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अनेकान्त
अर्थात् जो सम्यकदृष्टि है, स्थितप्रज्ञ है, स्थिर बुद्धि है, समदर्शी है, योगी है, श्रास्तिक्य- प्रशम-संवेग अनु कम्पा गुण वाला है। निशंकित आदि श्रष्ट अङ्ग वाला त्रिमूढता और अष्ट मद रहित है, त्रिशल्यसे खाली है, मैत्री-प्रमोद-करुणा, माध्यस्थ भाव से भरा है, अविरोध रूपसे धर्म-अर्थ-काम- पुरुषार्थोंकी सेवा करने वाला है, वही धर्म-मार्ग पर चल सकता है, वही वास्तव में धर्मात्मा है, वही सुखका अधिकारी है ।
[ ज्येष्ठ, आषाद, वीर निर्वाण सं०२४६६
भिन्न और जीवन ही कौनसा है ? इस इन्द्रिय-ज्ञान से भिन्न और ज्ञान ही कौनसा है ? इस लोकको छोड़ कर और किधर जाये ? इस जीवनको छोड़ कर और किधर लखाये ? इस ज्ञानको छोड़कर और किसका सहारा ले ? इस तरह देखता जानता हुआ यह बहिरात्मा बना है । यह नास्तिक बना है । अपनेसे विमुख बना है । इस प्रकार सक्ति में पड़ा है, परासक्ति में रत 'है' परासक्ति में प्रसन्न है, उसके लिए दुःखको साक्षात् करना, दुःखके कारणों को समझना, दुख-निरोधका • संकल्प करना, दुःख-निरोधके मार्ग पर लगना बहुत कठिन है । जो इस प्रकार इन्द्रिय बोधको ही बोध मानता है, इन्द्रिय प्रत्यक्षको ही वस्तु मानता है, उसके लिये श्रदृष्टमें विश्वास करना, श्रदृष्ट के लिये उद्यम
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करना बहुत मुशकिल है ।
लोक विमूढ़ है:
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जहाँ धर्म तत्त्व इतना सूक्ष्म है, धर्म-मार्ग इतना . कठिन है, वहाँ यह लोक अन्धा है, यहाँ देखने वाले बहुत थोड़े हैं † । यहाँ जीवन अनादि की भूलभ्रान्ति से ढका है, अविद्यासे पकड़ा हुआ है, मोहसे प्रसा हुआ है, यह अपने को भुलाकर परका बना हुआ है, अपनेको न देखकर बाहिरको देख रहा है, अपनेको न टटोलकर बाहिरको टटोल रहा है, अपनेको म पकड़ कर बाहिरको पकड़ रहा है। इसकी सारी रुचि, सारी श्रासक्ति, सारी शक्ति बाहिरकी ओर लगी हुई है, सारी इन्द्रियाँ बाहिर को खुली हुई है, सारी बुद्धि बाहिर में घसी हुई है, सारे ara बाहिरको फैले हुए हैं ।
इसके लिये इस दिखाई देने वाले लोकसे भिन्न और लोक ही कौनसा है ? इस सुख दुःख वाले जीवन से
+ अन्धभूतो अयं लोको तनुकेरथ विपस्सति
- धम्मपद ॥ १०४ + (अ) “पराचि खानि ततुणत् स्वयम्भूस्तस्मात् पराङ् पश्यति नान्तरात्मन - कठ० उप० ४. १. (श्रा) बहिरात्मेन्द्रियद्वा रैरात्मज्ञानपराङ्मुखः । स्फुरितः स्वात्मनो देहमात्मत्वेनाध्यवस्यति ॥
- समाधितंत्र ॥ ७ ॥
धर्म दृष्टि लोक दृष्टिसे भिन्न है :
लोककी इस दृष्टिमें और धर्मकी दृष्टि में बड़ा अंतर है ज़मीन आस्मानका अन्तर है । इनमें यदि कोई समानता है तो केवल इतनी कि दोनोंका अन्तिम उद्देश्य एक है - दुख-निवृत्ति, सुख-प्राप्ति | इसके . श्रुतिरिक्त दोनों में विभिन्नता ही विभिन्नता है । दोनोंकी सुख-दुःख की सीमाँसा भिन्न है। दोनोंका निदान भिन्न है । दोनों का निदान साधन भिन्न है। दोनोंकी चिकित्सा भिन्न है दोनोकी चिकित्सा-वित्रि भिन्न है और दोनोंके स्वास्थ्यमार्ग मित्र हैं
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पहिली दृष्टि प्रानन्द, सुन्दरता, वैभव और शक्ति का आलोक बाह्य जगतमें करती है, दूसरी इनका + कठ० उप० २. ६; तैत० उप०२. ६.१. + मोच प्राभृत ॥ ८, ११ ॥ योगसार ॥ ७ ॥ * मज्झिमनिकाय २६वां सुत्त ।