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अनुसन्धान-६२
मुख्य रूप से संस्कृत भाषा में ही ग्रन्थ लिखे गये । आगे हम जैनों के दार्शनिक संस्कृत साहित्य की चर्चा करेगे ।
संस्कृत भाषा का जैन दार्शनिक साहित्य
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यद्यपि जैन तत्त्वज्ञान के सम्बन्धित विषयों का प्रतिपादन आगमों में मिलता है, किन्तु सभी आगम प्राकृत भाषा में ही निषद्ध है । जैन तत्त्वज्ञान से सम्बन्धित प्रथम सूत्र ग्रन्थ की रचना उमास्वाति (लगभग २ री शती) ने संस्कृत भाषा में ही की थी । उमास्वाति के काल तक विविध दार्शनिक निकायों के सूत्र ग्रन्थ अस्तित्व में आ चुके थे, जैसे वैशेषिकसूत्र, सांख्यसूत्र, योगसूत्र, न्यायसूत्र, आदि । अत: उमास्वाति के लिए यह आवश्यक था कि वे जैनधर्मदर्शन से सम्बन्धित विषयों को समाहित करते हुए सूत्र - शैली में संस्कृत भाषा में किसी ग्रन्थ की रचना करे । उमास्वाति के पश्चात् सिद्धसेन, समन्तभद्र आदि ने भी जैन दर्शन पर संस्कृत भाषा में ग्रन्थ लिखे । सिद्धसेन दिवाकरने भारतीय दार्शनिक धाराओं की अवधारणाओं की समीक्षा को लेकर कुछ द्वात्रिंशिकाओ की रचना संस्कृत भाषा में की थी । जिनमें न्यायावतार जैन प्रमाण मीमांसा का प्रमुख ग्रन्थ है । इसी प्रकार आचार्य समन्तभद्र ने भी आप्त-मीमांसा, युक्त्यनुशासन एवं स्वयम्भूस्तोत्र नामक ग्रन्थों की रचना संस्कृत भाषा में की । इन सभी की विषय-वस्तु दर्शन से सम्बन्धित रही है । इस प्रकार ईसा की तीसरी - चौथी शताब्दी से जैन दार्शनिक साहित्य संस्कृत में लिखा जाने लगा था । उमास्वाति ने स्वयं ही तत्त्वार्थसूत्र के साथ साथ उसका स्वोपज्ञ भाष्य भी संस्कृत में लिखा था । लगभग ५ वी शताब्दी के अन्त और ६वी शताब्दी में प्रारम्भ में दिगम्बराचार्य पूज्यपाद देवनन्दि ने तत्वार्थसूत्र पर ‘सर्वार्थसिद्धि' नामक टीका संस्कृत में लिखी । इसके अतिरिक्त उन्होंने जैनसाधना के सन्दर्भ में 'समाधितन्त्र' और 'इष्टोपदेश' नामक ग्रन्थ भी संस्कृत भाषा में ही लिखे । इसी कालखण्ड में श्वेताम्बर परम्परा में मल्लवादी ने द्वादशारनयाचक्र की रचना संस्कृत भाषा में की, जिसमें प्रमुख रूप से सभी भारतीय दार्शनिक परम्पराएँ पूर्व पक्ष के रूप में प्रस्तुत की गई और उन्हीं में से उनकी विरोधी धारा को उत्तरपक्ष के रूप में प्रस्तुत कर उनकी समीक्षा भी की गई । इसके पश्चात् ५वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण
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