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३. शब्द ४. उपमान ५. अर्थापत्ति और ६. अभाव
प्रमाण लक्षण
सामान्यत: प्रमाण शब्द से प्रमाणिक ज्ञान का ही अर्थबोध होता है । किन्तु कौनसा ज्ञान प्रमाणिक होगा इसके लिये विभिन्न दर्शनों में प्रमाण के लक्षणों का निरूपण किया गया है । सामान्यतः उस ज्ञान को ही प्रमाण माना जा सकता था, जो ज्ञान किसी अन्य ज्ञान या प्रमाण से खण्डित न हो, और वस्तु के यथार्थ स्वरूप को प्रकट करे । किन्तु कालान्तर में प्रमाण के लक्षणों की चर्चा काफी विकसित हुई । सामान्यतः इसमें प्रमाण के स्वरूप को लेकर दो वर्ग सामने आये प्रथम वर्ग में नैयायिकों ( न्यायदर्शन) का कहना यह था कि प्रमाण वह है जो पदार्थ को उसके यथार्थ रूप में जानता हो, किन्तु इसके विपरीत दूसरे वर्ग में बौद्धों का कहना यह था कि प्रमाण वह है जो अपने स्वानुभूत ज्ञान को ही प्रामाणिक रूप से जानता है । इस दूसरे वर्ग ने प्रमाण के सम्बन्ध में यह निश्चित किया कि स्वानुभूत 'ज्ञान ही प्रमाण है ।' इस प्रकार प्रमाण - लक्षण के सन्दर्भ में पुन: दो मत देखे जाते है । बौद्धों ने ज्ञान को प्रमाण मानकर भी ज्ञानाकारता / तदाकारता को प्रमाणरूप माना, जबकि जैनों ने इस तदाकारता का खण्डन करके स्व पर प्रकाशक ज्ञान को प्रमाणरूप माना । नैयायिकोंका कहना था कि ज्ञान 'पर' ( पदार्थ) प्रकाशक है, अर्थात् ज्ञान के करण (साधन) ही प्रमाण होते हैं । वे "इन्द्रियार्थसन्निकर्ष" को प्रमाण मानते थे । जहाँ तत्त्वार्थसूत्र में जैनों ने " तत् प्रमाणे " कहकर ज्ञान को प्रमाण मानने के मत का समर्थन किया था, वहाँ नैयायिकोने ज्ञान के करण अर्थात् साधन-इन्द्रिय और पदार्थ के सन्निकर्ष अर्थात् संयोग को ही प्रमाण माना । यद्यपि बौद्ध और जैन दोनों ज्ञान को ही प्रमाण मानते थे । जैनों के अनुसार, न तो बौद्धों द्वारा मान्य ज्ञान में वस्तु की चेतना जो तदाकारता बनती है, वही ज्ञानरूपता प्रमाण है, और न नैयायिको द्वारा मान्य 'इन्द्रियार्थसन्निकर्ष' ही प्रमाण है । जैनाचार्यों ने इस सम्बन्ध में बौद्धों और नैयायिकों दोनों की आलोचना की । नैयायिकों के मत के अनुसार प्रमाण 'पर' ( पदार्थ) का प्रकाशक अर्थात् पदार्थ का ज्ञान कराने वाला होता है, जबकि बौद्धों ने यह माना था कि प्रमाण 'स्व' का अर्थात् अपने ज्ञान का ही ज्ञान कराता है, अर्थात वह स्व-प्रकाशक है । इस प्रकार प्रमाण के लक्षण में दो प्रकार की
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