Book Title: Anusandhan 2018 04 SrNo 74
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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बे अप्रगट रचनाओ
- सं. मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय [आ बन्ने रचनाओनी हस्तप्रतिओनी फोटोझेरोक्स नकल तीथल शान्तिनिकेतन श्रीबन्धुत्रिपुटी मुनिवर्यश्री कीर्तिचन्द्रजी महाराज तरफथी प्राप्त थई छे. प्रतिओ तेमना संग्रहमां सचवायेली छे.]
(१) वाचक श्रीसकलचन्द्र विरचित
गुणस्थानक-कर्महेतु-त्रिभंगीस्तवन तपगच्छपति श्रीविजयदानसूरिशिष्य उपाध्याय श्रीसकलचन्द्रजीनी प्रायः अप्रगट जणायेली एक रचना, १ छूटा पानाना आधारे प्रतिलिपि करीने अत्रे मूकी छे. 'षडशीति' नामना कर्मसाहित्य-अन्तर्गत प्रकरणमां जीवने कर्मनो बन्ध थवानां ४ मूळ अने ५७ उत्तर हेतुओ तथा १४ गुणस्थानकोमाथी ते ते गुणस्थानके केटला हेतुओनो सद्भाव होय तेनुं निरूपण आवे छे. आ निरूपणने आधार बनावीने कविओ ओ ज प्ररूपणाने २६ कडीना आ काव्यमां गूंथी छे. आटली नानकडी कृतिमां पण श्वेताम्बर अने दिगम्बर बन्ने मत अनुसार कर्महेतुओनी प्ररूपणा करवामां आवी छे ते आनी विशेषता छे. कर्मसाहित्यना अभ्यासीओने रस पडे तेवी आ कृति छे.
वि(वं?)दिअ सुरवंदिय जितराजी, हेतु त्रिभंगि गइ जसु भाजी,
वछुटि न आई लाजी । जे जिम जेणइ गुणठाणइ चाजी, जाणइ ते जसु हुइ मति साजी,
गुरुप्रसादि कहूं गाजी ॥१॥
॥ भाषा ॥ कर्म-बंधन-हेतु विना को, कर्म-बंध करइ नवि लोको । मूल हेतु तस च्यारि वखाणुं, अपर भेद सतावन जाणउं ॥२॥ पंच मिथ्यात छ जीव-विराधन, इंदिअ पण मण खड नवि साधन,
हेतु सतर ए जाणे ।

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