Book Title: Anekant 1984 Book 37 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 13
________________ शान्तिनाथ पुराण का काव्यात्मक वैभव भाषा - अगोचर घटनाओं अथवा भावों को यथासभव गोचर तथा मूर्त रूप में प्रकट करना एक श्रेष्ठ कवि का लक्ष्य होता है । तभी हृदय में उद्बुद्ध हुए भाव रसाबस्था तक पहुंचते है। भाषा, भावो को वहन करने का साधन है। जिस कवि की भाषा जितनी अधिक सबल और प्रसङ्गोचित होगी, भावो की उतनी अधिक तीव्र अनुभूति वह अपनी कविता के द्वारा करा सकेगा । अतः एब भाषा का सरल एव व्याकरण सम्मत होना अनिवार्य है। "शान्तिनाय पुराण" संस्कृत ग्रंथों मे श्रेष्ठ प्रतीक है। इसमे 'असग' ने रसानुकूल भाषा का प्रवाह प्रवाहित किया है । कवि के हृदय सागर में अनन्त शब्दो का भडार है जिससे उसे किसी अर्थ के वर्णन में शब्दों की कमी अनुभव नही होती भाषा किसी शिथिलता के बिना अजस गति से आगे बढ़ती है। इसका उदाहरण दर्शनीय है"प्रभो शान्तिः स्त्रियो लज्जा मौर्य शस्त्रोपजीविनः । विभूषणमिति प्राडुवंशम्यं च तपस्विनः ।। शा. पु. ४१३६ अर्थात् प्रभु का आभूषण क्षमा है, स्त्री का आभूषण लज्जा है, सैनिक का आभूषण शूरता तथा तपस्वी का आभूषण वैराग्य कहा गया है । महाकवि असम का भाषा पर पूर्ण अधिकार था। उन्होने जिस स्थल पर जिस प्रकार के भावो का चित्रण किया है। उसके अनुरूप ही भाषा का प्रयोग परिलक्षित सर्ग होता है। चतुर्थ मे युद्ध वर्णन प्रसङ्ग में शब्द योजना, कठोर ध्वनि युक्त युद्ध के बातावरण को उत्पन्न करने मे सहयोग देती है "सांननिक शंखं पूरयित्वा त्वरान्वितः। चतुरङ्गा तट सेनां सभ्रान्तां समनीनहत् ॥ बास्पानाल्लोसमा पत्या स्वावासान्येचरेश्वराः । अकाण्डं रणसंशोभादपि स्वरमदेशयन् ॥ था. पू. ४१८६-८७ कु० मृदुलकुमारी शर्मा अर्थात् शीघ्रता से युक्त सेनापति ने युद्ध सम्बन्धी फूककर बड़ाई हुई चतुरङ्ग सेना को तैयार किया। विद्याधर राजाओं ने सभा से लीला पूर्वक अपने पर जाकर असमय में युद्ध की हलचल होने पर भी स्वेच्छा से धीरे-धीरे कवच धारण किये । महाकवि असम में शब्द चयन की अपूर्व शक्ति है। भाषा उनकी इच्छा की अनुगामिनी है। वह अपने आप ही भावानुरूप ढल जाती है। समास प्रधान भाषा और संयुक्त वर्णयोजना ने काव्य को अत्यन्त ओजस्वी वना दिया है। नवम सर्ग में राजा वज्रायुध के गुणों की प्रशंसा में इसी प्रकार की भाषा द्रष्टव्य है "अमदः प्रमदोपेतः सुनयो विनयान्वितः । सूक्ष्मदृष्टिविशालाक्षो यो विभातिस्म सास्थितः ॥३१ अर्थात् मन्द मुस्कान युक्त जो पुत्र गर्व रहित होकर भी बहुत भारी गर्म सहित था ( पक्ष में हर्षयुक्त था), अच्छे नय से युक्त होकर भी नय के अभाव सहित पा ( पक्ष में विनय गुण से युक्त या), और सूक्ष्मनेत्रों से सहित होकर भी बड़े-बड़े नेत्रो से सहित था (पक्ष मे गहराई से पदार्थ को देखने वाला होकर भी बड़े-बड़े नेत्रों से सहित था। - असग ने भाषा मे शृगारात्मक हाव भाव विलासों का भी कलात्मक हृदयग्राही चित्र उपस्थित किया हैबेबरी: परितो बाति बुवन्नकवल्लरीः । एष तद्वदनामोदमादित्सुरिव मारुतः ॥ शा. पु. ३१२४ अर्थात् विद्यधारियो के चारो ओर उनकी केशरूपी लताओं को कम्पित करती हुई वायु ऐसी बह रही है, मानों उनके मुखों की सुगन्ध को ग्रहण करना चाहती हो। राजा को मुनि के रूप मे नाथ पुराण की भाषा दुरूह हो का वर्णन इसी प्रकार का है प्रदर्शित करते हुए चाविगई है। राजा मेघरथ

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