Book Title: Anusandhan 2013 09 SrNo 62
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 107
________________ १०० अनुसन्धान-६२ आचार्यो में हेमचन्द्र ने अपने प्रमाणलक्षण में 'अपूर्व' पद क्यों नहीं रखा, इसका उत्तर भी उनकी प्रमाणमीमांसा में मिल जाता है। आचार्य स्वयं ही स्वोपज्ञ टीका में इस सम्बन्ध में पूर्वपक्ष की उद्भावना करके उत्तर देते हैं। प्रतिपक्ष का कथन है कि धारावाहिक स्मृति आदि ज्ञान अधिगतार्थक पूर्वार्थक हैं और इन्हें सामान्यतया अप्रमाण समझा जाता है । यदि [तुम] भी इन्हें अप्रमाण मानते हो तो (तुम्हारा) सम्यगर्थनिर्णय रूप लक्षण अतिव्याप्त हो जाता है । प्रतिपक्ष के इस प्रश्न के उत्तर में आचार्य हेमचन्द्र ने कहा था कि यदि धारावाहिक ज्ञान और स्मृति प्रमाण है तो फिर प्रमाण के लक्षण में अपूर्व या अनधिगत पद निरर्थक हो जाता है । पं. सुखलालजी का कथन है कि "श्वेताम्बर आचार्यों में हेमचन्द्र की खास विशेषता यह है कि उन्होंने गृहीतग्राही और ग्रहीष्यमाणग्राही में समत्व दिखाकर सभी धारावाहिक ज्ञानों में प्रामाण्य का जो समर्थन किया है, वह विशिष्ट है। यही कारण है कि हेमचन्द्र ने अपने प्रमाण-लक्षण में अपूर्व या अनधिगत पद की उद्भावना नहीं की है। वस्तुतः हेमचन्द्र की प्रमाण-लक्षण की अवधारणा हमें पाश्चात्त्य तर्कशास्त्र के सत्य के संवादिता सिद्धान्त का स्मरण करा देती है । पाश्चात्त्य तर्कशास्त्र में सत्यता-निर्धारण के तीन सिद्धान्त हैं – १. संवादिता सिद्धान्त, २. संगति सिद्धान्त और ३. उपयोगितावादी या अर्थक्रियावादी सिद्धान्त । उपर्युक्त तीन सिद्धान्तों में हेमचन्द्र का सिद्धान्त अपने प्रमाण-लक्षण में अविसंवादित्व और अपूर्वता के लक्षण नहीं होने से, तथा प्रमाण को सम्यगर्थनिर्णयः के रूप में परिभाषित करने के कारण, सत्य के संवादिता सिद्धान्त के निकट हैं । इस प्रकार आचार्य हेमचन्द्र ने प्रमाण-लक्षण-निरूपण में अपने पूर्वाचार्यों के मतों को समाहित करते हुए भी एक विशेषता प्रदान की है । प्रमाण लक्षण निरूपण में यही उनका वैशिष्ट्य है । - प्राच्य विद्यापीठ, दुपाडा रोड, शाजापुर (म.प्र.) ४६५००१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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