विकसित, शुभ सुमनी घन जाति ।
लाखिणो टोडर ठवौ, आंगी रचौ बहु भांति ॥२॥ गुणकुसुमै निज आतम, मंडित करवा भव्य । गुणरागी जडत्यागी, पुष्प चढावो नित्य ॥३॥