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निवेदन
संशोधन ए एक निरन्तर चालती अने संवर्धन पामती प्रक्रिया छे. ए रीते विचारीए तो, 'संशोधन' ए 'सर्जनात्मक प्रवृत्ति के प्रक्रिया होवा छतां 'सर्जन' थी साव जुदी बाबत छे.
आ मुद्दो जरा विगते जोईए :
'सर्जन' एटले एवी प्रक्रिया के जेमां सर्जक पोतानी प्रतिभात्मक क्षमताना बळे कांईक नवं ज, जे अत्यार पहेलां न होय तेवू, प्रगट करे छे के पछी निर्मे छे. पहेला हती ते वातने, चीजने के विषयने नवा रंग-रूप आपीने रजू करवामां आवे तेने 'सर्जन' के 'निर्माण' नथी गणवामां आवतुं; ते तो मात्र ‘अभिव्यक्ति' ज होय-नवा रूप-रंगे थती, प्राकट्य के निर्माण नहीं. वधुमां वधु 'पुनर्निर्माण' एवं नाम आपी शकाय, जे कोई रीते 'नवसर्जन'नुं नाम नहि पामी शके.
ज्यारे 'संशोधन' ए ‘सर्जन' अने 'पुनः सर्जन' ए बन्नेथी तद्दन अलग ज प्रवृत्ति छे. 'संशोधन'मां कशुं ज नवं रचवानुं के सर्जवानुं नथी होतुं. तेमां तो जे बाबत भूलाई गई होय, अर्थात् जे बाबत कोई स्वरूपे, क्यांक, विद्यमान होय अने छतां ते तेना असली स्वरूपे उपलब्ध न थती होय, वीसराई गई होय, रूपान्तर-नामान्तर पामीने बदलाई गई होय, तेना पर विस्मृतिनां, मान्यताओनां के कालनां आवरणो चडी गयां होय, ते बाबतने तेना असली रूपमां अने नामथी उपलब्ध अने प्रस्तुत करवानी होय छे; तेमां अनैतिहासिक अने गलत, कदीक विकृत पण, मान्यताओने खोटी ठराववानी होय छे; विस्मृतिना गर्तमां दटाई होय तो तेने पुनः उजागर करवानी होय छे; तेना पर लागेला काळना काटने दूर करवानो होय छे; घणीवार तो तेनुं 'अस्तित्व' पुरवार करी आपवानुं होय छे.
आम, संशोधनमां नवं कशुं ज सर्जवानुं न होवा छतां, तेमां अवास्तविकने वास्तविकमां बदली आपवानी, भ्रमणाओ, निरसन करी यथार्थने अनावृत करी देवानी सृजनात्मकता तो छ ज. अने छतां ए स्पष्ट समजवानुं छे के संशोधन ए सर्जन करतां साव अलग बाबत के प्रवृत्ति के प्रक्रिया छे.
बीजी वात : संशोधन ए निरन्तर अने अनेक व्यक्तिओ वच्चे चालती