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अनुसन्धान-६२
"पूरण-गलन यावद्दव्यभावी न होवाथी ओ 'गुण' शी रीते कहेवाय?"
"बहिरिन्द्रियैर्गृह्यते इति ग्रहणं अम कर्म अर्थमां अनट् प्रत्यय लागीने आ 'ग्रहण' शब्द बन्यो छे. अर्थात् बहिरिन्द्रिय वडे जेनुं ग्रहण (-ज्ञान) थाय ओवा गुण ओ ग्रहणगुण. वर्ण, गन्ध, रस अने स्पर्श आवा गुणो छे. माटे आ वर्ण, गन्ध, रस अने स्पर्श से पुद्गल-गुणो छे अम समजवू.'
"ओक ज शब्दथी चारेनो उल्लेख थई जाय ओवी गणतरीथी ओ चारनो अलग अलग उल्लेख न करतां मात्र 'ग्रहण' शब्दनो उल्लेख को होय अवी आपणे कल्पना करी शकीओ.". _ "बाकी सौथी महत्त्वनी वात ओ छे के आगळ उपर ग्रन्थमां पुद्गलना गुण तरीके क्यांय पूरण-गलननो उल्लेख नथी. पण कृष्ण-गौर वगेरे वर्णादिनो ज छे... आ बाबत पण निश्चित करे छे के कृष्णादि वर्णो ज गुणरूपे अभिप्रेत छे."
हवे, कृष्णादि वर्णो के मधुरादि रस व. पुद्गलना गुण जरूर छे, पण अहीं 'ग्रहण' शब्दनो आवो अर्थ करवो वाजबी छे के नहीं ते प्रश्न थाय छे. वर्णादि चारने सूचववा माटे आ ज रासमां – टबामां उपाध्यायजीओ 'रूपरसादिक' जेवा शब्दो प्रयोज्या ज छे, तो अत्रे शा माटे तेने सूचववा 'ग्रहण' अवो क्लिष्ट प्रयोग करे ? वळी, आगमोमां पुद्गलना गुण तरीके 'ग्रहण' सूचवाय त्यारे तेनो अर्थ टीकाकार क्यारे पण वर्णादिपरक नथी करता- "गुणओ गहणगुणे (-पोग्गलत्थिकाए)" - भगवती-२.१०.११७
टीका - "गहणगुणे त्ति ग्रहणम्- औदारिकादिशरीरतया ग्राह्यता इन्द्रियग्राह्यता वा वर्णादिमत्त्वात्, परस्परसम्बन्धलक्षणं वा, तद् गुणो- धर्मो यस्य स तथा ॥" "गुणओ गहणगुणे" - स्थानाङ्ग-४४१ टीका - "गहणगुणेत्ति ग्रहणं- परस्परेण सम्बन्धनं, जीवेन वा,
औदारिकादिभिः प्रकारैरिति ॥" "पोग्गलत्थिकाए णं जीवाणं ओरालिय-वेउव्विय-आहारए तेयाकम्मए सोइंदिय-चक्खिंदिय-घाणिदिय-जिब्भिदिय-फार्सिदिय-मणजोग-वयजोग
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