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अनुसन्धान-६२
पर जिनविजयेन्द्रसूरि के नाम से श्रीपूज्य बने थे । इनके पश्चात् विनयप्रभ की परम्परा लुप्त हो गई है । स्तवनों की विशेषताएं
१. सीमन्धर स्वामी स्तवन - इसकी भाषा अपभ्रंश लगती है किन्तु है नहीं । अपभ्रंश-प्रभावित यह रचना अवश्य है । इसमें स्थान-स्थान पर अपभ्रंश के शब्द प्ररूपित किये गए हैं । पूर्व भव में श्रेष्ठ पुण्यों का संचय कर पुष्करावर्त नगर के राजा के यहां जन्म लिया । भरत क्षेत्र के कुन्थुनाथ
और अरनाथ के मध्यकाल में इनका जन्म लिखा है । सीमंधर स्वामी के गुणों का पूर्ण वर्णन किया गया है और उनसे याचना कि गई है कि तूं ही मेरी गति है, तूं ही मेरी मति है, तूं ही मेरा जीवन है और तुम्हीं मेरे पिता हो और तुम्हीं मेरे कर्ममल का नाश करने वाले हो । इसमें विनयप्रभ ने अपना नाम न देकर उपनाम बोधिबीज कहा है। कुल पद्य अपभ्रंश छन्द में इक्कीस पद में इसकी रचना की गई है।
२. इक्कीस स्थान गर्भित नेमिनाथ स्तवन - इसमें बाईसवें भगवान् नेमिनाथ का संक्षिप्त जीवन-चरित्र इक्कीस स्थानों से गर्भित रूप में दिया है। अपराजित देव लोक से तैतीस सागरोपम आयुष्य पूर्ण कर, शौरीपुर के राजा समुद्रविजय की पत्नी शिवादेवी की कुक्षी से जन्म लिया । श्रावण शुक्ला पञ्चमी को जन्म होने पर दिक्कुमारिकाओं द्वारा जन्मोत्सव मनाने के साथ पूर्णिमा के चन्द्र के समान आनन्द देने भगवान् का जन्मोत्सव इन्द्रादिक देवताओं ने मनाया । बलदेव और कृष्ण उनके चचेरे भाई थे । जिन्होंने जरासन्ध के बल का हरण किया था । तीन सौ साल तक गृहावस्था में रहे थे । यदुवंशियों के साथ मिलकर उग्रसेन की पुत्री राजीमती के साथ विवाह करने गये थे । पशुओं की पुकार सुनकर वापस लौट गये । लोकान्तिक देवों के द्वारा प्रतिबोधित होकर वर्षीदान देकर देवताओं के समूह के जय जयकार करते हुए रेवंतगिरि पर्वत पर जाकर श्रावण शुक्ल छठ को दीक्षा ग्रहण की थी। उस समय कन्या राशि चल रही थी । दूसरे दिन वरदत्त के यहाँ पारणा किया था । आश्विन शुक्ला अमावस्या के दिन चौपन दिन छद्मस्थावस्था में रहने के पश्चात् केवलज्ञान प्राप्त किया था । उस समय इन्द्रादिक देवताओं
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