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ओगस्ट - २०१३
ने समवसरण की रचना की थी । धर्मदेशना देकर चतुर्विध संघ की स्थापना की थी। उसके पश्चात् साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका की गणना आदि की संख्या आदि दी गई है । गणधरों की स्थापना की थी और रेवन्तगिरि-गिरिनार के ऊपर भगवान् ने मोक्ष प्राप्त किया था । उस गिरनार तीर्थ पर भगवान् का मन्दिर बना हुआ है, जहाँ साम्ब और प्रद्युम्न भी विराजमान हैं । अम्बिकादेवी शासनरक्षिका हैं । हजार वर्ष का आयुष्य पूर्ण कर, गिरिनार पर चढ़कर, एक मास का उपवास कर, आषाढ शुक्ला अष्टमी के दिन पाँच सौ छतीस के साथ सिद्धि पद प्राप्त किया था । इस प्रकार इक्कीस स्थानों से गर्भित शुभ ध्यान से विनय भक्ति करता है और उसके हृदय में बोधिबीज जागृत करें । इसमें पद्य संख्या बत्तीस हैं।
इसमें सीमन्धर स्तवन की अपेक्षा कुछ टकशाली शब्द भी अधिक हैं । घात(घत्ता?) इत्यादि छन्दों की दृष्टि से भी अपभ्रंश के निकट हैं ।
ये दोनों कृतियाँ जैसलमेर जिनभद्रसूरि ज्ञानभण्डार की हैं । पाठकों के रसास्वादन के लिए दोनों कृतियाँ दी जा रही हैं ।
॥सीमन्धर-स्वामी स्तवना ॥ नमिर-सुर-असुर-नर-वंदिय-पयं रयणिकर-निकर-कर-कित्ति-भर-पूरियं । पंच-सय-धणुह-परिमाणु-परिमंडियं, थुणह भत्तीइ सीमंधरं सामियं ॥१॥ मेरुगिरि सिहरि धयबंधी जो कुणइ, गयणि तारा गणइ वेलुयाकण मणइ । चरमसायर जले लहिरमाला मुणइ, सो वि न हु सामि तुह सव्वहा गुण थुणइ ॥२॥ तह वि जिणनाह नियजम्म सफलीकए, विमल-सुह-झाण-संघा(धा)ण-संसिद्धए । असुह-दल-कम्म-मल-पडल-निन्नासणं, तात करवाणि तुह संथवं बहुगुणं ॥३॥
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