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अनुसन्धान-६२
से सम्बन्धित है, उपाङ्ग साहित्य के शेष पांचो ग्रन्थ मूलतः कथात्मक ही है I इनके पश्चात् छेद सूत्रों का क्रम आता है । मूर्तिपूजक परम्परा छ: छेद ग्रन्थों को मानती है, जबकि स्थानकवासी और तेरापन्थी परम्परा में छेद सूत्रों की संख्या चार मानी गयी है । स्थानकवासी परम्परा के अनुसार दशाश्रुतस्कन्ध, बृहद्कल्प, व्यवहार और निषीथ ये चार छेद ग्रन्थ हैं, जो मूर्तिपूजक परम्परा को भी मान्य है । इन चारों का सम्बन्ध विशेष रूप से प्रायश्चित्त और दण्ड व्यवस्था से है । श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा को मान्य जीतकल्प और महानिशीथ – ये दोनों ग्रन्थ भी मूलतः तो प्रायश्चित्त और दण्डव्यवस्था से सम्बन्धित ही रहे है । अत: इन्हें किसी सीमा तक जैन आचारमीमांसा के साथ जोड़ा जा सकता है । मूलसूत्र और चूलिकासूत्रों में भी कुल मिलाकर छह या सात ग्रन्थों का समावेश होता है । इनमें उत्तराध्ययनसूत्र एक प्रमुख ग्रन्थ है, जो मुख्य रूप से जैन साधना और आचार व्यवस्था से सम्बन्धित है । किन्तु इसके २८ वे और ३६ वे अध्याय में जैन तत्त्वमीमांसा की चर्चा देखी जा सकती है । दशवैकालिकसूत्र मुख्यतः जैन मुनिजीवन की आचार व्यवस्था से सम्बन्धित है । इसके अतिरिक्त श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा के अनुसार मूल ग्रन्थों में उत्तराध्ययन, दशवैकालिक एवं आवश्यके के अतिरिक्त ओघनिर्युक्ति और पिण्डनिर्युक्ति को भी समाहित माना जाता है । ये दोनों ग्रन्थ जैन मुनि के सामान्य आचार और भिक्षाविधि से सम्बन्धित है, अत: किसी सीमा तक इनको भी जैन आचारमीमांसा के अंग माने जा सकते है । स्थानकवासी परम्परा में एवं मूर्तिपूजक परम्परा में चूलिकासूत्र के नाम से प्रसिद्ध नन्दीसूत्र और अनुयोगद्वार माने जाते है । इनमें नन्दीसूत्र मूलत: पांच ज्ञानों की विवेचना करता है, अत: इसे जैन ज्ञानमीमांसा के दार्शनिक ग्रन्थों के अन्तर्गत पांच ज्ञानों की विवेचना करता है, अत: इसे जैन ज्ञानमीमांसा के दार्शनिक ग्रन्थों के अन्तर्गत रखा जा सकता है । यद्यपि नन्दिसूत्र में जैन इतिहास के भी कुछ अर्ध खुले तथ्य भी समाहित है । अनुयोगद्वार सूत्र को जैन दार्शनिक मान्यताओं को समझने की विश्लेषणात्मक विधि कहा जा सकता है । जैन दार्शनिक प्रश्नों को समझने के लिये अनेकान्त नय और निक्षेप की अवधारणाएँ तो प्रमुख है ही, इसके अतिरिक्त अनुयोगद्वारों की व्यवस्था भी महत्त्वपूर्ण रही है । जैनदर्शन का निक्षेप का सिद्धान्त यह बताता
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