Book Title: Anekant 1940 06 07
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 10
________________ ४८८ अनेकान्त [ज्येष्ठ, आषाढ़, वीर-निर्वाण सं०२४६६ का निश्चय करना आवश्यक है, जिससे दो भागों लोग यह मानते हैं, कि कुरु पांचालीय वैदिकोंके में विद्यमान कतिपय मौलिक भिन्नताओंको समझा द्वारा अत्यंत उच्च माने गए वाजपेय यज्ञके स्थानमें जा सके । पार्योंके दो समुदायोंके मध्यमें विद्यमान राजसूय यज्ञ श्रेष्ठ है । ये कुछ कारण उन कारणोंमें . राजनैतिक तथा सांस्कृतिक भेदोंके सद्भावको से हैं जो पूर्वीय देशोंमें कुरु पांचालीय वैदिक ब्राह्मण-साहित्य स्पष्टतया बताता है । अनेक अव- ब्राह्मणोंका पर्यटन क्यों निषिद्ध है, इस विषयमें सरों पर पूर्वीय आर्यों के विरुद्ध पूर्षीय देशकी ओर बतलाए गए हैं। सेनाएँ ले जाई गई थीं । ब्राह्मण-साहित्यमें दो पंचविंशब्राह्मणके एक प्रमाणसे यह अनुमान अथवा तीन प्रधान बातोंका उल्लेख है, जो सांस्कृ- निकाला जा सकता है कि कुछ समय तक आर्योंतिक भिन्नताके लिए मनोरंजक साक्षीका काम के क्रियाकाण्ड विरोधी दलोंका विशेष प्राबाल्य देती हैं । काशी, कौशल, विदेह और मगधके था और वे लोग इन्द्र यज्ञके, जिसमें बलि करना पर्वीय देशोंमें व्यवहार करनेके सम्बन्धमें शतपथ भी शामिल था, विरुद्ध उपदेश करते थे। जो इन्दब्राह्मणमें पांचाल देशीय कट्टर ब्राह्मणोंको सचेत पूजा तथा यज्ञात्मक क्रियाकाण्डके विपरीत उपदेश किया गया है । उसमें बताया गया है कि कुरु देते थे, उन्हें मुंडित मुंड यतियोंके रूपमें बताया पांचाल देशीय ब्राह्मणोंका इन पूर्वीय देशोंमें जाना है। जब वैदिक दलके प्रभावसे प्रभावित एक बलसुरक्षित नहीं है, क्योंकि इन देशोंके आर्य लोग शाली नरेशके द्वारा 'इन्द्र यज्ञ' का पुनरुद्धार किया वैदिक विधि विधान-सम्बन्धी धर्मोको भूल गए हैं गया, तब इन यतियोंका ध्वंस किया गया और इतना ही नहीं कि उन्होंने बलि करना छोड़ दिया इनके सिर काट करके भेड़ियोंकी ओर फेंक दिये बल्कि उनने एक नए धर्मको प्रारंभ किया है, जिस गये थे । जैनेतर साहित्यमें वर्णित ये बातें विशेष के अनुसार बलि न करना स्वयं यथार्थ धर्म है। महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ये अहिंसाधर्मकी प्राचीनताकी ऐसे अवैदिक आर्योंसे तुम किस सन्मानकी आशा ओर संकेत करती हैं। कर सकते हो, जिन्होंने धर्मके प्रति आदर-सन्मान अब जैन साहित्यकी ओर देखिये, उसमें आप का भाव छोड़ दिया है । इतना ही नहीं, वेदोंकी क्या पाते हैं ? ऋषभदेवसे लेकर महावीर पर्यन्त भाषासे भी जिन्होंने अपना सम्पर्क नहीं रक्खा है। चौबीस तीर्थकर हैं, जो सब क्षत्रियवंशके वे संस्कृतके शब्दोंका शुद्धता पूर्वक उच्चारण नहीं हैं। यह कहा जाता है कि आदि तीर्थकर भगवान कर सकते । उदाहरणके तौर पर संस्कृतमें जहाँ ऋषभने पहले अहिंसा सिद्धान्तका उपदेश दिया ''आता है वहाँ वे 'ल' का उच्चारण करते हैं। था तथा तपश्चर्या अथवा योग द्वारा आत्मसिद्धी इसके सिवाय इन पूर्वीय देशोंके क्षत्रियोंने की ओर झानियोंका ध्यान आकर्षित किया था । सामाजिक महत्व प्राप्त कर लिया है, यहाँ तक कि इन जैन तीर्थंकरोंमें अधिकतम पूर्वीय देशोंसे वे अपनेको ब्राह्मणोंसे बड़ा बताते हैं । क्षत्रियोंके सम्बन्धित हैं । अयोभ्यासे ऋषभदेव, मगधसे नेतृत्वमें सामाजिक गौरवके अनुरूप पूर्वीय आर्य महावीर और मध्यवर्ती बावीस तीर्थकरोंका बहुधा

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