Book Title: Anekant 1940 06 07
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 77
________________ वर्ष ३, किरण ८-१] धर्म बहुत दुर्लभ है आलोक अन्तरात्मा में करती है । पहिली बाह्य लोकको उच्चगति-नीचगतिके करने वाले हैं . । आत्मा ही महान् और आशावान मानती है। दूसरी अन्तःलोकको संसारका हेतु है, आत्मा ही संसारका उच्छेदक है, महान् और आशावान ठहराती है । पहिली. बाह्यलोकके श्रात्मा ही श्रात्माका मित्र है, अात्मा ही आत्माका प्रति कामना, आसक्ति, परिग्रहका व्यवहार करना शत्रु है । सिखाती है। दूसरी बाह्य लोकके प्रति प्रशमता, उदा. पहिलेके लिए दुःख का कारण बाह्य शक्तिका सीनता और त्यागका वर्ताव बतलाती है। कोप है. देवी-देवताओंका प्रकोप है, ईश्वरका प्रकोप पहिलीकी भावना है धन-धान्यकी प्राप्ति, सन्तानकी है, दूसरी के लिए दुःख का कारण स्वयं आत्माकी दूषित प्राप्ति, दीर्घ आय की प्राप्ति, आरोग्यकी प्राप्ति, पितलोक वृत्ति है, उसकी अपनी विपरीत श्रद्धा, अज्ञान अविद्या, और स्वर्ग लोककी प्राप्ति है। दूसरीकी भावना है सत् मोह-तृष्णा है । की प्राप्ति, ज्ञानकी प्राप्ति, उच्चताकी प्राप्ति, अनन्तकी प्राप्ति, अक्षय सुखकी प्राप्सि, अमृतकी प्राप्ति, अपवर्ग धमका भाग - धर्मका मार्ग लोक मार्गसे भिन्न है:--... की प्राप्ति है। . पहिलीके लिए दुःख निवृत्तिका उपाय दुःखविस्मृति - पहिलीके लिये प्रश्न हल करनेका साधन, तत्त्व- है, अज्ञान है, निद्रा-तन्द्रा है, सुरापान है। दूसरीके निर्णय करने का प्रमाण इन्द्रिय-ज्ञान है, बुद्धि-ज्ञान है, लिए दुःख निवृतिका उपाय शान है। दुःख को साक्षात् दुसरीके लिये जाननेका साधन, निर्णय करनेका प्रमाण करना है, दुःख के कारणोंको जानना है,उन कारणोंका अन्तर्ज्ञान है, श्रुतज्ञान है। विच्छेद करना है। पहिलो के लिए जीवनका विधाता, श्रात्मासे भिन्न, पहिलीके लिए दुःख निवृत्तिका उपाय बाम शमात्मा बाहिर प्राकृतिक शक्ति है-शक्तियोंके अधि- क्तियों-देवी-देवताओं ईश्वरकी-याचना-प्रार्थना है, ष्ठावा देवी देवता हैं,देवी देवताओं के नायक ईश्वर है। पूजा वंदना है, भक्ति-उपासना है । दूसरीके लिए दुःख दूसरीके लिए जीवनका विधाता-जीवनका अधिष्ठाता निवृत्ति का उपाय प्रारम-विश्वास है, श्रात्म-पुरुषार्थ स्वयं श्रात्मा है, आत्माके ही शुभाशुभ भाव हैं, शुभा- है, आत्म-शक्ति है । जो श्रात्माकी शरण जाता है, शुभ कर्म हैं । ये ही जीवनमें सुख-दुःख, उत्थान-पतन आत्माके लिए ही सब कुछ समर्पण करता है, वह अथर्व ६. १२०.३ । यज० ११.३० । अग्वेद दुख नहीं पाता है । जो बाह्य देवी देवताओंकी उपा-- १०.१६१.४ । अथर्व १२.१। धम्मपद ॥ १६५ ।।, सामायिकपाठ ॥ ३० ॥ * (अ) असतो मा सद् गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, समयसार ।। १०२ ॥ कोशिकी. उप. १.२, कठ. मृत्योर्मा अमृतं गमयेति-छा० उप०८.१४ उप०.१.२, ७, श्वेताश्वतर उप० १.२३ (आ) अमृतस्य देवधारणो भूयासम्" गीता ६.५, विन्धप्रवचन १.३.. -तैत० उप०१.४.१. द्विादशानुप्रेक्षा ॥ ॥१॥

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