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ओगस्ट
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को परोक्ष तथा अवधि, मनपर्यव तथा केवलज्ञान को प्रत्यक्ष कहा गया है यह स्पष्ट है कि जैनों ने लगभग पांचवीं शताब्दी में ही ऐन्द्रियप्रत्यक्ष को, जो कि पूर्व में परोक्ष ज्ञान के अन्तर्गत ही आता था, लोक परम्परा का अनुसरण करते हुए सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष नाम दिया । इस प्रकार प्रत्यक्ष के दो विभाग सुनिश्चित हुए - सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष और पारमार्थिकप्रत्यक्ष । इनमें पारमार्थिकप्रत्यक्ष को आत्मिकप्रत्यक्ष और सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष को ऐन्द्रियप्रत्यक्ष भी कहा गया । परोक्ष प्रमाण के विभागों की चर्चा परवर्ती काल में उठी थी । दिगम्बर परम्परा में अकलङ्क ने प्रायः आठवीं शती में और श्वेताम्बर परम्परा में सिद्धऋषि ने लगभग नवीं शताब्दी में परोक्ष प्रमाण के पाँच भेद किये, जो क्रमश: इस प्रकार है (१) स्मृति, (२) प्रत्यभिज्ञान ( पहचानना ), (३) तर्क, (४) अनुमान और (५) आगम । दिगम्बर परम्परा में आचार्य अकलङ्क ने भी प्रत्यक्ष को मिलाकर अपनी कृतियों में छः प्रमाणों की चर्चा की थी (१) प्रत्यक्ष, (२) स्मृति, (३) प्रत्यभिज्ञान, (४) तर्क, (५) अनुमान और (६) आगम । किन्तु इस व्यवस्था के पूर्व जैनों में भी प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम या शब्द ऐसे तीन ही प्रमाण माने गये थे । यद्यपि
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जैन आगमों ने उपमान को प्रमाण के रूप में स्वीकार किया था, किन्तु कालान्तर में इसका अन्तर्भाव अनुमान में करके स्वतन्त्र प्रमाण के रूप में इसका परित्याग कर दिया गया था । जहाँ तक भारतीय चिन्तन का प्रश्न है उसमें सामान्यतया जैनों को तीन प्रमाण मानने वाला ही स्वीकार किया गया है । भारतीय चिन्तन में प्रमाणों की संख्या सम्बन्धी चर्चा को लेकर विभिन्न दर्शनों में इस प्रकार की व्यवस्था रही है
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प्रत्यक्ष
(१) चार्वाक (२) वैशेषिक एवं बौद्ध दर्शन (३) सांख्य एवं प्राचीन जैन दर्शन
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या शब्द (४) न्यायदर्शन १. प्रत्यक्ष २. अनुमान ३. शब्द और ४. उपमान (५) मीमांसादर्शन (प्रभाकर सम्प्रदाय)
१. प्रत्यक्ष २. अनुमान ३. शब्द
४. उपमान और ५. अर्थापत्ति
(६) मीमांसादर्शन का भाट्ट सम्प्रदाय और वेदान्त
१. प्रत्यक्ष और २. अनुमान
१. प्रत्यक्ष २. अनुमान और ३. आगम
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१. प्रत्यक्ष २. अनुमान
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