Book Title: Anekant 1940 06 07
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 31
________________ वर्ष ३, किरण :-] यति-समाज जैनधर्मको भी छोड़ बैठे तो कोई आश्चर्य नहीं है। किया जाना चाहिये। जो भो साधारण मयनि समाज इनसे असन्तुष्ट है, ये समाजसे । अतएव बनायें जायें वे पूरी मुस्तदीसे पालन किये करवाये सुधारकी परमावश्यकता है यह तो हर एक को जायँ । जो विरुद्ध आचरण करें उन्हें वहिष्कृत कर मानना पड़ेगा । यतिसमाजकी यह दशा आँखों समाजसे उनका सम्बन्ध तोड़ दिया जाय, इस देखकर विवेकी यतियोंके हृदयमें आजसे ३५ वर्ष प्रकार कठोरतासे काम लेना होगा। जो पालन न पूर्व ही सामूहिक सुधारकी भावना जागृत हुई थी, कर सकें वे दिगम्बर पंडितोंके तौर पर गृहस्थ खरतर गच्छके बालचन्द्राचार्यजी आदिके प्रयत्न बन जावें और उपदेशकका काम करें। के फलसे सं०१९६३ में उनकी एक कान्फ्रेन्स हुई एक विद्यालय,ब्रह्मचर्य आश्रम केवल यतिथी और उसमें कई अच्छे प्रस्ताव भी पास हुए शिष्योंकी शिक्षाके लिये खोला जाय । यहाँ पर थे यथा-(१) व्यावहारिक और धार्मिक शिक्षा अमुक डिग्री तक प्रत्येक यतिशिष्यको पढ़ना का सुप्रबन्ध (२) बाह्य व्यवहार शुद्धि (३) ज्ञानो. लाजिमी किया जाय, उपदेशकके योग्य पढ़ाईकी पकरणकी सुव्यवस्था ( हस्तलिखित ग्रन्थोंका न सुव्यवस्था की जाय । उनसे जो विद्यार्थी निकलें बेचना (४) संगठन (५) यति डायरेक्टरी इत्यादि; उनके खर्च आदिका योग्य प्रबंध करके उन्हें पर प्रस्तावोंकी सफलता तभी है जब उनका ठीक स्थान स्थान पर उपदेशकों के रूपमें प्रचार कार्यमें ठोक पालन किया जाय । पालन होने के दो ही मार्ग नियुक्त कर दें, ताकि उन्हें जैनधर्मको सेवाका हैं-(१) स्वेच्छा और (२) संघसत्ता । स्वेच्छासे सुयोग्य मिले । श्रावक समाजका उसमें काफी जो पालन करे वे तो धन्य हैं ही, पर जो न करें, सहयोग होना आवश्यक है । हम अपनी सद्उनके लिये संघसत्ताका प्रयोग करने लायक सुव्य- भावना एवं सहायतास ही गिरे हुये यतिसमाजको वस्थाका अभी तक अभाव ही है। उन्नत बना सकते हैं, घृणासे नहीं। उस कॉन्फ्रेंसका दूसरा अधिवेशन हुआ या आशा है कि जैनसमाजके कर्णधार एवं नहीं, अज्ञात है। अभी फिर सं० १९९१ में बीका- उन्नतिकी महद् आकाँक्षा वाले विद्वान् यति नेर राजपूताना प्रांतीय यति-सम्मेलन हुआ था श्रीपूज्य मार्गविचार-विनिमय द्वारा भविष्यको और उसका दूसरा अधिवेशन भी फलौदीमें हुआ निर्धारित करने में उचित प्रयत्न करेंगे। था, पर सभी कुछ परिणाम शून्य ही रहा । अस्तु । मैंने यह निबंध द्वेषवश या यतिसमाजको अब भी समय है कि युगप्रधान जिनचन्द्र नीचा दिखलाने की भावनासे नहीं लिखा । मेरे सूरिजीकी तरह X कुछ सत्ता बलका भी प्रयोग हृदयमें उनके प्रति सद्भावनाका जो श्रोत निरन्तर x देखें, हमारे द्वारा लिखित युगप्रधान जिन- प्रभावित है उसके एवं उनकी अवनतिको देख चन्द्र सूरि' ग्रन्थ । उन्होंने जो साध्वाचार न पालन कर जो परिताप हुआ, उसको मार्मिक पुकारसे कर सके, उन्हें गृहस्थवेष दिलवा मथेरण बनाया जिससे विवश होकर ही इस प्रबंधको मैंने लिखा है। साधु-संस्था कलंकित न हो। आशा है पाठक इसे उसी दृष्टिसे अपनावेंगे और

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