Book Title: Anusandhan 2013 09 SrNo 62
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 97
________________ अनुसन्धान-६२ परम्परा के अभयदेवसूरि ने सिद्धसेन के सन्मतितर्क पर वादमहार्णव नामक विशाल टीकाग्रन्थ की रचना की । इसी क्रम में दिगम्बर आचार्य अनन्तकीर्ति ने लघुसर्वज्ञसिद्धि, बृहद्सर्वज्ञसिद्धि, प्रमाणनिर्णय आदि दार्शनिक ग्रन्थों की रचना की थी। इसी कालखण्ड में श्वेताम्बर परम्परा में आचार्य वादिदेवसूरि हुए । उन्होंने प्रमाणनयतत्वालोक तथा उसी पर स्वोपज्ञ टीका के रूप में स्याद्वादरत्नाकर जैसे जैन न्याय के ग्रन्थों का निर्माण किया । उनके शिष्य रत्नप्रभसूरि ने प्रमाणनयतत्त्वालोक पर टीका के रूप में रत्नाकरावतारिका की रचना की थी। इन सभी में भारतीय दर्शनों एवं उनके न्यायशास्त्र की अनेक मान्यताओं की समीक्षा भी है । १२वीं शताब्दी में हुए श्वेताम्बर आचार्य हेमचन्द्र ने मुख्य रूप से जैन न्याय पर प्रमाणमीमांसा (अपूर्ण) और दार्शनिक समीक्षा के रूप में अन्ययोगव्यच्छेदिका ऐसे दो महत्त्वपूर्ण दार्शनिक ग्रन्थों की रचना की । यद्यपि संस्कृत व्याकरण एवं साहित्य के क्षेत्र में उनका अवदान प्रचुर मात्रा में है, तथापि हमने यहाँ उनके दार्शनिक ग्रन्थों की ही चर्चा की है। यद्यपि १३वीं, १४वीं, १५वीं और १६वीं शताब्दी में भी जैन आचार्यों ने संस्कृत भाषा में कुछ दार्शनिक टीका ग्रन्थों की रचना की थी, इनमें स्याद्वादमञ्जरी एवं शास्त्रवार्तासमुच्चय एवं षट्दर्शनसमुच्चय की टीकाएँ मुख्य है । कुछ ग्रन्थ भी लिखे गये, फिर भी वे अधिक महत्त्वपूर्ण न होने से हम यहाँ उनकी चर्चा नही कर रहे हैं । १७वीं शताब्दी में श्वेताम्बर परम्परा में उपाध्याय यशोविजय नामक एक प्रसिद्ध जैन लेखक हुए, जिनके अध्यात्मसार, ज्ञानसार आदि दर्शन के क्षेत्र में अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । अध्यात्म के क्षेत्र में अध्यात्ममतपरीक्षा आदि तथा दर्शन के क्षेत्र में जैन तर्कभाषा, नयोपदेश, नयरहस्य, न्यायालोक, स्याद्वादकल्पलता आदि उनके अनेक ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं । उनके पश्चात् १८वीं, १९वीं और २०वीं शताब्दी में जैन दर्शन पर संस्कृत भाषा में कोई महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखा गया हो यह हमारी जानकारी में नहीं है । यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र की शैली पर आचार्य तुलसी के जैनसिद्धान्तदीपिका और मनोनुशासनम् नामक ग्रन्थों की संस्कृत भाषा में रचना की है, फिर भी इस कालखण्ड में संस्कृत भाषा में दार्शनिक ग्रन्थों के लेखन की प्रवृत्ति नहिवत् ही रही है।* * देखिये लेख के अन्त में टिप्पण । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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