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ज्येष्ट आषाढ़ वीरनि० सं० २४६६
जून-जुलाई १९४०
LOHOTOS 1616101 OLD
अनेकान्त
FOOTOF98511001170010100170
सम्पादक
संचालक -
जुगलकिशोर मुख्तार
तनसुखराय जैन
कनॉट सर्कस पो० बो० नं० ४८ न्यू देहली ।
अधिष्ठाता वीर-सेवामन्दिर सरसावा (सहारनपुर) OFCHLOLOOLONGLOCK SLOLOLOLOLOLOLOLOGALOLOLOOMLONGOMO
ALOOLOOTCLOLOLOLMOOCOMENDOLOLOLOLOGALOOLOLCHOLLOLO
फूल से [ श्री घासीराम जैन ]
चार दिनकी चाँदनी में फूल ! क्योंकर फूलता है ? बैठकर सुखके हिंडोले हाय ! निश दिन झूलता है !
वर्ष १, किरण ८-९
वार्षिक मूल्य ३ रु०
Ore
आयगा जब मलय पावन
उड़ेगा सुख सुवासित, हाथ मल रह जायँगे माली
बनेगा शून्य उपवन !
फिर बता इस क्षणिक जीवन में अरे क्यों ता है ? देखकर लाली जगतकी काल निश्खदिन झूलता है
कर रहा श्रृंगार नव नव
नित्य नित्य सजा सजाकर
आज जो तेरे लिये सर्वस्व करते हैं निछावर, कल वही पद धूल में
गा रहा आनन्द-धुरपद प्रेम-वीणाको बजाकर ।
तेरे लिये फेंकें निरंतर
कालकी इसमें सदा रहती अरे प्रतिता है | स्वार्थ-मय लीला जगतकी मूर्ख ! क्योंकर हूलता है !
आज जो हर्षा रही पाकर तुझे सुकुमार डाली,
कल वही हो जायगी सौभाग्यसे बस हाय खाली !
आज तुम सुकुमारतामें
मग्न हो निश दिन निरंतर ।
विश्वका नाटक क्षणिक है
पलटते हैं पट निरंतर आज जो है कल उसी में - हो रहा सुविशाल अंतर !
है यही जगरीत क्षण क्षण सूक्ष्म और स्थूलता है ! है अभी अज्ञात इसमें "चन्द्र” क्या निर्मूलता है ?
एक क्षणभर में अरे !
हो जायगा अति दीर्घ अन्तर !
चार दिनकी चांदनीमें फूल क्योंकर 'फूलता है ?
CALOLOTOCALL MALOLOLOLOLOLOLOLOLOLOLOXOFOONOOMOTORLO.
मुद्रक और प्रकाशक - अयोध्याप्रसाद गोयलीय
A
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विषय-सूची
पृष्ठ
टाइटिल पर
४८१ ४८२ ४७८
४९४
४९८
५१०
१. फूलसे (कविता)
[ श्री घासीराम जैन 'चन्द्र' २. पात्रकेसरि-स्मरण ३. धर्मका मूल दुःखमें छुपा है [श्री जयभगवान वकील ४.. तामिल भाषाका जैन-साहित्य [प्रो० ए. चक्रवर्ती ५. जैनागमोंमें समय-गणना [श्री अगरचन्द नाहया ६. यति-समाज
[श्री अगरचन्द नाहटा ७. बावली घास
[श्री हरिशंकर शर्मा ८. अथेप्रकाशिका और पं० सदासुखजी [ पं० परमानन्दजी ९. सैनियोंकी दृष्टि में बिहार श्री पं० के. भुजबली शास्त्री १०. परिग्रहपरिमाण व्रतके दास दासी गुलाम थे [श्री नाथूराम प्रेमी ११. अमर मानव
[श्री सन्तराम बी.ए. १२. भूल स्वीकार
[श्री सन्तराम बी. ए. १३. गोम्मटसार-कर्मकाण्डकी त्रुटि-पूर्ति [५० परमानन्द . १४. धर्म बहुत दुर्लभ है [श्री जयभगवान वकील
५१४
५३३
५३५
५३७
- विनीत प्रार्थना पिछले माह, प्रेसकी अव्यवस्था और प्रबन्ध आदिमें परिवर्तनके कारण 'अनेकान्त' प्रकाशित नहीं हो सका । हमारे लिये यह प्रथम अवसर है कि जब अनेकान्त अपने कृपालु पाठकोंके पास निश्चित समय पर नहीं पहुँचा । अन्यथा हर माहकी अंग्रेजो २८ ता०को डिस्पैच हो जाता है। यह संयुक्त किरण लगभग प्रस्तुत पृष्ठों से दूनी होनी चाहिये थी किन्तु यथा समय मैटर न मिलनेके कारण इतने ही पृष्ठोंकी यह संयुक्त किरण प्रकाशित की जा रही है। इन पृष्ठों की पूर्ति भागामी तीन किरणोंमें अवश्य कर दी जायगी ऐसी विनीत प्रार्थना है।
-व्यवस्थापक
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वर्ष ३
क सामानह
अनेकान
नीति-विरोध-ध्वंसी लोक-व्यवहार-वर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥
सम्पादन-स्थान- वीर सेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम), सरसावा, जि० सहारनपुर प्रकाशन-स्थान – कनॉट सर्कस, पो० बो० नं० ४८, न्यू देहली ज्येष्ठ, आषाढ़ पूर्णिमा, वीरनिर्वाण सं०२४६६, विक्रम सं० १९६७
किरण ८-६
पात्र केसर-स्मरणा
भूभृत्पादानुवर्ती सन् राजसेवापराङ्मुखः ।
संयतोऽपि च मोक्षार्थी भात्यसौ पात्रकेसरी ॥ - नगरताल्लुक - शिलालेख नं ०४६
जो राजसेवासे पराङ्मुख होकर उसे छोड़कर — मोक्षके अर्थी संयमी मुनि बने हैं, वे पात्रकेसरी (स्वामी) भूभृत्पादानुवर्ती हुए —- तपस्या के लिये गिरिचरणकी शरण में रहते हुए - खूब ही शोभाको प्राप्त हुए हैं । महिमा सपात्र केसरिगुरोः परं भवति यस्य पद्मावती सहाया त्रिलक्षणकदर्थनं कर्तुम् ॥
भक्त्यासीत् ।
- श्रवणबेलगोल -शिलालेख नं०५४
जिनकी भक्ति से पद्मावती (देवी) 'त्रिलक्षणकदर्थन' करने में - बौद्धों द्वारा प्रतिपादित अनुमान विषयक हेतुके त्रिरूपात्मक लक्षणका विस्तार के साथ खण्डन करनेके लिये 'त्रिलक्षणकदर्शन' नामक ग्रंथके निर्माण करने में - जिनकी सहायक हुई है, उन श्रीपात्रकेसरी गुरुकी महिमा महान् है - असाधारण है । ྃ༔
भट्टा कलंक - श्रीपाल - पात्र केसरिणां गुणाः ।
विदुषां हृदयारूढा हारायन्ते ऽतिनिर्मलाः ॥ - श्रादिपुराणे, जिनसेनः
भट्टाकलंक और श्रीपाल श्राचार्योंके अतिनिर्मल गुणों के साथ पात्रकेसरी आचार्य के अतिनिर्मल गुण भी विद्वा-नोंके हृदयों पर हारकी तरहसे आरूढ हैं—विद्वजन उन्हें हृदय में धारणकर अतिप्रसन्न होते तथा शोभाको पाते हैं । विप्रवंशाप्रणीः सूरिः पवित्रः पात्रकेसरी |
स जीयाज्जिन पादाब्ज से वनैकमधुत्रतः ॥ - सुदर्शनचरित्रे, विद्यानन्दी
वे पवित्रात्मा श्रीपात्र केसरी सूरि जयवन्त हों -लोकहृदयों पर सदा अपने गुणोंका सिक्का जमाने में समर्थ हों - जो ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होकर उसके अम नेता थे और (बादको ) जिनेन्द्रदेव के पद-कमलोंका सेवन करने -वाले श्रसाधारण मधुमक्ष (के रूपमें परिणत हुए) थे ।
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'धर्मका मूल दुःखमें पा है ।
[ ले० - श्री जयभगवान जैन बी. ए. एलएल. बी. वकील ]
जीवनकी दो मूल अनुभूति —
शैशव
शव कालमें जीवन उज्ज्वल, अद्भुत, विस्मयकारी लीलामय दिखाई देता है और जगत नन्दकी रङ्गभूमि । यहाँकी हरएक चीज़ सुन्दर, सौम्य और आकर्षक प्रतीत होती है। जी चाहता है कि यहाँ हिलमिल कर बैठें, हँस-हँस कर खेलें रोष तोप से लड़ें और छलक छलक कर उड़ जायें ।
..
परन्तु ज्यों ज्यों जीवन की गति प्रौढता की ओर बढ़ती है, यह रङ्गभूमि और उसकी ललाम लीला start और घनावनी मूर्ति धारण करती चली जाती है । पद पद पर भान होने लगता हैजीवन दुःखमय है*, जगत निष्ठुर और क्रूर है, यहाँ मनका चाहा कुछ भी नहीं, सर्व ओर पराधीनता है, बहुत परिश्रम करने पर भी इष्ट की प्राप्ति नहीं और बहुत रोकथाम करने पर भी अनिष्टकी उपस्थिति अनिवार्य है । ..
यह जगत निस्सार है, केवल तृष्णाका हुंकार है । उसीसे उन्मत्त हुआ जीवन अगणित बाधा, अमित वेदना, असंख्यात आघात प्रघात सहता हुआ संसार•वन में घूम रहा है, वरना यहाँ सन्तुष्टिका,सुख शान्तिका कहीं पता नहीं । वही अपूर्णता, वही तृष्णा, वही वेदना हरदम बनी है। यह लोक
* मज्झिमनिकाय - १४१वाँ सूत्त
तृष्णा पूर्तिका स्थान नहीं, यह निर्दयी मरीचिका है । यह दूर दूर रहने वाला है । यह नितान्त अनाथ है। वह मूठ आशाके पासे बान्धबान्ध कर जीवनको मृत्युके घाट उतारता रहता है ।
यह जगत मृत्युसे व्याप्त है । सब ओर क्रन्दन और चीत्कार है। लोक निरन्तर कालकण्ठ में उतरा चला जा रहा है। भूमण्डल अस्थिपञ्जर
ढका है। पर, रुण्डमुण्ड पहिने हुए कालका अट्टहास उसी तरह बना है । यहाँ जीवन नितान्त अशरण है।
यहाँ कोई चीज़ स्थायी नहीं, जो आज है वह कल नहीं, अंकुर उदय होता है, बढ़ता है, पत्र पुष्प से सजता है, हँसता है, ऊपर को लखाता है; परन्तु अन्तमें धराशायी हो जाता है। यहाँ भोगमें रोग बसा है, यौवनमें जरा रहती है, शरीर में मृत्युका वास है । यहाँकी सब ही वस्तुएँ भयसे ht
प्रौढ अनुभूति और धर्म मार्ग
यह है प्रौढ अनुभूति, जो मानव समाज में "यदिदं सर्वं मृत्युना ऽऽप्तं, सर्व मृत्युनाऽभिप
. वृ६०३०] १. १. ३. द्वादशासुप्रेक्षा ॥ || धम्मपद २०१६1 भर्तृहरि वैराग्यशतक ॥ ३॥
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धर्मका मुख दुःखमें छुपा है ।
वर्ष ३, किरण 5-8 ]
धर्म-मार्गकी आविष्कारक हुई हैं । कोई युग ऐसा नहीं, कोई देश ऐसा नहीं जहाँ इस प्रौढ अनुभूति का उदय न हुआ हो और इसके साथ साथ जीवन के अलौकिक आदर्श और तत्प्राप्ति के लिये धर्ममार्गका जन्म न हुआ हो । वैदिक ऋषियोंकी यह अनुभूति वैदिक साहित्योक्त यम, मृत्यु व काल विवरण में छुपी है * । असुर लोगोंकी यह अनुभूति प्रचण्ड भीषण रुद्र, और नाम सभ्यताके रूपमें हम तक पहुँची है | लिंगायत लोगों में यह रुद्रकी मूर्ति और शिव ताण्डव नृत्यमें अङ्कित है + + और बंगालदेश के तान्त्रिक लोगों में काली कराली चण्डी दुर्गाके चित्रमें चित्रित है । औपनिषदिक कालमें यही अनुभूति “ब्रह्म सत्य हैं और नाम-रूप कर्मात्मक्र जगत असत्” है . इस सत्यासत्यवाद में बसी है† । यह अनुभूति आधुनिक वेदान्तदर्शन के मायावाद, तुच्छवाद में प्रकट है । । 'महाभारत' में यही अनुभूति मेधावी ब्राह्मण पुत्रके विचारों में गर्भित है । बौद्ध कालीन भारत में बुद्ध भगवान द्वारा बतलाये हुये चार आर्य सत्योंमें और वीर
**
·
A. C. Das - Rigvedic Culture 1925 p. 396. अथर्ववेद १६.५३; १३.५४; ऋग्वेद १०.१८. † R. G. Bhandarker Vaisnavesin & Saivana vesin 1928 pages 145-151.
$ R. Chanda The Indo Aryan Races. 1916
pages 136-138.
+ वृह उप० १.६.३. “घरमो एकः सम्नेतत् जयम्"
+ श्रीशंक्राचार्य - दश श्लोकी ॥ ३ ॥
4 महाभारत - शान्ति पर्व- १०२ वाँ अध्या
* दीघनिकाय - महासति पट्ठानसुत । संयुतनिकाय ५५-२-१.
भगवान् द्वारा बतलाई हुई द्वादश भावनाओं में इस अनुभूतिका आलोक होता है।
यों तो यह अनुभूति समस्त धर्म मार्गों की आधार है; परन्तु निवृत्ति परक दर्शनोंकी, श्रमणसंस्कृतिकी तो यह प्राण है । इसीलिये औपनिषदिक संस्कृति, वेदान्त, बौद्ध और जैनदर्शनों को समझने के लिये इसका महत्व अनुभव करना अत्यन्त आवश्यक है ।
४८३
जीवन के मूल प्रश्न
मनुष्य-जीवन में चाहे वह सभ्य हो, या असभ्य, धनी हो या निर्धन, पण्डित हो या मूढ, पुरुष हो या स्त्री, यह अनुभूति जरूर किसी समय आती है और उसके उज्ज्वल लोकको भयानक भावोंसे भर देती है । उस श्रातङ्क में वह सोचता है
"मैं कौन हूँ ? क्या मैं वास्तव में निरर्थक हूँ ? पराधीन और निस्सहाय हूँ ? क्या मेरा यह ही अन्तिम तथ्य है कि मैं मंगल कामना करते हुये भी दुःखी रहूँ, आशा रखते हुए भी आशाहीन बनूं, जीवन चाहते हुए भी मृत्युमें मिल जाऊँ ? यदि दुःख ही मेरा स्वभाव है तो सुखकी कामना क्यों ? यदि यह जीवन ही जीवन है तो भविष्य की आशा क्यों ? यदि मृत्यु ही मेरा अन्त है तो अमृत की भावना क्यों ? क्या यह कामना, आशा, भावना, सब भ्रम है, मिथ्या है, मेरा इनसे कोई सम्बन्ध नहीं ? क्या यह लोक ही मेरा लोक है, जहाँ इच्छाओं है, पुरुषार्थको विफलता है ? 'खून
* उत्तराध्ययन अध्याय १३ ।
श्री कुन्दकुन्दाचार्य द्वादशानुप्रेक्षा ।
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४८४
भनेकान्त:::... ज्येष्ठ, आषाद, वीर निर्वाण सं०२४६६
क्या यह लोक ही मेरे भाग्यका विधाता है ? क्या यदि प्यास न होती तो कौन खोजता जलाइस पर मेरा कोई अधिकार नहीं ? क्या इससे शय और कौन पाता जलकी शरण ? यदि सूर्य छुटकारेका कोई साधन नहीं ? क्या कोई लोक आताप न देता तो किसे भाती स्निग्ध छाया और नहीं, जहाँ स्वेच्छापूर्ति हो, आनन्दका निवास हो कौन जाता छायाकी शरण ? यदि संसार अनित्य और अमर जीवन हो!"
.. न होता, जीवन दुःखमय न होता तो कौन ढूढता
पारमार्थिक श्रादर्श और कौन जाता धर्मको शरणक। धर्म मार्गकी सृष्टि
यह दुःख अनुभूति ही संसारमें धर्म की रचजहाँ दुःख अनुभूतिने मनुष्य-मस्तिष्कमें जीवन यिता है । यह ही उसे विश्वास दिलाती है. कि जगत-सम्बन्धी इस प्रश्नावलीको, दर्शनशास्त्रकी जीवन निरर्थक नहीं ध्येयवान है, पराधीन नहीं इन गूढ समस्याओंको जागृत किया है, वहाँ इसी स्वतन्त्र है, मरणशील नहीं अमर है । यह ही ने मनुष्यको इनका हल खोजनेको भी उद्यत किया मनुष्य में मर्त्यलोकसे घृणा और अमृतलोककी है, इतना ही नहीं, इसीने मनुष्यको लोकके रूढिक लालसा पैदा करती है। यह ही मनुष्यको नीचेसे मार्गोको छोड़ अलौकिक मार्गों पर चलनेको भी ऊपर लखाना सिखाती है। यही उसे इस काराविवश किया है।
वाससे दूर जगमगाते ज्योतिआलोकमें अपनी यदि इन्द्रिय-सुखोंका कभी नाश न होता, इष्ट आशा लगानेको मजबूर करती है। । यही स्वप्नों वस्तु को पाकर उससे वियोग न होता, रोग और में बैठकर उस पितृलोककी, उस व्यन्तरलोककी जरासे शरीर जर्जरित न होता, उल्लासमय यौवन सृष्टि करती है । जहाँ मरने पर मत्यलोक चले सदा बना रहता-मृत्युसे जीवन तन्तुका विच्छेद जाते हैं । जहाँ उन्हें अपने बिछुड़े हुए पूर्व पुरुषोंसे न होता तो संसारमें दुखका नाम भी न होता । अपने श्रद्धेय पितृगणसे भेंट होती है। जहाँ वह . यदि दुःख न होता तो इच्छा-भावना भी न होती, सब दोबारा मिल कर यमके साथ सानन्द खोज और तलाश भी न होती, उपाय और मार्ग जीवन बिताते हैं । * यही भावनाओंमें भर कर भी न होता *
* (अ) सुभाषित रस्नसन्दोह ॥ ३२ ॥ ___ जहाँ अनित्यता है वहीं दुःख है । जहाँ दुख है (मा) न स्नेहाच्छरणं प्रयोति भगवन् पादयं ते प्रजाः
___ हेतुस्तत्र विचित्रदुःखनिचयः संसारपोरार्णवः । वहीं भावना है । जहाँ भावना है वहीं आवश्यकता
अत्यन्तस्फुरदुअररिमनिकर ज्याकीर्णभूमण्डलो, है। जहाँ आवश्यकता है वहीं खोज है । जहाँ
प्रैष्मः कारयतीन्दुपादसलिलच्छायानुरागं रविः ।। खोज है वहीं मार्ग है । जहाँ मार्ग है वहीं प्राप्ति है। अनन्तकीर्ति-सामायिकपाठ-श्लोक.. • सुभाषितरत्नसत्ओह ॥-३२१ ॥ .. .......
ऋग्वेद-मं० १०, सू०१४, १५, १६ व १८. * "For everyone that asketh receiveth !
ऋग्वेद , ...100... १५४. and he that seeketh: findethyand : to:laim that $ Lord Avebury Origin of civilisation 1912
p.209 knoeketh, it shall be genel'se
Sir Radha Krishnan Indian Philosophy Bible-St Matthew, 7-8. Vol. I p. 114.
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वर्ष ३, किरण .]
। धर्मका मूल दुःखमें छिपा है।
उस स्वर्गलोककी रचना करती है,जहाँ देश, जाति, अमृतका सरोवर अन्धकारसे ढका है । जो दुःखसे
और विश्वके हित, दान, सेवा करने वाले, प्राणों न डर कर इसके अन्दर मर्मको देखने वाले हैं, की आहूति देने वाले मनुष्य मर कर जन्म लेते जो अन्धकारसे न घबराकर इसके अन्दर लखाने हैं । जहाँ पूजा प्रार्थना, स्तुति बन्दना, यज्ञ हवन वाले हैं वे ही वास्तवमें सुखलोकके अमतलोकके करने वाले, भक्तजन पैदा होते हैं छ । जहाँ दुःख अधिकारी हैं। केशको सहन करने वाले, व्रत उपवासका पालन करने वाले,भव्यजन अपना धाम बनाते हैं। । दुख अयस्कर ह
Hd दुःख श्रेयस्कर हैजहां वह देवता स्वरूप अमितकाल तक स्वेच्छा- दुःख जीवनके लिये भयानक ज़रूर है, पूर्वक आकाशचारी हो विचरते हैं।
अरुचिकर जरूर है; परन्तु यह जीवनके लिये - यही वेदना जीवनको बाहरसे अन्दरकी अनिष्टकर नहीं, बाधक नहीं, शत्रु नहीं । यह तो ओर आने, शान्तचित हो चिन्तवन करनेकी जीवनका परमहितैषी है, परम पुत्र है । यह जीवन प्रेरणा करती है । यही जीवनको शरीर को सचेत करने वाला है, उसकी वास्तविक दशा
पोषण, विषयभोग, इच्छापूर्तिके रूढिक मार्गको को ठीक ठीक सुझाने वाला है, उसे भूलभुलैय्या, .. छोड़ने, रीतिनीति, त्यागसंयम, शील-सहिष्णुता, धोके फरेबसे बचाने वाला है। यह स्वार्थी नहीं,
दान-सेवा, प्रेम-वात्सल्यका मार्ग अपनानेकी खुशामदी नहीं, यह उसके अज्ञानसे लाभ उठा, शिक्षा देती है। यही जीवनमें उस दिव्य आलोकको हाँ में हाँ मिलाने वाला नहीं। यह उसके झूठे रूप पैदा करती है, जो रोगशोक आताप-सन्तापसे की प्रशंसा कर, उसे खुश करने वाला नहीं । यह दुःखी हृदयको शान्त्वना देता है,जो दुर्दैव,अन्याय तो स्पष्ट कहने वाला है । यह दर्पण तुल्य सरल अत्याचारसे पीडित प्राणोंको धैर्य और शान्तिसे और सच्चा है । यह पुरानीसे पुरानी कल्पित भरता है। यह दिव्य आलोक ही जीवनकी परम मान्यताओंको मिथ्या कहने वाला है, गाढसे गाढ आकांक्षा है । इसके रहस्यका उद्घाटन ही इसके सत्यार्थको असत्यार्थ कहने वाला है । बड़ीसे बड़ी गढ़ विचारको पराकाष्ठा है । इसकी सिद्धि ही बुद्धिमानीको विमूढ़ता कहने वाला है । इसीलिये इसके सतत् पुरुषार्थका परम उद्देश्य है । यदि भयानक है। यह किरणके समान अज्ञान-तन्तुका जीवनको इस आलोकसे वश्चित कर दिया जाये, भेद करने वाला है । यह नश्तरके समान मोहरोग तो जीवन जीने के काबिल नहीं रहता, वह एक पर चोट करनेवाला है। इसलिये यह अरुचिकर है। नीरस और भार बन जाता है।
दुःखका जीवन रचनामें वह है जो यह सुखका लोक दुःखके पीछे छुपा है । यह ज्वरका स्वास्थ्य रचनामें है। ज्वर स्वयं रोग नहीं,
ऋग्वेद ... १५४.३, गीता २.३७. रोसका उमादकता, याततरोगको चेतावनी * मुखक सीता २०, २१ है, जो प्रस्ताशियोंको गाती है। बातोसेगsti + तत्वार्यानिमम सूत्र इ. निरोधका है जो सासरको रोगसे निकाल
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अनेकान्त ....[ज्येष्ठ, प्राषाढ़, वीर-निर्वाण सं०२४६६.
स्वास्थ्यमें स्थापन करना चाहता है। ऐसे ही दुःख . मार्ग निकाल लेता है, वह मार्ग पर चलकर सदाके स्वयं अनिष्ट नहीं; अनिष्ट का उत्पादक नहीं, यह लिये कृतकृत्य हो जाता है, पूर्ण हो जाता है, अक्षयतो अनिष्टकी चेतावनी है, जो प्राणोंको खेंच खेंच सुखका स्वामी हो जाता है । परन्तु जो दुखकी कर, हृदयको मसल मसल कर, मनको उथल कटुतासे डर कर चुभे हुए शूलको तनसे नहीं पुथल कर निरन्तर मूलभाषामें पुकारता रहता निकालता भीतर बैठे हुए रोगके कारणोंका बहिहै-"उठो, जागो, होशियार हो, यह जीवन इष्ट कार नहीं करता, वह निरन्तर दुःखका भोग जीवन नहीं। यह जीवन की रुग्ण दशा है, वैभाविक करता रहता है। .. . . दशा है, बन्ध दशा है।" यह तो अनिष्ट निरोधका जो दुःखसे डर कर दुःखका : साक्षात् करना उद्यम है । जो यथा तथा जीवनको अनिष्टसे नहीं चाहता, उसके अनुभवोंसे प्रयोम करना नहीं निकाल कर इष्टमें स्थापन करना चाहता है ।।..चाहता, उसकी सुझाई हुई समस्यामोंको हल
इसीलिये संसारके सब ही महापुरुषोंने, करना नहीं चाहता, उसके जन्म देने वाले कारणों जिन्होंने सत्य का दर्शन किया है। जिन्होंने अपने पर-उसका अन्त करने वाले उपायों पर विचार जीवन को अमर किया है, जिन्होंने अपने आदर्श करना नहीं चाहता, जो धर्म-मार्ग पर चल कर से विश्व हितके लिये धर्ममार्गको कायम किया है, उन कारणोंका मूलोच्छेद करना नहीं चाहता, जो इस दुःखानुभूतिको अपनाया है, इसके आलोकमें केवल दुःखानुभूतिको भुलानेकी चेष्टामें लगा है रहकर अन्तःशक्तियों को लगाया है इसे श्रेयस और वह मूढ़ अपनी ठगाईसे खुद ठगा जाता है, कल्याणकारी कहा है।
बार बार जन्म-मरण करता हुआ दुःखसे खेद जो दुःखसे अधीर नहीं होता, इससे मुँह नहीं खिन्न होता है ! छुपाता, जो इसे सच्चे मित्रके समान अपनाता है, यदि जीवन और जगत्के रहस्योंको समझना इसके अनुभवोंके साथ प्रयोग करता है, इसकी है, लोक और परलोकके मार्गोको जानना है तो
आवाजको सुनता है, इसके पीछे पीछे चलता है, आत्माको प्रयोगक्षेत्र बनाओ, दुःख-अनुभवोंको वह जीवन-शत्रुओंको पकड़ लेता है, वह जन्ममरण प्रयोगके विषय बनाओ, इनका मथन और मनन के रोमका निदान कर लेता है, वह दुःखसे सुखका करने के लिये आत्मचिन्तवनसे काम लो।... * (4) क, उप २.१..... .
जैसे कमलका मूल पंकमें छुपा है, बसन्तका (भा) तत्त्वार्थ सूत्र है....... . मूल हिममें छुपा है, ऐसे ही धर्मका मूल दुःखमें (इ) मनुस्मृति ६.४७, ४८, २७
छुपा है। . . (६) Blessed are the poor it spirit;"for their पानीपत, ता०.२६-५-१९४० मी. is the knigdom of hdáveis Blessed are they
: that touin, for they-shall beiamforted. :: . . .: SARAM M ..
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तामिल भाषाका जैनसाहित्य
[लेखक-प्रोफेसर ए. चक्रवर्ती: एम. ए. आई. ई. एस, प्रिंसिपल कुंभ कोणम् कालेज] .. [अनुवादक-पं० सुमेरुचन्द्र जैन. दिवाकर न्मापतीर्थ शास्त्री, बी. ए. एलएन. बी. सिवनी ]
नामिल साहित्य पर सरसरी निगाह डालनेसे · बीचमें था। ऋग्वेद संहितामें भी हम ऋषभ तथा
यह बात बिदित होगी कि वह प्रारंभिक अरिष्टनेमिका उल्लेख पाते हैं, जिनमें पहले तो कालसे ही जैनधर्म और जैन-संस्कृतिसे प्रभावित जैनियोंके आदि तीर्थकर हैं और दूसरे बाबीसवें था। यह बात सुप्रसिद्ध है कि जैनधर्म उत्तर तीर्थकर जो श्रीकृष्णके चचेरे भाई थे। . भारतमें ही उदित हुमा था, अतएव उसका आर्य जब हम संहिताओंके कालको छोड़कर ब्राह्मण संस्कृतिसे सम्बन्ध होना चाहिये । जैन लोग कंब - 'ग्रंथोंके काल में प्रवेश करते हैं, तब हमें आर्य लोगों तो दक्षिणको गए तथा किस भाँति उनका मूल के इस पथक्करणक विषयमें और भी मनोरंजक तामिल-वासियोंसे सम्बन्ध हुआ, ये समस्याएँ बातें मिलती हैं। इस समय तक आर्य लोग गंगा ऐसी हैं जो अब सक भी अन्धकारमें हैं । किन्तु को घाटी तक चले गए थे और उन्होंने राज्य इन प्रश्नों पर कुछ प्रकाश डाला जा सकता है, स्थापित किए थे तथा काशी, कौशल, विदेह और यदि हम इस बात पर अपना ध्यान दौड़ावें कि मगध देशों में अपना स्थायी निवास बनाया था। सिंधुकी घाटीमें आयोंकी अवस्थितिके आदिकालसे इन देशों में रहने वाले आर्य लोग प्रायः पौर्वात्य ही उन आर्य लोगोंमें एक ऐसा वर्ग था जो बलि- आर्य कहे जाते थे। ये सिंधु नदीको तराई सम्बन्धी विधानका विरोधी था और जो अहिंसाके सिद्धांत - करू पांचाल देशों में बसने वाले पाश्चिमात्य आर्यों का समर्थक था। ऋम्बदके मंत्रों में भी इस बातको से भिन्न थे। ये लोग पूर्वके आर्योंकी अपनी प्रमाणित करने योग्य साक्षी विद्यमान है। ब्राह्मण अपेक्षा हीन समझ कर हीन दृष्टि से देखते थे, तरुण शुन:सेफ की-जो विश्वामित्र के द्वारा बलि कारण उनने कुरु. पांचालीय आर्योंकी कट्टरताका किये जानेसे मुक्त किया गया था, कथा एक मह. परित्याग किया था । पूर्वीय भाषाओं के वेत्ता यह त्व पूर्ण बात है। राजर्षि विश्वामित्र तथा बशिष्टका सुझाते हैं कि संभवतः गंमाको तराई सम्बन्धी द्वन्द्व संभवतः : उस महान विरोध प्रारंभको पूर्वीय आर्य आक्रमणकारी उन आर्योंकी प्रारंभिक बताता है जो ब्राह्मण ऋषियों के द्वारा संचालित लहरको सूचित करते हैं, जो सिंधुकी तराईमें बसी बलिदान विधायक सम्प्राय तथा वीर सत्रियों हुई आक्रमणकारी पाश्चिमात्य जातियोंसे पूर्व दिशा द्वारा संचालित बलिविरोगी अहिंसा सिद्धान्तके की ओर भगा दिए गए थे। इस प्रकार के विचारों
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अनेकान्त
[ज्येष्ठ, आषाढ़, वीर-निर्वाण सं०२४६६
का निश्चय करना आवश्यक है, जिससे दो भागों लोग यह मानते हैं, कि कुरु पांचालीय वैदिकोंके में विद्यमान कतिपय मौलिक भिन्नताओंको समझा द्वारा अत्यंत उच्च माने गए वाजपेय यज्ञके स्थानमें जा सके । पार्योंके दो समुदायोंके मध्यमें विद्यमान राजसूय यज्ञ श्रेष्ठ है । ये कुछ कारण उन कारणोंमें . राजनैतिक तथा सांस्कृतिक भेदोंके सद्भावको से हैं जो पूर्वीय देशोंमें कुरु पांचालीय वैदिक ब्राह्मण-साहित्य स्पष्टतया बताता है । अनेक अव- ब्राह्मणोंका पर्यटन क्यों निषिद्ध है, इस विषयमें सरों पर पूर्वीय आर्यों के विरुद्ध पूर्षीय देशकी ओर बतलाए गए हैं। सेनाएँ ले जाई गई थीं । ब्राह्मण-साहित्यमें दो पंचविंशब्राह्मणके एक प्रमाणसे यह अनुमान अथवा तीन प्रधान बातोंका उल्लेख है, जो सांस्कृ- निकाला जा सकता है कि कुछ समय तक आर्योंतिक भिन्नताके लिए मनोरंजक साक्षीका काम के क्रियाकाण्ड विरोधी दलोंका विशेष प्राबाल्य देती हैं । काशी, कौशल, विदेह और मगधके था और वे लोग इन्द्र यज्ञके, जिसमें बलि करना पर्वीय देशोंमें व्यवहार करनेके सम्बन्धमें शतपथ भी शामिल था, विरुद्ध उपदेश करते थे। जो इन्दब्राह्मणमें पांचाल देशीय कट्टर ब्राह्मणोंको सचेत पूजा तथा यज्ञात्मक क्रियाकाण्डके विपरीत उपदेश किया गया है । उसमें बताया गया है कि कुरु देते थे, उन्हें मुंडित मुंड यतियोंके रूपमें बताया पांचाल देशीय ब्राह्मणोंका इन पूर्वीय देशोंमें जाना है। जब वैदिक दलके प्रभावसे प्रभावित एक बलसुरक्षित नहीं है, क्योंकि इन देशोंके आर्य लोग शाली नरेशके द्वारा 'इन्द्र यज्ञ' का पुनरुद्धार किया वैदिक विधि विधान-सम्बन्धी धर्मोको भूल गए हैं गया, तब इन यतियोंका ध्वंस किया गया और इतना ही नहीं कि उन्होंने बलि करना छोड़ दिया इनके सिर काट करके भेड़ियोंकी ओर फेंक दिये बल्कि उनने एक नए धर्मको प्रारंभ किया है, जिस गये थे । जैनेतर साहित्यमें वर्णित ये बातें विशेष के अनुसार बलि न करना स्वयं यथार्थ धर्म है। महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ये अहिंसाधर्मकी प्राचीनताकी ऐसे अवैदिक आर्योंसे तुम किस सन्मानकी आशा ओर संकेत करती हैं। कर सकते हो, जिन्होंने धर्मके प्रति आदर-सन्मान अब जैन साहित्यकी ओर देखिये, उसमें आप का भाव छोड़ दिया है । इतना ही नहीं, वेदोंकी क्या पाते हैं ? ऋषभदेवसे लेकर महावीर पर्यन्त भाषासे भी जिन्होंने अपना सम्पर्क नहीं रक्खा है। चौबीस तीर्थकर हैं, जो सब क्षत्रियवंशके वे संस्कृतके शब्दोंका शुद्धता पूर्वक उच्चारण नहीं हैं। यह कहा जाता है कि आदि तीर्थकर भगवान कर सकते । उदाहरणके तौर पर संस्कृतमें जहाँ ऋषभने पहले अहिंसा सिद्धान्तका उपदेश दिया ''आता है वहाँ वे 'ल' का उच्चारण करते हैं। था तथा तपश्चर्या अथवा योग द्वारा आत्मसिद्धी
इसके सिवाय इन पूर्वीय देशोंके क्षत्रियोंने की ओर झानियोंका ध्यान आकर्षित किया था । सामाजिक महत्व प्राप्त कर लिया है, यहाँ तक कि इन जैन तीर्थंकरोंमें अधिकतम पूर्वीय देशोंसे वे अपनेको ब्राह्मणोंसे बड़ा बताते हैं । क्षत्रियोंके सम्बन्धित हैं । अयोभ्यासे ऋषभदेव, मगधसे नेतृत्वमें सामाजिक गौरवके अनुरूप पूर्वीय आर्य महावीर और मध्यवर्ती बावीस तीर्थकरोंका बहुधा
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वर्ष ३, किरण ८.६].
तामिल भाषामा अनसाहित्य
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उन देशोंसे सम्बन्ध था, जो पूर्वीय आर्य देशोंमें और वे निश्चयसे पृथक रहे होंगे । इस बातका सम्मिलित हैं। इन्होंने जिस भाषामें अपना संदेश प्रमाण जैन रामायणमें मिलता है। एक छोटा सा दिया वह संस्कृत नहीं, बल्कि मागधी-प्राकृत रूप उदाहरण है । जब दशरथके दरबारमें रामके वाली संस्कृत भाषा थी । जैनियोंका प्रारभिक विवाहकी बातचीत चली तब एक मंत्रीने सूचित धार्मिक साहित्य प्राय: प्राकृत भाषामें है, जो किया कि जनककी कन्या सीता उपयुक्त वधू होगी, तात्कालिक जनताको बोलचालकी भाषा थी। ग्रह किन्तु अनेक मन्त्रियोंने यह कह इस बातका तीब्र, स्पष्ट है कि इस उदार विभागने अपने अहिंसात्मक प्रतिवाद किया कि जनक अब अहिंसाके अनुयायी, धार्मिक सिद्धान्तको जनतामें प्रकाशित करनेका नहीं रहे हैं, क्योंकि वह दूसरे पक्ष में पुनः चले गये. साधन इस प्रचलित भाषाको बनाया है। . हैं। अन्तमं यह निर्णय हुआ कि धार्मिक विभि
जब हम उपनिषद्-कालमें प्रवेश करते हैं तब न्नताके होते हुये भी राजनैतिक तथा सैनिक दृष्टि हम कुरु पांचालीय यज्ञात्मक क्रियाकाण्ड और. से यह संबंध वांछनीय है । यह उदाहरण इस पूर्वीय श्रार्योंकी आत्म विद्यारूपी दो विपरीत, बातको स्पष्ट करता है कि जबतक जनकन पक्ष . संस्कृतियोंके मध्यभे पुनः संघर्ष देखते हैं। उपनिः परिवर्तन नहीं किया था तब तक वे उदार अायोंमें षद् सम्बन्धी अध्यात्मवाद विशेषकर वीर.क्षत्रियों परिगणित किये जाते थे । यह कहना अयथार्थ में संबंधित है । कुरु पाँचाल देशीय विद्वान् इन नहीं होगा कि पूर्वीय आर्य लोग, जो यज्ञ विधिके पूर्वीय नरेशोंके दरबारों में आत्मविद्याके नवीनज्ञान विरोधी थे तथा. जिनके नेता वीर क्षत्रिय थे, में प्रवेश निमित्त प्रतीक्षा करते हुए देखे जाते हैं। अहिंसा सिद्धान्तमें विश्वास करते थे और इससे उपनिषद्-कालीन जगत उस अवस्थाको बताता है वे जैनियोंके पूर्वज थे । महावीरके समयकं लगभग जब ये दोनों विभाग एक निश्चय और समझौता: इस उदार विचार धाराने , बौद्ध धर्मके संस्थापक प्राप्तिकं निमित्त प्रयत्न करते हुए नजर आते हैं। शाक्य मुनि गौतमके रूपमें अन्य वीर क्षत्रिय-द्वारा,
इस प्रकारकी समन्वयात्मक भावनाके द्योतक संचालित दूसरी विचार प्रणालीको अपनेमें से राजा जनक प्रतीत होते हैं और पूर्वीय आर्य वि.. उत्पन्न किया । गौतम बुद्ध शाक्य वंशीय हैं, उनके द्वान याज्ञवल्क्य संभवत: उस शक्ति के प्रताक हैं. जीवनमें शाक्य वंशका संबंध उस इक्ष्वाकु वंशसे : जिससे समन्वय और व्यवस्था हुई । पुरातन यज्ञ लगाया जाता है जिसने प्राचीन भारतीय संस्कृति विधि पूण रीतिसे निषिद्ध किए जानेक स्थानों के निर्माणमें महत्वपूर्ण कार्य किया था । और तो कुछ हीन स्थिति वाली संस्कृतिक रूपमें रखी गई. क्या, पौराणिक हिन्दु धर्म तकमें क्षत्रिय वीरोंकी तथा आत्म विद्याका नवीन ज्ञान स्पष्टरूपसे उच्च सेवायें सम्मानित हुई हैं क्योंकि वे उसमें विष्णु . माना गया । इस प्रकारके समझौतेमें निश्चयसे अवतारके रूपमें प्रशंसित हुए हैं जिसके मन्दिर : कट्टर अाय वर्गको विजय थी, किन्तु ऐसा सम- बनाये जाते हैं और पूजा की जाती है । यह . झौता उदार विद्वानोंको स्वीकृत नहीं हुआ होगा आश्चर्य की बात है कि इस अहिंसा सिद्धान्तका :
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४३०.
अनेकान्त
[ ज्येष्ठ, आषाद, वीर- निर्वाण सं० २४६६
उनकी रुचिके अनुसार भोजन कराया गया, कारण वे पक्के शाकाहारी नहीं थे । यह बातें हिंसा सिद्धान्तका महत्व तथा उसकी प्रबलताको स्पष्टतया बताती हैं। ये बातें तामिल साहित्य में भी भली भाँति प्रतिविम्बित होती हैं, जब कि जैन दक्षिणकी ओर गये थे और उनने तामिल साहित्य के निर्माण में भाग लिया था। प्रारंभिक जैनियोंने अपने धर्मके प्रचारका कार्य किया होगा, और इसलिये वे देश के आदमनिवासियों के साथ निःसंकोच भाव से मिले होंगे। आदिमनिवासियों के साथ उनकी मैत्रीसे यह बात भी प्रगट होती है ।
उपदेश वे क्षत्रियवीर देते थे जो धनुष बाण लेकर भ्रमण करते थे और जिनका सग्राम संबंधी कार्यों से विशेष संबंध रहा करता था ।
यह विषय अज्ञात है कि उनका अहिंसा से संबंध कैसे हुआ, किन्तु यह बात सन्देह रहित है कि वे लोग अहिंसा-सिद्धान्त के संस्थापक थे । ये क्षत्रिय नेता जहाँ कहीं जाते थे अपने साथ मूल अहिंसा धर्मको ले जाते थे, पशु-बलिके विरुद्ध प्रचार करते थे तथा शाकाहारको प्रचलित करते थे । इन बातों को भारतीय इतिहास के प्रत्येक अध्येता को स्वीकार करना चाहिये | यह बात भवभूतिके नाटक, उत्तर राम चरित्र में बाल्मिीकि आश्रमके एक दृश्य में वर्णित है। जनक और बशिष्ठ अतिथि के रूपमें आश्रम पहुँचते हैं। जब जनकका अतिथि सत्कार किया जाता है तब उन्हें शुद्ध शाकाहार कराया जाता है, आश्रम स्वच्छ और पवित्र किया जाता है किन्तु जब आश्रम में वशिष्ठ आते हैं तब एक मोटा गोवत्स मारा जाता है । आश्रमका एक विद्यार्थी व्यंग्यके रूपमें अपने साथी से पूछता है कि, क्या कोई व्याघ्र आश्रम में श्राया था । दूसरा छात्र वशिष्ठका अपमान पूर्ण शब्दों में उल्लेख करनेके कारण उसे भला बुरा कहता है। प्रथम विद्यार्थी क्षमा माँगता हुआ अपनी बातका इस प्रकार स्पष्टीकरण करता है कि मुझे ऐसा अनुमान करना पड़ा कि आश्रम में कोई व्याघ्र जैसा मांसाहारी जानवर अवश्य भाया होगा, कारण एक मोटा ताजा गोवत्स गायब हो गया है । इस पर वह विद्यार्थी यह स्पष्ट करता है कि राजऋऋषि तो पक्के शाकाहारी हैं अतः उनका उसी प्रकार सत्कार होना चाहिये था किन्तु वशिष्ठको
जिन देशवासियों के विरुद्ध आर्य लोगोंको संग्राम करना पड़ा था, वे दस्यू कहे जाते थे । यद्यपि अन्यत्र उनका निंदापूर्ण शब्दों में वर्णन किया गया है, किन्तु उनका जैन साहित्य में कुछ सम्मान के साथ वर्णन है । इसका एक उदाहरण यह है कि वाल्मीकि रामायण में जो बंदर और राक्षसके रूपमें अलंकृत किए गए हैं, वे जैन रामायणमें विद्याधर बताए गए हैं। जैनसाहित्य से यह बात भी स्पष्ट होती है कि आर्य वंशीय वीर क्षत्रिय विद्याधरोंके यहाँ की राजकुमारियों के साथ स्वतंत्रतापूर्वक विवाह करते थे । इस प्रकार की वैवाहिक मैत्री बहुत करके राजनैतिक एवं यौद्धिक कारणोंसे की जाती थी । इसने अहिंसा सिद्धान्त को देश के मूल निवासियोंमें प्रचारित करनेका द्वार खोल दिया होगा। उत्तरसे तामिल देशकी ओर प्रस्थान करने एवं वहाँ अहिंसा पर स्थित अपनी संस्कृतिका प्रचार करने में इस प्रकार के कारणकी कल्पना करनी पड़ी होगी। कट्टर (वैदिक) आयका
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तामिल भाषाका जैन साहित्य
वर्ष ३, किरण -]
संप्रदाय तामील देश के मैदान में बहुत विलम्ब से आया होगा, कारण यह बात हिन्दुधर्मके पश्चात् कालवर्ती उम पुनरुद्धारसं पूर्णतया स्पष्ट होती है, जिसने दक्षिण में जैनियों की प्रभुताको गिराया ।
साधारणतया यह कल्पना की जाती है कि, चन्द्रगुप्त मौर्य के गुरु भद्रबाहु के समय में जैनियोंने दक्षिण भारतकी और गमन किया था और उत्तर भारत में द्वादश वर्षीय भयंकर दुष्काल आने पर भद्रबाहु संपर्ण जैन संघको दक्षिणकी ओर ले गए थे और उनका अनुसरण उनके शिष्य चन्द्रगुप्तने किया था एवं अपना राज्यासन अपने पुत्रको प्रदान किया था । वे कुछ समय तक मैसूर प्रांत में ठहरे | भद्रबाहु और चंद्रगुप्तने श्रवणबेलगोला के • चंद्रगिरि पर्वत पर प्राण त्याग किया तथा शेष लोग तामिल देशकी ओर चले गए। इन बातों को पौर्वात्य विद्वान् स्पष्टतया स्वीकार करते हैं, किन्तु जैसा मैंने अन्यत्र कहा है, यह जैनियोंका दक्षिणकी ओर प्रथम प्रस्थान नहीं समझना चाहिये । यही बात तर्क संगत प्रतीत होती है कि, दक्षिण की ओर इस आशा मे गमन हुआ होगा कि सहस्रों साधुओं को, बंधुत्व भावपूर्ण जाति के द्वारा हार्दिक स्वागत... प्राप्त होगा | खारवेल के हाथीगुफ' वाले शिलालेख में यह बात स्पष्ट होती है कि सम्राट् खारवेलकं राज्याभिषेक के समय पांड्य नरेशने कई जहाज भरकर उपहार भज़े थे । खारवेल प्रमुख जैनसम्राट थे और पांड्य नरेश उसी धमक अनुयायी थे; ये बातें तामिल साहित्य के शिलालेख से स्पष्ट होती हैं। तामिल ग्रंथ 'नालिदियर" के सम्बन्ध में यह कहा जाता है कि, उत्तर में दुष्कालके कारण
सहस्र जैन साधु पांड्यदेशमें आए थे, वहाँ
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ठहरे थे तथा अपने देशको वापिस जाना चाहते थे, उनका यह वापिस जाना पाँड्य नरेशको इष्ट नहीं था । अतः उन सबने समुदाय रूपसे एक रात्रि को पांड्य नरेशकी राजधानीको छोड़ दिया । प्रत्येकने एक२ ताड़ पत्र पर एक २ पद्य लिखा था और उसको वहाँ ही छोड़ दिया था । इन पद्यके समुदाय से "नालिदियर' नामक ग्रंथ बना है । यह परम्परा कथन दक्षिण के जैन तथा श्रजैनोंको मान्य है । इससे इस बातका भी समर्थन होता है कि तामिल देशमें भद्रबाहुके जानेसे पूर्व जैन नरेश थे । अब स्वभावतः यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि, वह कौनसा निश्चित काल था जब जैन लोग तामिल देशकी ओर गए ? तथा ऐसा क्यों हुआ ? परन्तु हमारे प्रयोजनके लिए इतना ही पर्याप्त है यदि हम यह स्थिर करने में समर्थ होते हैं कि, ईसा से ४०० वर्ष पूर्व से भी पहले दक्षिण में जैनधर्म का प्रवेश होना चाहिये । यह विचार तामिल विद्वानोंकी विद्वत्तापूर्ण शोध से प्राप्त परिणामोंके अनुरूप है । श्री शिवराज पिल्ले "आदिम तामिलोंके इतिहास" में आदि तामिलवासियोंके सम्बन्ध में लिखने हैं
'जैसा कि मैं अन्यत्र बता चुका हूँ, आयें लोगों के संपर्क में आने के पूर्व द्रावेड़ लोग विशेषकर भौतिक सभ्यता निर्माण करने, वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवनकी अनेक सुविधाओं को प्राप्त करनेमें लगे हुए थे, इसलिए स्वभावतः उनकी जीवनियोंने भौतिक रंग स्वीकार किया और वे उस रूप में तत्कालीन साहित्य में प्रतिविम्बित हुई धार्मिक भावना उस समय अविद्यमान थी और वह उनमें पोछे उत्पन्न हुई थी। सब बातों एवं
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भनेकान्त र
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परंपरा कथनों पर विचार करनेसे विदित होता है ऊहापोहके पश्चात् इस प्रकार लिखते हैंकि जब आर्य लोगोंका प्रथम प्रवेश प्रारम्भ हुआ, इस भांति अनेक सार गर्भित कारणोंसे कोई तब उसमें प्रथम समूह जैन और बौद्ध लोगोंका भी विचारशील विद्वान संगम विषयक परंपरा प्रतीत होता है । तामिल भूमिमें किसी परिमाणमें कथनको पूर्णतया प्रमाण एवं गंभीर ऐतिहासिक मी प्रतिद्वंद्विताके लिए ब्राह्मणधर्मको न पाकर इन विचारके अयोग्य मानगा। वह तो पौराणिकता अवैदिक संप्रदायोंको बहुधा नैतिक एवं साहि- एवं उस युगमें उत्पन्न तत्कालीन मनोवृत्तियोंको त्यिक रचनाओंके निर्माण-द्वारा अपनेको संतुष्ट अध्ययन करने के लिए एक अध्याय पेश करेगा। करना पड़ा । तामिलवासी भी इस भावनासे यद्यपि वह तामिल इतिहासकी बाह्य घटनाओंको प्रभावित प्रतीत होते हैं और इससे उनकी राष्ट्री- प्रमाणित करनेमें असमर्थ है, तथापि वह परंपरा यताकी ओर उत्मुखता हुई । और इस प्रकार राष्ट्रोयज्ञान के प्रतिनियत समयकी खास घटना दूसरा काल भाव और परिणाममें साहित्यिक रहा होने के कारण चिंतनीय है । मुझे अधिक सन्देह है जिसके परिचायक कुरल, तोल काप्पियम, आदि कि कहीं आठवीं सदीका परम्परा कथन जैनियोंके तात्कालिक ग्रन्थ हैं । हिन्दु लोग सबके अन्तमें पूर्ववर्ती संगम आन्दोलनकी हल्की पुनरावृत्ति तो श्राए और उनके आनेसे राष्ट्रीय जागतिका नूतन नहीं है। हमारे पास इस बात के प्रमाण हैं कि द्वार खुला, जिस ओर द्राविड़ोंका उस वक्तसे पूर्ण वज्रनंदी संगमके संस्थापनके लिये मदुरा गये थे, जीवन और ज्ञान प्रभाहित हुआ । हम तीन वे जैन वैयाकरण और विद्वान थे । वे छटी शतासंगमोंका उल्लेख किए बिना तामिल साहित्यके ब्दिके कर्नाटक प्रांतीय संस्कृत वैयाकरण, जैनेन्द्र सम्बन्धमें कुछ भी नहीं कह सकते । तामिल व्याकरणके रचयिता और संस्कृत व्याकरणके साहित्य खासकर पिछला उन तीन संगमोत्रयी आठ प्रामाणिक रचनाकारों में देवनंदि पूज्यपादके या 'एकेडेमीज़' (Academies) का उल्लेख करता अन्यतम शिष्य थे । यथार्थमें वह संगम् अपने धर्म है, जिनकी अधीनतामें तामिल साहित्यका प्रचारमें संलग्न जैन साधुओं और विद्वानोंक महासद्भव हुआ है। संगम्की बहुतसी कथा तो विद्यालयके सिवाय अन्य नहीं हो सकता। इस पौराणिकतामें छुपी हुई है । पुरातन संगम साहित्य आन्दोलनने तामिल देशमें संगम्के विचारको के नामसे माने जाने वाले अष्ट संग्रहों, दश कवि- पहिली बार उत्पन्न किया होगा । यह अधिक ताओं आदि ग्रन्थोंमें संगम-साहित्यका उल्लेख संभव है कि सातवीं सदी में जैनियोंका निर्दयता नहीं है। आधुनिक पश्चिमात्य विद्वानोंका यह पूर्वक संहार करने के अनन्तर वैदिक हिन्दु समाज परिणाम निकालना ठीक है कि संपूर्ण परंपरा ने अपने घरको व्यवस्थित करनेमें प्रयत्न किया कथन मिथ्यों है और वह किसी उवर मस्तिष्ककी होगा और संगमोंके स्थापनार्थ के धर्म गुरुओंके उपज है । श्री शिवरान पिल्ले,जिनका ऊपर उल्लेख साथमें संलग्न हुये होंगे ताकि वे अपने साहित्यकी फिया जा चुका है, संगम परंपराके विषयमें पर्याप्त प्रामाणिकता और महत्ताको बढ़ाये । यह पूर्वक
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वर्ष ३, किरण ८-8 ]
जैनधर्म गुरुओं का संगम था, जिसने बहुत करके उस नमूनेके अनुसार वैदिक पक्षको घ अपने साहि दिपक संगमकी कथा कल्पित करने का मार्ग दिखाया । संगम् शब्द से प्राचीन तामिल वासियोंका अपरिचित होना ही उसकी बादकी उत्पत्तिको बताता है । उसके उत्तेजक कारण संगम नामधारी साहित्य पर लक्षित विचारको लादनेका प्रयत्न एक प्रकार से ज्वलंत और मिथ्या विषमतापूर्ण है । (?)”
इसमें मैं जिस बात को जोड़ना चाहता हूँ वह हैद्राविड़ संघका आस्तित्व जिसे दूसरे शब्दों में मूल संघ भी कहते हैं और जो ईसासे १०० वर्ष पूर्व उस दक्षिण पाटलिपुत्र में था । जो कुडेलोर अहातेको वर्तमान तिरुप्पाप्पु लियूर समझा जाता है । इस द्राविड़ संघ के अधिनायक महान जैना चार्य श्री कुंदकुंद थे, जो सम्पूर्ण भारतवर्ष के द्वारा अत्यन्त पूज्य माने जाते हैं वज्रनन्दि द्वारा तामिल
तामिल भाषाका जैन साहित्य
तामिल संगम के पुनरुद्धार का प्रयत्न श्री कुंदकुंदाचार्य से संबंधित आदि मूलसंघकी अवनतिको बताता है । यह बात उन शोध खोज के विद्यार्थियोंकी सूचनार्थ लिखी जाती है, जिनकी तामिल देशीय नियों के प्रभाव-विषयक इतिहास में विशेष रुचि हो ।
इस प्रसंग में दूसरी मनोरंजक तथा उल्लेखनीय बात प्राकृत भाषा और उसकी सब देशों में प्रचार की है। अगस्त्य कृत महान व्याकरण शास्त्र का अवशिष्ट अंश समझे जाने वाले सूत्रों के संग्रह "में उत्तर प्रांतकी भाषाओं - संस्कृत भाषाओं पर एक अध्याय है । उसमें संस्कृत और अपभ्रंश भाषाका उल्लेख करने के अनन्तर सब देशोंमें प्रचलित पाहतम् नामकी भाषाका वर्णन है । हमें पहले उत्तर के विचारशील नेताओंसे विशेष रीति
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से संबंध रखने वाली प्राकृत भाषा के उल्लेख करने का अवसर मिला था । तामिल व्याकरण में उस प्रदेशकी प्रचलित भाषा के रूपमें इसका उल्लेख होना विशेष महत्व की बात है । कारण इससे प्राकृत साहित्यका आदि प्रवेश एवं तामिल देश में प्राकृत भाषा लोगोंके गमनका ज्ञान होता है। इससे संबंधित एक बात और है कि कुछ संगम संग्रहों से नामांकित ग्रंथों में 'वाद विकरु'त्तल' या सल्लेखनाका वर्णन पाया जाता है । इस 'वादविरुत्तल' का कुछ राजाओंने पालन किया था और जिनका अनुकरण उनके मित्रोंने किया था । जैनियोंसे संबंधित एक प्रधान धार्मिक क्रिया को सल्लेखना कहते हैं । जब कोई व्यक्ति रोग या कष्ट से पीड़ित है और वह यह जानता है, कि मृत्यु समीप है और शरीरको औषधि देनेमें काल व्यय करना व्यर्थ है, तब वह अपने अवशिष्ट जीवनको ध्यान तथा प्रार्थनामें व्यतीत करनेका निश्चय करता है वह मरण पर्यन्त आहार एवं औषधि स्वीकार नहीं करता । इस क्रियाको 'सल्लेखना ' कहते हैं । सबसे प्राचीन तामिल संग्रहोंमें इसका उल्लेख पाया जाता है । वहाँ इसे 'वादविकरुतल ' के नामसे कहा है । इसका महत्व यद्यपि बिल्कुल स्पष्ट है किन्तु इस शब्द के उद्भव के विषय में तनिक सन्देह है । जैनियोंने तामिल भाषा में जिस साहित्यका निर्माण किया और जिसके साथ हमारा साक्षात् सम्बन्ध है उसका उल्लेख न करते हुए भी, ये सब बातें मिलकर हमें बलात् यह विश्वास करने के लिये प्रवृत्त करती हैं कि, उपलब्ध प्राचीनतम तामिल साहित्य में भी जैनियों के प्रभाव सूचक चिन्ह पाये जाते हैं ।
क्रमशः
जैन एण्टोक्केरी में प्रकाशित अंग्रेजी लेखका अनुवाद |
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जैनागमोंमें समय - गणना
[ लेखक - श्री अगरचन्द नाहटा ]
नागम भारतीय प्राचीन संस्कृति, साहित्य और इतिहास के भंडार हैं । दार्शनिक और साहित्यिक दोनों विद्वानोंके लिये उनमें बहुत कुछ मननीय एवं गवेषणीय सामग्री भरी पड़ी है। पर दुःखकी बात कि भारतीय जैनेतर विद्वानोंने इन जैनागमोंकी ओर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया । हाँ पाश्चात्य विद्वानोंमें से डाक्टर हर्मन जैकोबी आदि कुछ विद्वानोंने उनका वैदिक एवं बौद्ध साहित्य के साथ तुलनात्मक अध्ययन ज़रूर किया है और उसके फलस्वरूप अनेक नवीन तथ्य साहित्यप्रेमी संसारके सन्मुख लेखों तथा ग्रन्थोंके रूपनें प्रकट किये हैं । इधर कुछ वर्षोंसे हमने कई जैनागमका साहित्यिक दृष्टिकोण से अध्ययन किया, उनकी सिर्फ साहित्यक ही नहीं बल्कि विविध दृष्टियों से बहुमूल्य पाया । प्रत्येक विषयके विद्यार्थियोंको उनमें कुछ न कुछ नवीन और तत्थ पूर्ण सामग्री मिल सकती है । उनमें कई विषय तो हमें तुलनात्मक दृष्टिसे बहुत ही महत्वपूर्ण प्रतीत हुए, अतः उनको साहित्य संसार के समक्ष रखते हुए विद्वानोंका ध्यान उस ओर आकर्षित करना हमें परमावश्यक मालूम होता है। इस दृष्टिसे, प्रस्तुत लेखमें, 'समयगणना' का जैसा रूप जैनागमों में प्राप्त होता है उसे पाठकोंके सन्मुख रखा जाता है। जैनदर्शन में कालद्रव्यका सबसे 'सूक्ष्म अंश 'समय' है । समयकी जैसी सूक्ष्मता जैनागमोंमें बतलाई गई है वैसी किसी भी दर्शन में नहीं पाई जाती। इस सूक्ष्मता
का कुछ आभास उदाहरण द्वारा इस प्रकार व्यक्त किया गया है:
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प्रश्न – शक्ति सम्पन्न, स्वस्थ और युवावस्था वाला Latest लड़का एक बाटीक पट्टसाड़ी - वस्त्रका एक हाथ प्रमाण टुकड़ा बहुत शीघ्रतासे एक ही झटके से फाड़ डाले तो इस क्रियामें जितना काल लगता है क्या वही समयका प्रमाण है ?'
उत्तर -- 'नहीं, उतने कालको समय नहीं कह सकते, क्योंकि संख्यात् तन्तुनों के इकट्ठे होने पर वह वस्त्र बना है, अतः जब तक उसका पहला तन्तु छिन्न नहीं होगा तब तक दूसरा तन्तु छिन्न नहीं होता । पहला
तन्तु एक काल में टूटता है, दूसरा तन्तु दूसरे काल में, इस लिये उस संख्येय तन्तुयोंको तोड़नेकी क्रिया वाला काल समय संज्ञक नहीं कहा जा सकता ।'. प्रश्न - 'जितने समय में वह युवा पसाटिका के पहले तन्तुको तोड़ता है क्या उतना काल समय-संज्ञक होता है ?'
उत्तर- 'नहीं, क्योंकि पट्टसाटिका एक तन्तु संख्यात सूक्ष्म रोमोंके एकत्रित होने पर बनता है, अतः तन्तुका पहला – ऊपरका रूाँ जब तक नहीं टूटता तब तक नीचे वाला दूसरा रूाँ नहीं टूट सकता ।" प्रश्न - 'तब क्या जितने काल में वह युवा पट्टसाटिका के प्रथम तन्तुके प्रथम रोयेंको तोड़ता है उतना काल समय संज्ञक हो सकता है ?'
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वर्ष :, किरण ..]....
जैनागममि समय-गणना
'उत्तर-'नहीं ,क्योंकि अनन्त परमाणु-संघातोंके एकत्रित ११ २ पक्षोंका
१ मास होने पर वह रोयाँ बनता है। अतः रोयेंका प्रथम १२ २ मासोंकी
१ ऋतु परमाणु-संघात जब तक नहीं टूटता तब तक नीचे १३ ३ ऋतुओंका
१ अयन का संघात नहीं टूट सकता। ऊपरका संघात एक १४ २ अयनोंका
१ वर्ष काल में टूटता है, नीचे का संघात उससे भिन्न दूसरे १५ ५ वर्षोंका
१ युग काल में । इस लिये एक रोयें के टूटनेकी क्रियावाला १६ २० युगोंकी
१ शताब्दी काल भी समय सज्ञक नहीं हो सकता।' १७ १० शताब्दियों का एक हज़ार वर्ष
__अर्थात् एक रोयें के टूटनेमें जितना समय लगता १८ १०० हज़ार वर्षोंका १ लक्ष वर्ष है उससे भी अत्यन्त सूक्ष्मतर कालको 'समय' कहते हैं । १६ ८४ लक्ष वर्षोंका १ पूर्वीग जैनदर्शनमें मनुष्य अाँख बन्दकर खोलता है या पलकें २० ८४ लक्ष पूर्वीगोंका १ पूर्व मारता है, इस क्रियामें लगने वाले काल में असंख्यात
(७०५६०००००००००० वर्ष) समयका बीत जाना बतलाया गया है।
२१ ८४ लक्ष पूर्वोका
१ त्रुटिताँग . उपर्युक्त उदाहरणसे पाठकोंको जैनदर्शनके समयकी २२ ८४ लक्ष त्रुटितांगोंका १ त्रुटित सूक्ष्मताका कुछ अाभास अवश्य मिल सकता है । ये २३ ८४ लक्ष त्रुटितोंका १ अड्डांग दृष्टान्त केवल विषयको बोधगम्य करने के लिये ही दिये २४ ८४ लक्ष अडडागांका
१अड़ड़ गये हैं । समयका वास्तविक स्वरूप तो कल्पनातीत है। २५ ८४ लक्ष अडड़ोंका १ अववाँग अब समयके अधिक कालकी गणनाको संक्षेपसे बतलाया २६ ८४ लक्ष अववागोंका १अवव जाता है।
२७ ८४ लक्ष अववोंका १ हुहुकांग १ निर्विभाज्य काल रूप
१ समय २८ ८४ लक्ष हुहुकाँगोंका २ असंख्यात समयोंकी
१ श्रावलिका २६ ८४ लक्ष हुहुकोंका। १ उत्पलाँग ३ संख्येय श्रावलिकोंका १ उश्वास (स्वस्थ युवाका) ३० ८४ लक्ष उत्पलाँगोंका ५ उत्पल ४ संख्येय श्रावलिकोंका १ निश्वास (,) ३१ ८४ लक्ष उत्पलोंका १पद्माँग ५ उश्वास युक्त निश्वासका १प्राण ३२ ८४ लक्ष पद्माँगोंका १ पद्म ६ सात प्राणोंका
१ स्तोक ३३ ८४ लक्ष पद्मोंका १ नलिताँग ७ सात स्तोकोंका .. १ लव ३४ ८४ लक्ष नलिताँगोंका १ नलित ८ ७७ लवोंका .
३५ ८४ लक्ष नलितोंका १ अर्थनिपराँग (इस प्रकार ३७७३ श्वासोच्छ्नसोका एक मुहूर्त- ३६ ८४ लक्ष अर्थर्निपरांगोंका १ अर्थनिपूर २ घड़ी ४८ मिनिट-होता है)
३७ ८४ लक्ष अर्थनिपरोंका १ अयुतांग ६ ३० मुहूतोंका
१ अहोरात्र (दिन) ३८ ८४ लक्ष अयुतांगोंका .. १ अयुत १० १५ दिनोंका
१ पक्ष
३६ ८४ लक्ष अयुतोंका १ नयुतांग
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अनेकान्त ...
ज्येष्ठ, पाषाद, वीर निर्वाण सं०२४६६
४० ८४ लक्ष नयुताँगोंका १ नयुत लम्बाई-चौड़ाई एवं ऊँचाई वाली धान्य भरनेकी पाली' ४१ ८४ लक्ष नयुतोंका १ प्रयुतांग . के समान गोलाकार ऐसे एक कुएँकी कल्पना की जाय, ४२ ८४ लक्ष प्रयुताँगोंका १ प्रयुत .. जिसकी गोल परिधिका नाप तीन योजनसे कुछ अधिक ४३ ८४ लक्ष प्रयुतोंका १ चलिकांग होता है । उसमें, सिर मुड़ाने के बाद एक दिन के दो ४४ ८४ लक्ष चूलिकाँगोंकी १ चूलिका .. दिन के यावत् सात अहोरात्रि तक के बढ़े हुए केशों के ४५ ८४ लक्ष चलिकाअोंकी १ शीर्षप्रहेलिकांग टुकड़ोंको ऊपर तक दबा दबा कर इस प्रकार भरा ४६ ८४ लक्ष शीर्षप्रहेलिकागोंकी १ शीर्षप्रहेलिका जाय कि उनको न अग्नि जला सके, न वायु उड़ा सके ___ अंकोमें ७५६२६३२५३०७३०१०२४११५७६७३ और न वे सड़े या गलें--उनका किसी प्रकार विनाश ६६६७५६६६४०६२१८६६६८४८०८० १८३२६६ इनके न हो सके । कुएँ को ऐसा भर देने के बाद प्रति समय
आगे १४० शून्य अर्थात् इस १६४ अंक वाली संख्या एक एक केश-खंडको निकाला जाय । जितने समय में को शीर्ष प्रहेलिका कहते हैं । संख्याका व्यवहार यहीं वह गोलाकार कुआँ खाली हो जाय--उसमें एक भी. तक है । अब इससे अधिक संख्या वाले (असंख्यात केशका अंश न बचे-उतने समयको व्यवहारिक वर्षों वाले ) पल्योपम और सागरोपमका स्वरूप दृष्टान्तों उद्धारपल्योपम कहते हैं । ......... .. से बतलाया जाता है।
ऐसे दस कोडाकोड़ी व्यवहारिक उद्धार पल्योपमका औपमिक काल प्रमाण दो प्रकारका होता है- एक व्यवहारिक उद्धार सागरोपम होता है । इस पल्योपम एवं सागरोपम । पल्पोपम तीन प्रकारका होता कल्पनासे केवल काल प्रमाणकी प्ररूपणाकी जाती है । है-१ उद्धार पल्योपम, २ अद्धापल्योषम, ३. क्षेत्र २ सूक्ष्म उद्धार पल्योपमः-उस उपर्युक्त कुएँको पल्योपम ! उद्धार पल्योपम दो प्रकार का होता है-- एकसे सात दिन तक के बढ़े हुए केशोंके असख्य टुकड़े . १ सूक्ष्म उद्धारपल्योपम, २ व्यवहारिक पल्योपम। करके उनसे उसे उपयुक्त विधिसे भरकर प्रति समय
१ व्यवहारिक उद्धार पल्योपम--एक योजनकी एक एक केशखंड यदि निकाला जाय, तो इस प्रकार
+ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में योजनका प्रमाण इस प्रकार निकाले जाने के बाद जब कुँया सर्वथा खाली हो जाय, बतलाया गया है--
.. मनुष्योंका बाजार, उनके पाठ बाजामोंकी एक लीख, पुद्गल द्रव्यका सूचमातिसूचम अन्श परमाणु कह. फिर क्रमसे. पाठ गुणित युका, यवमध्य, ( उत्पेध ) लाता है, अनन्त सूधम परमाणुगोंका एक व्यवहार पर- अंगुल-६ ( उत्सेध ) अंगुलोंका एक पाउ बारह माणु । अनन्त व्यावहारिक परमाणुओंका एक उष्ण अंगुलोंका एक बैत, चौबीस अंगुलोंका एक हाथ, श्रेणिया इस प्रकार क्रमशः पाठ पाठ गुणा वद्धितः- अड़तालीस अंगुलोंकी एक कुक्षी, छियानवे अंगुलोंका शं'तश्रेणिया, उर्धरेणु त्रसरेणु,स्थरेणु, देवगुरु उत्तरकुरुके एक अत या. दंड, धनुष्य, युग्ग, मूसल, नालिका युगलियोंका. बालाग्र, हरिवर्षरम्यक वर्षके युगलियोंका अर्थात चार हाथोंका १ धनुष्य, दो हजार धनुष्योंका बालाग्र, हेमक्य ऐरणवयके मनु योंका बालान पूर्ण एक गाउ ( वर्तमान कोस २ माइल) चार गाउ का एक महाविदेहक्षेत्रके मनुष्योंका बालान: भरत ऐरावत क्षेत्रके योजन होता है।
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वर्ष ३, किरण ८-१]
जैनागमोंमें समय-गणना
उतने कालका एक सूक्ष्म उद्धार पल्योपम होता है। प्रति समय अपहरण करते हुए जितना समय लगे उसे
३ व्यवहार श्रद्धापल्योपमः-उपरोक्त कुएँको सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम कहते हैं । व्यवहारिक उद्धारके उपर्युक्त विधिसे भरकर दबे हुए दश क्रोडाकोड़ी पल्योपमका एक सागरोपम होता है। केशखण्डोंमें एक एक केशको सौ सौ वर्षों बाद निकाले पल्योपमके ६ भेदोंके अनुसार सागरोपमके भी ६ भेद जाने पर जब कुंश्रा खाली हो जाय तब उतने समयको हो सकते हैं । ऐसे दश क्रोड़ा फोड़ी सूक्ष्म अद्धा सागरोव्यवहारिक श्रद्धापल्योपम कहते हैं। .
पमोंकी १ उत्सपिणी या १ अवसर्पिणी होती है । इन ४ सूक्ष्म श्रद्धापल्योपमः-पूर्वोक्त कुएँ को १ दोनोंको मिलाने से अर्थात् २० कोडाकोड़ी सागरोपमका दिनसे ७ दिन के बढ़े हुए केशोंके असंख्य टुकड़े करके एक काल चक्र होता है । इससे अधिक समयको अनंत पर्ववत् विधिसे दबा कर भर दिया जाय और फिर सौ काल कहते हैं । सौ वर्ष अनन्तर एक एक केशखंड निकाला जाय। इस प्रकार जैनागमोंमें वर्णित समयगणनाका जितने कालमें वह कुश्रा खाली हो जाय, उतने काल संक्षेपसे निरुपण किया गया है । यह निरुपण अनुयोगद्वार को सूक्ष्म अद्धापल्योपम कहते हैं।
सूत्र एवं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के आधारसे लिखा गया है। ___ ५ व्यवहार क्षेत्र पल्योपम-व्यवहार उद्धार जो कि मूल एवं सपांग ग्रंथ माने जाते हैं ज्योतिष-करंड पल्योपमके केशयोंने जितने अाकाश प्रदेशको स्पर्श पयन्ना और अन्य बाद के ग्रन्थों में इस निरुपणसे कुछ किया है, उतने आकाश प्रदेशोंमेंसे एक एकको प्रति तारतम्य भी पाया जाता है, पर लेख विस्तारके भयसे समयमें अपहरण करने में जितना काल लगे उसे व्यव- उसकी आलोचना यहाँ नहीं की गई । विशेष जाननेके हारिक क्षेत्र पल्योपम कहते हैं (आकाशके प्रदेश केश- इच्छुक जिज्ञासुओंको 'लोकप्रकाश' एवं अर्हतदर्शनखण्डोंसे भी अधिक सूक्ष्म हैं।
दीपिकादि ग्रन्थ देखने चाहिये । जैनागमोंमें वर्णित ६ सूक्ष्मक्षेत्रपल्योपमः-सूक्ष्म उद्धार पल्योपमके समय गणनाकी बौद्ध एवं वैदिक प्राचीन साहित्यसे केश खण्डोंसे जितने आकाश प्रदेशोंका स्पर्श हुश्रा हो तुलना करना आवश्यक है। आशा है साहित्यप्रेमी और जिनका स्पर्श न भी हुआ हो,उनमेंसे प्रत्येक प्रदेशसे इस ओर प्रयत्नशील होंगे ।
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यति समाज
[ लेखक-श्री अगरचन्द नाहटा]
नागमों एवं कोषग्रन्थोंमें यति, साधु, मुनि, पालन करना 'असिधार पर चलने के समान हो' - निर्ग्रन्थ, अनगार और वाचंयम आदि शब्द कठिन बतलाया गया है । कहीं कहीं 'लोहेके चने एकार्थबोधक माने गये हैं * अर्थात् यति साधुका चबाने' का दृष्टान्त भी दिया गया है, और वास्तही पर्यायवाची शब्द है, पर आज कल इन दोनों वमें है भी ऐसा ही। जैनधर्म निवृत्ति प्रधान है,और शब्दोंके अर्थमें रात और दिनका अन्तर है । इस मनुष्य-प्रकृतिका झुकाव प्रवृत्तिमार्गकी ओर का कारण यह है कि जिन जिन व्यक्तियों के लिये अधिक है-पौद्गलिक सुखोंकी ओर मनुष्यका इन दोनों शब्दोंका प्रयोग होता है, उनके आचार- एक स्वाभाविक आकर्षण-सा है । सुतरां जैन सा. विचारमें बहुत व्यवधान हो गया है । जो यति ध्वाचारों के साथ मनुष्य-प्रकृतिका संघर्ष अवश्यशब्द किसी समय साधुके समान ही आदरणीय म्भावी है। इस संघर्ष में जो विजयी होता है, वही था, आज उसे सुन कर काल-प्रभावसे कुछ और सच्चा साधु कहलाता है । समय और परिस्थिति ही भाव उत्पन्न होते हैं। शब्दोंके अर्थमें भी समय बहुत शक्तिशाली होते हैं; उनका सामना करना के प्रभावसे कितना परिवर्तन हो जाता है, इसका टेढ़ी खीर है। इनके प्रभावको अपने ऊपर न यह ज्वलन्त उदाहरण है।
लगने देना बड़े भारी पुरुषार्थका कार्य है । अतः जैनधर्ममें साधुओंके आचार बड़े ही कठोर इस प्रयत्नमें बहुतसे व्यक्ति विफल-मनोरथ ही और दुश्चरणीय हैं । अतएव उनका यथारीति नजर आते हैं । विचलित न होकर, मोरचा बाँध * अथ मुमुक्षुः श्रमणो यतिः ॥ ७॥ वाचयंमो
कर डटे रहने वाले वीर बिरले ही मिलेंगे । भगव्रती साधुरनगार ऋषिमुनिः, निम्रन्थो भिक्षुः। यतते ।
वान् महावीरने यही समझ कर कठिनसे कठिन मोक्षायेति यतिः (मोक्षमें यत्न करने वाला यति है)।
आचार-विचारको प्रधानता दी है। मनुष्य प्रकृति
जितनी मात्रामें आरामतलब है, उतनी ही मात्रामें यतं यमनमस्त्यस्य यती ( नियमन, नियंत्रण रखने वाला यति है।)
कठोरता रखे बिना पतन होते देर नहीं लगती । --अभिधानचिन्तामणि । आचार जितने कठोर होंगे, पतनमें भी उतनी ___ जइ (पु० ) यति, साधु, जितेन्द्रिय संन्यासी देरी और कठिनता होगी। यह बात अवश्य है कि (औपपातिक, सुपार्श्व, पाइप्रस इमहण्णवो भा० २ उत्थानमें जितना समय लगता है, पतनमें उससे
कहीं कम समय लगता है फिर भी एक पैड़ीसे गिरे
पृ० ४२७)
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वर्ष ३, किरण ८-६]
यति-समाज
हुए मनुष्य और पचास पैड़ीसे गिरे हुए मनुष्यमें बौद्ध और वैष्णवोंकी भांति अवस्था हुए बिना समयका अन्तर अवश्य रहेगा।
नहीं रहती। पर यह भी तो मानना ही पड़ेगा कि अब साध्वाचारकी शिथिलताके कारणों एवं परिस्थितिने जैन मुनियों के प्राचारोंमें भी बहुत इतिहासकी कुछ आलोचना की जाती है, जिससे कुछ शिथिलता प्रविष्ट करादी। उसी शिथिलताका वर्तमान यति-समाज अपने आदर्शसे इतना दूर चरम शिकार हमारा वर्तमान यति-समाज है। क्यों और कैसे हो गया? इसका सहज स्पष्टीकरण इस परिस्थितिके उत्पन्न होनेमें मनुष्य प्रकृति हो जायगा; साथ ही बहुतसी नवीन ज्ञातव्य बातें के अलावा और भी कई कारण हैं जैसे (१) पाठकोंको जाननेको मिलेंगी।
बारहवर्षीय दुष्काल, (२) राज्य विप्लव, (३) अभगवान महावीरने भगवान पार्श्वनाथके न्य धर्मों का प्रभाव, (४) निरंकुशता, (५) समयकी अनुयाइयोंकी जो दशा केवल दो सौ ही वर्षों में अनुकूलता, (६) शरीर-गठन और (७) संगठनहो गई थी, उसे अपनी आँखों देखा था । अतः शक्ति की कमी इत्यादि । उन्होंने उन नियमोंमें काफी संशोधन कर ऐसे प्रकृतिके नियमानुसार पतन एकाएक न होकर कठिन नियम बनाये कि जिनके लिये मेधावी क्रमशः हुआ करता है । हम अपने चर्मचक्षु और श्रमणकेशी जैसे बहुश्रुतको भी भगवान गौतमसे स्थूलबुद्धिसे उस क्रमशः होनेवाले पतनकी कल्पना उनका स्पष्टीकरण कराना पड़ा है। सूत्रकारों ने भी नहीं कर सकते, पर परिस्थिति तो अपना उसे समयकी आवश्यकता बतलाई और कहा कि काम किये ही जाती है। जब वह परिवर्तन बोधप्रभु महावीरसे पहलेके व्यक्ति ऋजुप्राज्ञ थे और गम्य होता है, तभी हमें उसका सहसा भान होता महावीर-शासन कालके व्यक्तियों का मानस उससे है-"अरे ! थोड़े समय पहले ही क्या था और बदल कर वक्र जड़की ओर अग्रसर हो रहा था । अब क्या हो गया ? और हमारे देखते देखते दो सौ वर्षों के भीतर परिस्थितिने कितना विषम ही ?" यही बात हमारे साधुओं की शिथिलताके परिवर्तन कर डाला, इसका यह स्पष्ट प्रमाण है। बारेमें लागू होती है। बारह वर्षके दुष्काल आदि महावीरने वस्त्र परिधानकी अपेक्षा अचेलकत्वको कारणोंने उनके आचारको इतना शिथिल बना अधिक महत्व दिया, और इसी प्रकार अन्य कई दिया कि वह क्रमशः बढ़ते बढ़ते चैत्यवासके रूप नियमोंको भी अधिक कठोर रूप दिया। में परिणत हो गया। चैत्यवासको उत्पत्तिका समय
भगवान महावीरकी ही दूरदर्शिताका यह पिछले विद्वानोंने वीरसंवत् ८८२ में बतलाया है, सुफल है कि आज भी जैन साधु संसारके किसी पर वास्तव में वह समय प्रारम्भका न होकर मध्य भी धर्मके साधुओंसे अधिक सात्विक और कठोर कालका है * । जैसा कि ऊपर कहा गया है कि नियमों-आचारोंको पालन करने वाले हैं । अन्यथा परिवर्तन बोधगम्य हुए बिना हमारी समझमें नहीं के उत्तराध्ययन सूत्र "केशी-गौतम-अध्ययन"
पुरातत्वविद् श्री कल्याणविजयजीने भी प्रभाकल्पसूत्र
वक चरित्र पर्यालोचनमें यही मत प्रकाश किया है।
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आ सकता ।
अनेकान्त
हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि भविष्य जब पतन या उत्थानका होता है तब एक ही ओरसे पतन या उत्थान नहीं होता, वह चारों ओर से प्रवेश कर अपना घर बना लेता है । यही बात जैनश्रमणसंस्था पर लागू है । जैनागमोंके अनुशीलनसे पता चलता है कि पहले ज्ञानबल घटने लगा । जंबुस्वामीसे केवलज्ञान विच्छेद हो गया, भद्रबाहु से ११ से १४ पूर्व का अर्थ, स्थूलभद्र मे ११ से १४ वाँ पूर्व मूल और वज्रस्वामिसे १० पूर्वका ज्ञान भी विच्छिन्न होगया । इस प्रकार क्रमशः ज्ञान बल घटा और साथ ही साथ चारित्रकी उत्कट भावनायें एवं आचरणायें भी कम होने लगीं । छोटी-बड़ी बहुत कमजोरियोंने एक ही साथ आ दबाया। इन साधारण कमजोरियोंको नगण्य समझ कर पहले तो उपेक्षा की जाती है । पर एक कमजोरी आगे चलकर – प्रकट होकर - पड़ोसिन बहुत सी कमजोरियों को बुला लाती है, यह बात हमारे व्यावहारिक जीवनसे स्पष्ट है । प्रारम्भ में जिस शिथिलताको, साधारण समझकर अपवाद मार्ग के रूपमें अपनाया गया था, वही आगे चल कर राजमार्ग बन गई । द्वादश वर्षीय दुष्काल में मुनियोंको अनिच्छा से भी कुछ दोषोंके भागी बनना पड़ा था, पर दुष्काल निवर्तनके पश्चात् भी उनमें से कई व्यक्ति उन दोषोंको विधानके रूपमें स्वीकार कर खुल्लमखुल्ला पोषण करने लगे । उन की प्रबलता और प्रधानता के आगे सुविहिताचारी
+ इस सम्बन्धमें दिगम्बर मान्यता के लिये " धनेकान्त" वर्ष ३ किरण १ में देखें ।
[ ज्येष्ठ, श्राषाढ़, वीर निर्वाण सं० २४६६
मुनियोंकी कुछ नहीं चल सकी ।
सम्राट संप्रति के समय में जैन मंदिरों की संख्या बहुत बढ़ गई । मुनिगण इन मन्दिरोंको अपने ज्ञान-ध्यान के कार्य में साधक समझ कर वहीं उतरने लगे । वनको उपद्रवकारक समझ कर, क्रमशः वहीं ठहरने एवं स्थायी रूप से रहने लगे । इस कारण से उन मन्दिरोंकी देखभाल का काम भी उनके जिम्मे आ पड़ा, और क्रमशः मन्दिरों के साथ उनका सम्पर्क इतना बढ़ गया कि वे मन्दिरों
अपनी पैतृक सम्पत्ति ( बपौती) समझने लगे । चैत्यवासका स्थूलरूप यहीं से प्रारम्भ हुआ मालूम पड़ता है । एक स्थानमें रहने के कारण लोकसंसर्ग बढ़ने लगा, कई व्यक्ति उनके दृढ़ अनुयायी और अनुरागी हो गये । इसीसे गच्छोंकी बाड़ाबन्दीकी नींव पड़ी। जिस परम्परामें कोई समर्थ आचार्य हुआ और उनके पृष्ठपोषक तथा अनुयायियों की संख्या बढ़ी, वही परम्परा एक स्व गच्छरूप में परिणत हो गई। बहुत से गच्छों के नाम तो स्थानोंके नामसे प्रसिद्ध हो गये। रुद्रपल्लीय, संडेरक उपकेश इत्यादि इस बात के अच्छे उदाहरण हैं । कई उस परम्परा के प्रसिद्ध आचार्य के किसी विशिष्ट कार्य से प्रसिद्ध हुए, जैसे खरतर, तपा आदि । विद्वत्ता आदि सद्गुणांके कारण उनके प्रभावका विस्तार होने लगा और राज
कहा जाता हैं सम्प्रतिने साधुयोंकी विशेष भक्ति से प्रेरित होकर कई ऐसे कार्य किये जिससे उनको शुद्ध आहार मिलना कठिन हुआ और राजाश्रयसे शिथिलता भी था घुसी।
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वर्ष ३, किरण ८-६]
यति-समाज
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दरबारोंमें भी उनकी प्रतिष्ठा जम गई । जनतामें तक नहीं मिलता था । पाटण उस समय उनका तो प्रभाव था ही, राजाश्रय भी मिल गया; बस केन्द्रस्थाने था । कहा जाता है कि वहाँ उस
और चाहिये क्या था ? परिग्रह बढ़ने लगा, समय चैत्यवासी चौरासी आचार्योंके अलग क्रमशः वह शाही ठाटबाट सा हो गया । गही अलग उपाश्रय थे । सुविहितोंमें उस समय श्री तकियोंके सहारे बैठना, पान खाना, स्नान करना, वर्द्धमानसूरिजी मुख्य थे। उनके शिष्य जिनेश्वरशारीरिक सौन्दर्यके बढ़ानेके साधनोंका उपयोग, सूरिसे जैनमुनियोंकी इतनी मार्गभ्रष्टता न देखी जैसे बाल रखना, सुगंधित तेल और इत्रफुलेलादि गई, अतः उन्होंने गुरु जीसे निवेदन किया कि सेवन करना, और पुष्पमालाओंको पहनना आदि पाटण जाकर जनताको सच्चे साधुत्व का ज्ञान विविध प्रकारके आगम-विरुद्ध आचरण प्रचलित कराना चाहिये, जिससे कि धर्म, जो कि केवल हो गये ।
बाहरके आडम्बरोंमें ही माना जाने लगा है,
वास्तविक रूपमें स्थापित हो सके। इन विचारों सुविहित मुनियों को यह बातें बहुत अखरी, के प्रबल आन्दोलनसे उनमें नये साहसका सञ्चार उन्होंने सुधारका प्रयत्न भी किया, पर शिथिला- हुआ और वे १८ मुनियोंके साथ पाटण पधारे । चारियोंके प्रबल प्रभाव और अपने पर्ण प्रयत्नके उस समय उन्हें वहाँ ठहरनेके लिये स्थान भी अभावके कारण सफल नहीं हो सके। समर्थ नहीं मिला, पर आखिर उन्होंने अपनी प्रतिभासे आचाय हरिभद्रसूरिने भी अपने संबोध-प्रकरण में स्थानीय राजपुरोहितको प्रभावित कर लिया, चैत्यवासियोंका बहुत कड़े शब्दोंमें विरोध किया और उसीके यहाँ ठहरे । जैसा कि पहले सोचा है। इस प्रकरणसे चैत्यवासका स्वरूप स्पष्ट रूपमें गया था, चैत्यवासियोंके साथ विरोध और प्रकट होता है । प्रसिद्ध कहावत है कि "पापका घडा मुठभेड़ अवश्यम्भावी थी उन लोगोंने जिनेश्वरभरे बिना नहीं फूटता" । समयके परिपाकके परे सूरिजीके आनेका समाचार पाते ही जिस किसी होने पर ही कार्य हुआ करते हैं । व्रण भी जब तक प्रकारसे उन्हें लाञ्छित कर निर्वासित करानेकी पूरा नहीं पक जाता, तब तक नहीं फटता । ग्यार- ठान ली। विरुद्ध प्रचार उनका पहला हथियार हवीं शताब्दीमें चैत्यवासियोंका प्राबल्य इतना बढ़ था। उन्होंने अपने कई शिष्यों और आश्रित गया कि सुविहितोंको उतरने या ठहरनेका स्थान व्यक्तियोंको यह कहा कि तुम लोग सवत्र इस
- बातका प्रचार करो कि "यह साधु अन्य राजोंके * विशेष जाननेके लिये देखें हरिभद्रसूरिजी छद्मवेशी गुप्तचर हैं, यहाँका अान्तरिक भेद प्राप्त रचित संवोध-प्रकरण, गणधरसार्द्धशतक वृहद वृत्ति, कर राज्यका अनिष्ट करेंगे । अतः इनका यहाँ संघपट्टकवृत्ति प्रादि । ५० बेचरदासजी रचित, जैन रहना मंगलजनक न होकर उलटा भयावह ही है । साहित्य माँ विकार थवाथी थयेली हानी' ग्रन्थमें भी जितनी शीघ्र हो सके इनको यहाँसे निकाल देना संबोध सत्तरीके आधारसे अच्छा प्रकाश डाला गया है। चाहिये। राष्ट्रके हितके लिये हमें इस बातका
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अनेकान्त
[ज्येष्ठ, प्राषाढ़, वीर-निर्वाण सं०२४६६
स्पष्टीकरण करना पड़ रहा है।" फैलते फैलते यह तपागच्छ आज भी विद्यमान हैं। वर्धनानसूरिजी बात तत्कालीन नपति दुर्लभराजके कानोंमें पहुँची के शिष्य जिनेश्वरसूरिने दुर्लभराजकी सभामें उन्होंने राजपुरोहितसे पूछा और उससे सच्ची (सं० १०७०-७५ ) चैत्यवासियों पर विजय प्राप्त वस्तुस्थिति जानने पर उनके विस्मयका पार न की, अतः खरे-सच्चे होने के कारण वह खरतर रहा, कि ऐसे साधुओंके विरुद्ध ऐसा घृणित और कहलाये और जगच्चन्द्रसूरिजीने १२ वर्षों की निन्दनीय प्रयत्न !
आयंबिलकी तपश्चर्या की इससे वे तपा (सं. . समयका परिपाक हो चुका था; चैत्यवासियों १२८५ ) कहलाये । इसी प्रकार अन्य कई गच्छों ने अन्य भी बहुत प्रयत्न किये, पर सब निष्फल का भी इतिहास है। हुए । इसके उपरान्त चैत्यवासियोंसे श्री जिनेश्वर- इसके बाद मुसलमानोंकी चढ़ाइयोंके कारण सूरिजीका शास्त्रार्थ हुआ, चैत्यवासियोंकी बुरी भारतवर्ष पर अशांतिके बादल उमड़ पड़े । उनका तरहसे हार हुई । तभीसे सुविहिताचारियोंका प्रभाव श्रमण-संस्था पर पड़े बिना कैसे रह सकता प्रभाव बढ़ने लगा । जिनवल्लभसूरि, जिनदत्तसूरि, था ? जनसाधारणके नाकों दम था । धर्मसाधनामें जिनचन्द्रसूरि और जिनपतिसूरि, इन चार आचा- भी शिथिलता आ गई थी क्योंकि उस समय योंके प्रबलपुरुषार्थ और असाधारण प्रतिभासे चै- तो लोगोंके प्राणों पर संकट बीत रहा था । त्यवासियोंकी जड़ खोखली हो गई। जिनदत्तसूरि- फलतः मुनियोंके आचरणमें भी काफी शिथिलता जी तो इतने अधिक प्रभावशाली समर्थ आचार्य आगई थी। यह विषम अवस्था यद्यपि परिस्थिति हुए कि विरोधी चैत्यवासियों से कई आचार्य स्वयं के आधीन ही हुई थी, फिर भी मनुष्यकी प्रकृतिके उनके शिष्य बन गये । जिनपतिसूरिजीके बाद तो अनुसार एक बार पतनोन्मुख होनेके बाद फिर चैत्यवासियोंकी अवस्था हतप्रभाव हो ही गई थी, सँभलना कठिनता और विलंबसे होता है। अतः उनकी शक्ति अब विरोध एवं शास्त्रार्थ तो दूरकी शिथिलता दिन-ब-दिन बढ़ने ही लगी। उस समय बात, अपने घरको संभाल रखनेमें भी पर्ण यत्र तत्र पैदल विहार . करना विघ्नोंसे परिपूर्ण समर्थ नहीं रही थी, कई आत्मकल्याणके इच्छुक था। यवनोंकी धाड़ अचानक कहींसे कहीं आपड़ती, चैत्यवासियोंने सुविहित मार्गको स्वीकार देखते देखते शहर उजाड़ और वीरान हो जाते । प्रचारित किया । उनकी परंपरासे कई प्रसिद्ध लूट खसोट कर यवन लोग हिन्दुओंके देवमन्दिरों गच्छ प्रसिद्ध हुए । खरतर गच्छके मूल-पुरुष को तोड़ डालते, लोगोंको बेहद सताते और भाँति वर्द्धमानसूरिजी भी पहले चैत्यवासी थे । इसी भांतिके अत्याचार करते । ऐसी परिस्थितिमें श्रावक प्रकार तपागच्छके जगच्चन्द्रसूरिजीने भी क्रिया. लोग मुनियोंकी सेवा संभाल-उचित भक्ति नहीं उद्धार किया । इन्हींके प्रमिद्ध खरतरगच्छ तथा कर सकं, तो यह अस्वभाविक कुछ भी नहीं है । ___ विशेष वर्णनके लिये देखें, सं० १२११ में शिथिलता क्रमशः बढ़ती ही गई, यहाँ तक रचित--"गणधर-सार्द्ध-शतकवृहद्वत्ति"। कि १६ वीं शताब्दीमें सुधारकी आवश्यकता आ
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वर्ष ३, किरण
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यति-समाज
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पड़ी ! चारों ओरसे सुधारके लिये व्यग्र आवाजें अपने गच्छके सुधार करने का निश्चय कर लिया सुनाई देने लगीं। वास्तवमें परिस्थितिने क्रांति-सी और इसी उद्देश्य से वे जिनकुशलसूरिजीको यात्रार्थ मचा दी। श्रावक समाजमें भी जागृति फैली। देरावर पधारे । पर भावी प्रबल है, मनुष्य सोचता सोलहवीं शताब्दीके पूर्वार्द्ध में प्रथम लोकाशाह कुछ है, होता कुछ और हो है । मार्ग ही में उनका (सं० १५३० ) ने विरोधकी आवाज उठाई, स्वर्गवास हो गया,अतः वे अपनी इच्छाको सफल कड़वाशाहने उस समयके साधुओंको देख वर्त- और कार्य में परिणत नहीं कर सके । उनके तिरोमान काल (१५६२ ) में शुद्ध साध्वाचारका भावके बाद उनके सुयोग्य शिष्य श्रीजिनचन्द्र सूरिपालन करना असंभव बतलाया और संवरी जीने अपने गुरुदेवकी अन्तिम आदर्श भावनाको श्रावकोंका एक नया पंथ निकाला, पर यह मूर्ति- सफलीभूत बनानेके लिये सं० १६१३ में बीकानेरमें पूजाको माना करते थे । लोकाशाहने मूर्तिपूजाका क्रिया-उद्धार किया * । इसी प्रकार तपागच्छमें भी विरोध किया, पर सुविहित मुनियोंके शास्त्रीय आनन्दविमलसूरिजोने सं० १५८२ में, नागोरी प्रमाण और युक्तियों के मुकाबले उनका यह विरोध तपागच्छके पार्श्वचन्द्रसूरिजोने सं० १५६५ में, टिक नहीं सका । पचास वर्ष नहीं बीते कि उन्हीं अञ्चलगच्छके धर्ममूर्तिसूरिजीने सं० १६१४ में ' के अनुयायियोंमेंसे बहुतोंने पुन: मूर्तिपूजाको स्वी- क्रिया-उद्धार किया। कार कर लिया ,बहुतसे शास्त्रार्थ में पराजित होकर सत्रहवीं शताब्दीमें साध्वाचार यथारीति सुविहित मुनियोंके पास दीक्षित होगये । सुविहित पालन होने लगा। पर वह परम्परा भी अधिक मुनियोंकी दलीलें शास्त्रसम्मत,प्रमाणयुक्त, युक्तियुक्त दिन कायम नहीं रह सकी,फिर उप्ती शिथिलताका
और समीचीन थीं, उनके विरुद्ध टिके रहनेकी आगमन होना शुरू हो गया; १६८७ के दुष्कालका विद्वत्ता और सामर्थ्य विरोधियोंमें नहीं थी। भी इसमें कुछ हाथ था । अठारहवीं शताब्दीके
इधर आत्मकल्याणके इच्छुक कई गच्छोंके पूर्वार्धमें शिथिलताका रूप प्रत्यक्ष दिखाई देने आचार्योंमें भी अपने अपने समुदाय के सुधार करने लगा,खरतरगच्छमें जिनसूरिजीके पट्टधर जिनचन्द्र की भावनाका उदय हुआ; क्योंकि जो व्यक्ति स्वयं सूरिजीने शिथिलाचार पर नियंत्रण करने के लिये शास्त्रविहित मार्गका अनुसरण नहीं करता, लसका विशेष जानने के लिये देखें हमारे द्वारा लिखित प्रभाव दिन-ब-दिन कम होता चला जाता है । खर- 'युग-प्रधान जिनचन्द्र सूरि' ग्रन्थ । तरगच्छके आचार्य श्री जिनमाणिकक्य सूरिजीने इस दुष्कालका विशद वर्णन कविवर समय
उदाहरणके लिये सं० १५५७ में लोंकामतले सुन्दरने किया है, जो कि मेरे लेखके साथ श्री जिनबीजामत निकला जिसने मूर्तिपूजा स्वीकृत की । (धर्म- विजयजी द्वारा सम्पादित 'भारतीय विद्या' के दूसरे सागर-रचित पदावली एवं प्रवचन परीक्षा)। जैनेतर अंकमें शीघ्र ही प्रगट होगा। इस दुष्कालके प्रभावसे समाजमें मी इस समय कई मूर्तिपूजाके विरोधी मत उत्पन्न हुई शिथिलताके परिहारार्थ समयसुन्दरजीने सं० निकले पर अन्तमें उन्होंने भी मूर्तिपूजा स्वीकार की। १६६२ में क्रिया-उद्धार किया था।
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सं० १७१८ की विजयादशमीको ) कुछ नियम । बनाये | एक बातका स्पष्टीकरण करना यहाँ आव
+ समय समय पर गच्छुकी सुव्यवस्थाके लिये ऐसे कई व्यवस्थापत्र तपा और खरतर गच्छ के आचार्योंने जारी किये जिनमें से प्रकाशित व्यवस्थापत्रों की सूची इस प्रकार है: --
१ जिनप्रभसूरि (चौदहवीं शताब्दी ) का ' व्यवस्थापत्र' ( प्र० जिनदत्त सूरि चरित्र - - जयसागर सूरि लि० )
२ तपा सोमसुन्दर सूरि-रचित संविज्ञ साधु योग्य कुलकके नियम (प्र० जैनधर्म प्रकाश, वर्ष ५२ अंक ३ पृ०३ )
३ सं० १९८३ उयेष्ट पट्टन में तपागच्छीय श्रानन्द विमल सुरिजीका 'मर्यादापट्टक' ( प्र० जैनसत्यप्रकाश वर्ष २ अङ्क ३ पृ० ११२ )
४ सं० १६१३ यु० जिनचन्द्रसूरिजीका क्रियाउद्धार नियम पत्र ( प्र० हमारे द्वारा लि० युगप्रधान निचन्द्रसूरि ) M
[ ज्येष्ठ, आषाढ़, वीर- निर्वाण सं० २४६६
श्यक है कि यद्यपि शिथिलाचार अपना प्रभाव दिन ब दिन बढ़ा रहा था फिर भी उस समय अवस्थाका बहुत कुछ परिचय मिलता है । नं० ह व्यवस्थापत्र प्रकाशित होनेके कारण उससे तत्कालीन परिस्थितिका जो तथ्य प्रकट होता है वह नीचे लिखा जाता है:--
१ यतियों में क्रय-विक्रयकी प्रथा जोर पर हो चली थी, श्रावकों की भाँति ब्याज बट्टेका काम भी जा हो चुका था, पुस्तकें लिख लिख कर बेचने लगे थे । शिक्षादिका भी क्रय विक्रय होता था ।
२ वे उद्भट उज्वल वेष धारण करते थे। हाथमें धारण करने वाले दंडे के ऊपर दाँतका मोगरा और नीचे लोहेकी साँब भी रखते थे ।
३ यति लोग पुस्तकोंके भारको वहन करने के लिये शकट, ऊंट, नौकर आदि साथ लेते थे ।
४ ज्योतिष वैद्यक यादिका प्रयोग करते थे; जन्म पत्रियाँ बनाते व औषधादि देते थे ।
५ धातुका भाजन, धातुकी प्रतिमादि रख पूजन करते थे
1
५ सं० १६४६ पो०सु० १३ पत्तने हीरविजय सूरि पट्टक ( जैनसत्य प्रकाश वर्ष २ अङ्क २ पृ० ७५ )
६ सं० १६७७ वै० सु० ७ सावली में विजयदेव सूरिका 'साधुमर्यादापट्टक' ( प्र० जैनधर्म प्रकाश वर्ष ५२ अङ्क १ पृ० १७ )
७ सं० १७११ मा० सु० १३ पत्तन, विजय सिंह सूरि ( प्र० जै० धर्म प्रकाश वर्ष ५२ अंक २
go++) ८ सं० १७३८ मा०सु० ६ 'विजय समासूरि पट्टक' ( जैन सत्यप्रकाश वर्ष २ अंक ६ पृ० ३७८ ) उपर्युक्त जिनचन्द्रसूरिजीका पत्र प्रकाशित हमारे संग्रह में है ।
इन मर्यादा-पट्टोंसे तत्कालीन यति समाजकी संग्रहमें भी हैं )
६ सात आठ वर्षसे छोटे एवं श्रशुद्ध जातिके बालकों को शिष्य बना लेते थे, लोच करनेके विषय में एवं प्रतिक्रमण की शिथिलता थी ।
७ साध्वियोंको विहारमें साथ रखते थे व ब्रह्मचर्य यथारीति पालन नहीं करते थे ।
८ परस्पर झगड़ा करते थे, एक दूसरेकी निन्दा करते थे
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( अठारहवीं शताब्दी के यति और श्री पूज्योंके पारस्परिक युद्धों तथा मारपीट के दो बृहद वर्णन हमारे
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वर्ष ३, किरण ८.]
यति-समाज
जैनाचार्योंका प्रभाव साधु एवं श्रावक संघ पर कर यतिनियोंको दीक्षा देना बन्द कर दिया। बहुत अच्छा था, अतः उनके नियंत्रणका बड़ा इनमें खरतर गच्छ के जयपुर शाखा वाले भी एक भारी प्रभाव पड़ता था। उनके आदेशका उल्लंघन हैं। उन्नीसवीं शताब्दीके पूर्वार्द्ध में तो यति लोग करना मामूली बात नहीं थी, उल्लंघनकारीको मालदार कहलाने लग गये । परिग्रहका बोझ एवं उचित दण्ड मिलता था। आज जैसी स्वच्छन्द- विलासिता बढ़ने लगी। राजसम्बन्धसे कई गाँव चारिता उस समय नहीं थी। इसीके कारण सुधार जागीरके रूपमें मिल गये, हजारों रुपये वे ब्याज होने में सरलता थी।
पर धरने लगे, खेती करवाने लगे, सवारियों पर अठारहवीं शताब्दीमें गच्छ-नेता गण स्वयं चढ़ने लगे,स्वयं गाय,भैंस,ऊँट इत्यादि रखने लगे। शिथिलाचारी हो गये, अतः सुधारकी ओर उनका संक्षेपमें इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि वे एक लक्ष्य कम हो गया । इस दशामें कई आत्मकल्या- प्रकारसे घर-गृहस्थोसे बन गये । उनका परिग्रह णेच्छुक मुनियोंने स्वयं क्रिया उद्धार किया । उनमें, राजशाही ठाट-बाट-सा हो गया । वैद्यक, ज्यो
खरतर गच्छमें श्रीमद्देवचन्द्रजी (सं० १७७७ ) तिष, मंत्र तंत्रमें ये सिद्धहस्त कहलाने लगे और . और तपागच्छमें श्रीसत्यविजयजी पन्यास प्रसिद्ध वास्तवमें इस समय इनकी विशेष प्रसिद्धि एवं हैं। उपाध्याय यशोविजयजी भी आपके सहयोगी प्रभावका कारण ये ही विद्याएँ थीं । अठारहवीं बने इस समयकी परिस्थितिका विशद विवरण शताब्दीके सुप्रसिद्ध सुकवि धर्मवर्द्धनजीने भी उपाध्याय यशोविजयजीके "श्रीमंधरस्वामी" अपने समयके यतियोंकी विद्वत्ता एवं प्रभावके विनती आदिमें
विषयमें कवित्त रचना करके अच्छा वर्णन किया ___ अठारहवीं शताब्दीके शिथिलाचारमें द्रव्य है। रखना प्रारम्भ हुआ था । पर इस समय तक यति औरङ्गजेबके समयसे भारतकी अवस्था फिर समाजमें विद्वत्ता एवं ब्रह्मचर्य आदि सद्गुणोंकी शोचनीय हो उठी, जनताको धन-जन उभय कमी नहीं थी। वैद्यक, ज्योतिष आदिमें इन्होंने प्रकारकी काफी हानि उठानी पड़ी । आपसी लड़ाअच्छा नाम कमाना आरम्भ किया । आगे चल इयोंमें राज्यके कोष खाली होने लगे तो उन्होंने भी कर उन्नीसवीं शताब्दीसे यति-समाजमें दोनों प्रजासे अनुचित लाभ उठा कर द्रव्य संग्रहकी ठान दुर्गुणों ( विद्वत्ताकी कमी और असदाचार ) का ली । इससे जनसाधारणकी आर्थिक अवस्था प्रवेश होने लगा। आपसी झगड़ोंने आचार्योंकी बहुत गिर गई; जैन श्रावकोंके पास भी नगद सत्ता और प्रभावको भी कम कर दिया। १८ वीं रुपयोंकी बहुत कमी हो गई । जिनके पास ५-१० शताब्दीके उत्तरार्द्ध में क्रमशः दोनों दुगुण बढ़ते हजार रुपये होते वे तो अच्छे साहूकार गिने जाते नजर आते हैं । वे बढ़ते बढ़ते वर्तमान अवस्थामें थे, साधारणतया ग्राम-निवासी जनताका मुख्य उपस्थित हुए हैं । कई श्रीपूज्योंने यतिनियोंका आधार कृषिजीवन था, फसलें ठीक न होनेके दोक्षित करना व्यभिचारके प्रचारमें साधक समझ कारण उसका भी सहारा कम होने लगा, तब
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अनेकान्त [ज्येष्ठ, आषाद, वीर-निर्वाण सं०२४६५ श्रावक लोग, जो साधारण स्थितिके थे, यतियोंके बहुत कम मिलते हैं ) और वह घटने घटते वर्त्तपास ब्याज पर रुपये लेने लगे । अतः आर्थिक मान अवस्थाको प्राप्त हो गई। सहायताके कारण कई श्रावक यतियोंके दबेलसे यतिसमाजकी पर्वावस्था के इतिहास पर बन गये. कई वैद्यक-तंत्र-मंत्र आदि द्वारा अपने सरसरी तौरसे ऊपर विचार किया गया है। इस स्वार्थ साधनोंमें सहायक एवं उपकारी समझ उन्हें
उत्थान-पतनकालके मध्यमें यतिसमाजमें धुरंधर मानते रहे, फलतः संघसत्ता क्षीण-सी हो गई। विद्वान, शासन प्रभावक, राज्यसन्मान-प्राप्त अनेक यतियोंको संघसत्ता द्वारा भूल वतला कर पुन: महापुरुष हो गये हैं, जिन्होंने जैनशासन की बड़ी कर्तव्य पथ पर आरूढ़ करनेकी मामयं उनमें भारी सेवा की है. प्रभाव विस्तार किया है, अन्य नहीं रही। इससे निरंकुशता एवं नेतृत्वहीनताके आक्रमणोंसे रक्षा की एवं लाखों जनंतरोंको जैन कारण यति समाज में शिथिलाचार म्वच्छंदतासे बनाया. हजारों अनमोल ग्रंथरनोंका निर्माण किया पनपने एवं बढ़ने लगा। यतिसमाजने भी रुख जिसके लिये जैन समाज उनका चिर ऋणी बदल डाला । धर्मप्रचारके माथ माथ परोपकार रहेगा। अब यति समाजकी वर्तमान अवस्थाका को उन्होंने स्वीकार किया. श्रावक आदि के बालकों अवलोकन करते हुए इसका पुन: उत्थान कैसे हो को वे पढ़ाई कराने लगे, जन्मपत्री बनाना, मुइ. सकता है। इस पर मैं अपन विचार प्रकट करता
दि बतलाना रोगों के प्रतिकारार्थ औषधोपचार हूँ । यद्यपि वर्तमान अवस्था * का वास्तविक चाल करने लगे जिनसे उनकी मान्यता पूर्ववत् चित्र देनेसे तो लेखके अश्लील अथवा कुछ बातों बनी रहे।
के कटु हो जानेका भय है एवं वह सबके सामने उनकी विद्वताकी धाक राल दरबारोंमें भी ही है, अतः विशद वर्णनकी आवश्यकता भी नहीं अच्छी जमी हुई थी, अतः राजाओंमे पन्हें अच्छा प्रतीत होती ! फिर भी थोड़ा स्वरूप दिखलाये सन्मान प्राप्त था, अपने चमत्कारोंसे उन्होंने बिना भविष्य के सम्बन्धमें कुछ कहना उचित नहीं काफी प्रभाव बढ़ा रक्खा था । इस राज्य-सम्बन्ध होगा। एवं प्रभावके कारण स्थानकवामी मत निकला
जो पहले साधु या मुनि कहलाते थे, वे ही तब उनके माधुओंके लिये इन्होंने बीकानेर, जोध
यति कहलाते हैं । पतनकी करीब करीब चरम पुर आदिसे ऐसे आज्ञापत्र भी जारी करवा दिये
सीमा हो चुकी है । नो शास्त्रीय ज्ञानको अपना . थे जिनसे वे उन राज्यों में प्रवेश भी नहीं कर मकें।
आभूषण समझते थे, ज्ञानोपासना जिनका व्यसन १८ वीं शताब्दी तक यति-समाजमें ज्ञानो
सा था,वे अब आजीविका,धनोपार्जन और प्रतिष्ठा. पासना सतत चालू थी, अत: उनके रचित बहतसे अच्छे अच्छे ग्रन्थ इस समय तकफे मिलते हैं। इसका संक्षेप में कुछ वर्णन कालरामजी बरढ़िया
11 005 प्राताजी सानोपामना क्रमशः घटती लिखित 'प्रोसवाल समाजकी वर्तमान परिस्थिति' ग्रंथ ..चली अतः इस शताब्दी विडताणा ग्रन्थ में भी पाया जाता
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वर्ष ३, किरम -६]
यति-समाज
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रक्षाके लिये वैद्यक, ज्योतिष और मंत्र-तंत्रके ज्ञान ( बद्धमुष्टिकटिग्रीवा, मददृष्टिरधोमुखम् ) को ही मुख्यता देने लगे हैं। कई महात्मा तो ऐसे कष्टेन लिख्यते शास्त्र, बस्नेन परिपालयेत् ॥" मिलेंगे जिन्हें प्रतिक्रमण के पाठ भी पूरे नहीं आते। एवं ग्रन्थों की सुरक्षाकी व्यवस्था करते हुये गम्भीर शास्त्रालोचन के योग्य तो अब शायद ही लिखा हैकोई व्यक्ति खोजने पर मिले । क्रियाकाण्डोंको जो
जखाद्रक्षेत् स्थलाद्रक्षेत् रक्षत् शिथिलबन्धनात् । करवा सकते हों (प्रतिक्रमण, पोसह, पर्व-व्या
मूर्खहस्ते न दातव्या एवं वदति पुस्तिका ॥ ख्यान-वाचन, तप उद्यापन एवं प्रतिष्ठा विधि ) वे
अग्ने रक्षेत् जलादचेत् मूषकेभ्यो विशेषतः । अब विद्वान गिने जाने लगे हैं।
(उदकानिलचौरेभ्यो मूषकेभ्यो हुताशनात् ।) जिस ज्ञानधनको उनके पूर्वजोंने बड़े ही कष्ट कष्टेन लिखितं शास्त्रं यत्नेन परिपालयेत् ॥ सं लिख लिख कर संचित एवं सुरक्षित रखा, वे मुनि आधारकी तो गंध भी नहीं रहने पाई; अमूल्य हस्तलिखित ग्रन्थोंको सँभालते तक नहीं। पर जब हम उन्हें भावकों के कर्त्तव्यसे भी च्युत वे ग्रंथ दीमकों के भक्ष्य बन गये, उनके पृष्ट नष्ट हो देखते हैं. सब कलेजा धडक उठता है, बुद्धि भी गये, सर्दी आदिमे सुरक्षा न कर सकने के कारण कुछ काम नहीं देती कि हुमा क्या? भगवान महाग्रन्थोंके पत्र चिपक कर थेपड़े हो गये । ( हमारे वीरकी वाणीको सुनाने वाले उपदेशकों की भी संग्रहगं ऐसे अनेक ग्रंथ सुरक्षित हैं)। नवीन क्या यह हालत हो सकती है ? जिस बातकी रचनेकी विद्वत्ता तो सदाके लिये प्रणाम कर बिदा सम्भावना तो क्या, कल्पना भी नहीं की जा स. हुई; पुराने संचित झानधनकी भी इतनी दुर्दशा हो . कती, आज वह हमारे सामने उपस्थित है । बहुतों रही है कि सहृदय व्यक्तिमात्रको सुन कर आँसू के तो न रात्रिभोजन का विचार, न अभक्ष्य वस्तुबहाने पड़ रहे हैं। सहज विचार आता है कि इन ओंका परहेज, न सामायिक प्रतिक्रमण या क्रियाग्रंथोंको लिखते समय उनके पूर्वजोंने कैसे भव्य काण्ड और न नवकारसीका पता । आज इनमें मनोरथ किये होंगे कि हमारे सपूत इन्हें पढ़ पढ़ कई व्यक्ति तो भांग-गाँजा आदि नशैली चीजोंका कर अपनी आत्मा एवं संसारका उपकार करेंगे। संबन करते हैं, यामारोंमें वृष्टि आदिका सौदा पर आज अपने ही योग्य वंशजोंके हाथ इन ग्रंथों करते हैं। उपाश्रयों में रसोई बनाते हैं, व्यभिचारका की ऐसी दुर्दशा देखकर पूर्वजोंकी स्वर्गस्थ श्रात्मा- बोलबाला है । अतएव जगतकी दृष्टिमें वे बहुत एं मन ही मन न जाने क्या सोचती होंगी ? --
श्वेताम्बर समाजमें जिस प्रकार यति समाज है; उन्होंने अपने ग्रंभोंकी प्रशस्तियों में कई बातें ऐसी
दिगम्बर समाजमें लगभग वैसे ही भट्टारक प्रणालीका लिख रखी हैं कि उन्हें ध्यानसे पढ़नेवाला कोई भी
इतिहास प्रादि जानने के लिये जैनहितैषीमें श्रीनाथूरामव्यक्ति ऐसा काम नहीं कर सकता ।।
जी प्रेमीका निबंध एवं जैनमित्र कार्यालय सूरतसे "भग्नपृष्ठिकटिग्रीवा, वक्रदृष्टिरधोमुखम् । प्राप्त "भट्टारक-मीमांसा" ग्रन्थ पढ़ना चाहिये ।।
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गिर चुके हैं। पंच महाव्रतोंका तो पता ही नहीं, अणुव्रतधारी श्रावकों से भी इनमें से कई तो गये हैं।
गया,
कहाँ तक कहें - विद्वत्ता भी गई, सदाचार भी इसीलिये स्थानकवासी एवं तेरह पन्थियोंकी बन आई, वे उनके चरित्रोंको वर्णन कर अपने अनुयायियोंकी संख्या बढ़ाने लगे । जैनेतर लोग गुरुजी के चरित्रों को लेकर मसखरी उड़ाने लगे जिनके पूर्वजोंने नवीन नवीन ग्रंथ रचकर अजैनों को जैन बनाया, अपनी विद्वत्ता एवं आचारविचारके प्रभावसे राजाओं तथा बादशाहों पर धाक जमाई, वे ही आज जैनधर्मको लाँछित कर रहे हैं !
+ इसीलिये राजपूताना प्रातीय प्रथम यति सम्मेलन (संबंत १६६१, बीकानेर ) में निम्नलिखित प्रस्ताव पास किये गये थे। खेद है उनका पालन नहीं हो सका--- (१) उद्भट वेश न रखना । (२) दवा आदिके सिवा जमीकन्द आदिके त्यागका भरसक प्रयत्न करना ( ३ ) दवा आदिके सिवा पंच तिथियों में हरी वनस्पति आदिके त्यागका भरसक प्रयत्न करना ( ४ ) रात्रि भोजनके त्यागकी चेष्टा करना । (१०) आवश्यकता के सिवाय रातको उपाश्रयसे बाहर न होना ( २० ) श्रग्रेज़ी फैशनके बाल न रखना (२२) दीक्षित यतिको साग सब्जी खरीदने के समय प्रगट है कि वर्तमान में इन सब बातों के विपरीत प्रचारे साईकिल पर बैठ बाज़ार न घूमना । ( पंच प्रतिक्रमण कीकोटमा । (२२)
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है, तभी इनका विरोध समर्थनकी आवश्यकता हुई ।
[ ज्येष्ठ, आषाद, वीर निर्वाण सं० २४६६
यतिनियोंकी तो बात ही न पूछिये, उनके पतनकी हद्द हो चुकी है, उनकी चरित्रहीनता जैनसमाजके लिये कलंकका कारण हो रही है ! “गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिङ्गं न च वयः !”
महात्मा भर्तृहरिकी यह उक्ति सोलहों आने सत्य है । मनुष्यका आदर व पूजन उसके गुणों ही के कारण होता है । गुणविहीन वही मनुष्य पद पद पर ठुकराया जाता है । यतियों का भी समाज पर प्रभाव तभी तक रहा जब तक उनमें एक न एक गुण ( चाहे ज्ञान हो, विद्वत्ता हो, वैद्यक हो; मंत्रादिका ज्ञान अथवा परोपकार की भावना हो ) अनेक रूपोंमें विद्यमान रहा । ज्यों ज्यों उन गुणोंके अस्तित्वका विलोप होता गया त्यों त्यों उनका आदर कम होने लगा । अन्तमें आज जो हालत हुई हैं उसके वह स्वयं मुक्तभोगी हैं । न तो उनको कोई भक्ति से वंदन करता है, न कोई M श्रद्धा की दृष्टि से उन्हें देखता है । गोचरी में भी पहले अच्छे अच्छे पदार्थ मिलते थे, आज बिना भावके, केवल परिपाटीके लिहाज से बुरी से बुरी वस्तुएँ उन्हे बहराई जाती हैं । बातर में उनका तिरस्कार किया जाता है, कई व्यक्ति तो उनसे घृणा तक करते हैं । उनका आदर भक्तिशून्य और भाव विहीन, केवल दिखावेका रह गया है, अतः उनका भविष्य कितना अन्धकारमय है, पाठक स्वयं उस सीचा नहा जा सकता । जनधमिका ज्ञान उनस देखकर अतिशय परिताप है, हृदय बेचैन-सा हो जाता है। अगर यत्र भविष्य
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वर्ष ३, किरण :-]
यति-समाज
जैनधर्मको भी छोड़ बैठे तो कोई आश्चर्य नहीं है। किया जाना चाहिये। जो भो साधारण मयनि समाज इनसे असन्तुष्ट है, ये समाजसे । अतएव बनायें जायें वे पूरी मुस्तदीसे पालन किये करवाये सुधारकी परमावश्यकता है यह तो हर एक को जायँ । जो विरुद्ध आचरण करें उन्हें वहिष्कृत कर मानना पड़ेगा । यतिसमाजकी यह दशा आँखों समाजसे उनका सम्बन्ध तोड़ दिया जाय, इस देखकर विवेकी यतियोंके हृदयमें आजसे ३५ वर्ष प्रकार कठोरतासे काम लेना होगा। जो पालन न पूर्व ही सामूहिक सुधारकी भावना जागृत हुई थी, कर सकें वे दिगम्बर पंडितोंके तौर पर गृहस्थ खरतर गच्छके बालचन्द्राचार्यजी आदिके प्रयत्न बन जावें और उपदेशकका काम करें। के फलसे सं०१९६३ में उनकी एक कान्फ्रेन्स हुई एक विद्यालय,ब्रह्मचर्य आश्रम केवल यतिथी और उसमें कई अच्छे प्रस्ताव भी पास हुए शिष्योंकी शिक्षाके लिये खोला जाय । यहाँ पर थे यथा-(१) व्यावहारिक और धार्मिक शिक्षा अमुक डिग्री तक प्रत्येक यतिशिष्यको पढ़ना का सुप्रबन्ध (२) बाह्य व्यवहार शुद्धि (३) ज्ञानो. लाजिमी किया जाय, उपदेशकके योग्य पढ़ाईकी पकरणकी सुव्यवस्था ( हस्तलिखित ग्रन्थोंका न सुव्यवस्था की जाय । उनसे जो विद्यार्थी निकलें बेचना (४) संगठन (५) यति डायरेक्टरी इत्यादि; उनके खर्च आदिका योग्य प्रबंध करके उन्हें पर प्रस्तावोंकी सफलता तभी है जब उनका ठीक स्थान स्थान पर उपदेशकों के रूपमें प्रचार कार्यमें ठोक पालन किया जाय । पालन होने के दो ही मार्ग नियुक्त कर दें, ताकि उन्हें जैनधर्मको सेवाका हैं-(१) स्वेच्छा और (२) संघसत्ता । स्वेच्छासे सुयोग्य मिले । श्रावक समाजका उसमें काफी जो पालन करे वे तो धन्य हैं ही, पर जो न करें, सहयोग होना आवश्यक है । हम अपनी सद्उनके लिये संघसत्ताका प्रयोग करने लायक सुव्य- भावना एवं सहायतास ही गिरे हुये यतिसमाजको वस्थाका अभी तक अभाव ही है।
उन्नत बना सकते हैं, घृणासे नहीं। उस कॉन्फ्रेंसका दूसरा अधिवेशन हुआ या आशा है कि जैनसमाजके कर्णधार एवं नहीं, अज्ञात है। अभी फिर सं० १९९१ में बीका- उन्नतिकी महद् आकाँक्षा वाले विद्वान् यति नेर राजपूताना प्रांतीय यति-सम्मेलन हुआ था श्रीपूज्य मार्गविचार-विनिमय द्वारा भविष्यको और उसका दूसरा अधिवेशन भी फलौदीमें हुआ निर्धारित करने में उचित प्रयत्न करेंगे। था, पर सभी कुछ परिणाम शून्य ही रहा । अस्तु । मैंने यह निबंध द्वेषवश या यतिसमाजको
अब भी समय है कि युगप्रधान जिनचन्द्र नीचा दिखलाने की भावनासे नहीं लिखा । मेरे सूरिजीकी तरह X कुछ सत्ता बलका भी प्रयोग हृदयमें उनके प्रति सद्भावनाका जो श्रोत निरन्तर
x देखें, हमारे द्वारा लिखित युगप्रधान जिन- प्रभावित है उसके एवं उनकी अवनतिको देख चन्द्र सूरि' ग्रन्थ । उन्होंने जो साध्वाचार न पालन कर जो परिताप हुआ, उसको मार्मिक पुकारसे कर सके, उन्हें गृहस्थवेष दिलवा मथेरण बनाया जिससे विवश होकर ही इस प्रबंधको मैंने लिखा है। साधु-संस्था कलंकित न हो।
आशा है पाठक इसे उसी दृष्टिसे अपनावेंगे और
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अनेकान्त
ज्येष्ठ, मापार, वीर निर्वाण सं०२४६ ६
.. यदि इसमें कोई कट अथवा अयोग्य वाक्य नजर वर्णनमें मैं अपना अहोभाग्य समझता हूँ। .
आवे तो उसे दुखित हृदयके दावानलकी चिङ्गारी यतिसमाज ही क्यो साधु समाजकी दशा भी समझ मुझे क्षमा करेंगे । एक स्पष्टीकरण और विचारणीय एवं सुधारयोग्य है । उस पर भी भी आवश्यक है कि इस लेख में जो कुछ कहा बहुत कुछ लिखा जा सकता है । समयका सुयोग गया है वह मुख्यताको लक्ष्यमें रखकर ही लिखा मिला तो भविष्यमें इन दोनों समाजों पर एवं है, अन्यथा क्या यति समाजमें और क्या चैत्य- इसी प्रकार जैन धर्मके क्रियाकाण्डोंमें जो विकृति वासियोंमें पहले भी बहुत प्रभावक आचार्य एवं . आ गई है, उस पर भी प्रकाश डालने का विचार महान आत्माएँ हुई हैं एवं अब भी कई महात्मा है। बड़े उच्च विचारोंके एवं संयमी हैं। इनको मेरा
_ 'तरुण ओसवाल' से उद्धृत भक्तिभावसे वंदन है । उन महानुभावोंके गुण.
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जीवन के अनुभव
बावली घास
[ लेखक-श्री हरिशंकर शर्मा]
नावले अादमी, बावले कुत्ते, बावले गीदड़, बावले सेर चायका पानी पीते । यहाँ तक कि बैसाख और
बन्दर श्रादि तो सबने देखे सुने होंगे, परन्तु जेठमें भी उसे न छोड़ते थे । तिस पर भी तुर्ग यह कि 'बावली घास' से बहुत कम लोग परिचित हैं। फिर मजे कटोरा-भर चायमें दुधका नाम नहीं । अगर भूलसे की बात यह है कि पशु पक्षी और मनुष्य तो बावले होकर चायमें एक चम्मच भी दूध पड़ जाय, तो वे उसे जीव-जन्तुअोंकी जानके गाहक बन जाते हैं; परन्तु अस्वीकार कर दें । प्रकृति भला किसको क्षमा करने 'गवली घास' मरते हुए को अमृत पिलाती है, और उसे वाली है ? पिताजी पर भी उसका कोप हुआ, और दुःखसे मुक्त कर वर्षों जिलाती है । एक सर्वथा सत्य उन्हें भयंकर रक्तार्श (खुनी बवासीर ) से व्यथित घटनाके आधार पर अाज हम पाठकोंको बावली घास होना पड़ा। यह घटना अबसे ३० वर्ष पहिले की है। का कुछ परिचय कराते हैं।
मेरे पूज्य पिता (स्वर्गीय पं० नाथूराम शङ्कर शर्मा ) चाय के बड़े आदी.थे । उनकी यह टेव व्यसन पहले तो पिताजीके शौच-मार्गसे थोड़ा-थोड़ा खन तक पहुंच गई थी। वे सुबह-शाम दोनों वक्त अाध श्राध अाया, फिर तिल्लियाँ बँधने लगीं। यहाँ तक कि वे
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वर्ष ३, किरण ८.६]
बावली घास
चारपाई पर पड़ गए । निर्बलता हद दरजे की हो गई। हालतमें भला नश्तर कैसे लगाया जाय ? जहाँ करवट पिताजीके घनिष्ट मित्र साहित्याचार्य पं० पद्मसिंह शर्मा बदलने में दम निकलनेका अन्देशा हो, वहाँ कैसी चीरभी बीमारीका हाल सुनकर हरदुआगञ्ज आ गए । उस फाड़ ?" शर्मा जीको सम्बोधित होकर बोला-"पंडित समय हम लोगोकी चिंताका ठिकाना न था, तरह २ के साहब ! मैंने आपके दोस्त को बड़े ग़ौरसे देखा, मरज इलाज-मुबालजे कराए गए । कनखल निवासी वैद्यराज बहुत बढ़ गया है, मेरे बसकी बात नहीं रही । बाबूस्वर्गीय पं० रामचन्द्र शर्माने आयुर्वेदोक्त औषधियाँ दी, साहब, माफ करना, ऐसी हालत देख कर मेरा तो
और भी कई प्रसिद्ध वैद्योंकी चिकित्सा हुई; कितने ही कलेजा काँपता है. नश्तरका तो कोई सवाल ही नहीं। डाक्टरोंका ईलाज कराया गया; परन्तु खून बहना बन्द मैं भी खुदावन्द तालासे दुआ करूँगा कि वह इन न हुआ । पिताजीको परेशानी और कमज़ोरीका ठिकाना पंडितजीको जलदसे जलद शफ़ा बख्शे । बस, इतना ही न रहा । उनका मोटा ताजा शरीर सूख कर काँटा बन मेरे इमकान में है । और कुछ नहीं। अच्छा, मैं जाता गया । करवट बदलने और बात करने में भी कष्ट होने हूँ, श्रादाब अर्ज़ ।" लगा। हम लोगोंकी चिंता निराशामें परिणित हो गई। जिस जर्राह के लिए श्री स्व. पद्मसिंह शर्माने स्वयं पिताजीको अच्छा होनेकी उम्मेद न रही । इतना ज़ोर दिया, जिसके नश्तरकी रवानगी पर सारा बीसियों मिलने-जुलने वाले रोज आते और बड़ी मन्द घर टकटकी लगाए बैठा था, जिसके दस्ते-मुबारिक पर वाणीमें, अत्यंत उदासीनताके साथ, "जब तक सांस काफी भरोसा था, वह भी टका-सा जवाब देकर चलता तब तक अास" की लोकोक्ति सुनाकर चले जाते । बना । अब शर्मा जीके हृदयमें भी निराशाका समुद्र इस समय तक हम लोगों में अगर किसीका धैर्य नहीं उमड़ने लगा। उनकी भावुकता, जो अब तक धैर्य के छूटा था, तो वह थे पं० पद्मसिंह शर्मा । शर्मा जी सबको बन्धनसे जकड़ी पड़ी थी, आँखोंमें झलझला श्राई । धैर्य बंधाते हुए बराबर प्रयत्नशील बने रहनेका प्रोत्सा- उन्होंने अपनेको बहुत कुछ सँभालते हुए, भरे हुए हन देते रहे । हमारे हृदय निराशासे भर चुके थे, केवल कण्ठसे कहा "भाई, अब हम लोगोंका फ़र्ज़ है वाहरी बचन-विलासमें प्राशावादिताकी झलक दिखाई कि 'कविजीकी खूब सेवा करें और उन्हें ज़रा भी तकदेती थी, सो भी रोगीको बहकाने या दभ-दिलासा देने लीफ़ न होने दें, जिससे जो टहल-चाकरी बन पड़े, के लिए।
करनी चाहिए । फिर तो कविजीकी सूरत भी..." कहते २ शर्माजीकी हिचकियाँ बंध गई, और हम सब बुरी तरह व्याकुल होने लगे । मेरी माता और हम सब बुरी
तरह व्याकुल होने लगे। मेरी माताने तो चिन्ताके अन्त में पं० पद्मसिंह शर्माके परामर्शसे एक मशहूर कारण कई दिनोंसे अन्न तक त्याग दिया था । वह जर्राह बुलाया गया । जर्राह अाया, मगर मरीज़ को देख पाँच-सात मुनक्के ( दाख ) खाकर रात-दिन पिताजी
कर उसके होश उड़ गए, अक्ल चकरा गई । कहने की चारपाई पकड़े बैठी रहती थीं । . लगा-"उफ, ऐमी कमज़ोरी ! इतनी नकाहत ! इस
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अनेकान्त
[ज्येष्ठ, भाषाढ़, वीर-निर्वाण सं०२४६६
पिताजी जहाँ प्रसिद्ध कवि थे, वहाँ चिकित्सक भी मैं दस मील चल कर आया हूँ, ज़रा माँकी तो कर बड़े अच्छे थे । बड़े २ रोगोंका सफलतापूर्वक इलाज. लेने दीजिए ।" करना उनके लिये साधारण बात थी। दूर-दूरके लोग उनसे चिकित्सा कराने आते रहते थे । उन्होंने चिकित्सा पटवारीजी पिताजीकी दशा देखकर दङ्ग रह गए। कार्यसे निर्वाह अवश्य किया; परन्तु धनी होनेकी बात वे उन्हें देखकर बैठकमें आए और बड़ी निराशापूर्वक कभी स्वप्नमें भी न सोची। उनकी बताई कौड़ियोंकी एक पुड़िया देते हुए बोले-“देखिये यह एक साधुकी दवासे रोगी बराबर अच्छे होते रहते थे। उनकी फीस बताई हुई बूटी है, खूनी बवासीरको तुरंत आराम कर निश्चित न थी, जिसने जो दे दिया ले लिया, ग़रीबोंसे देती है । मैंने इसे कितने ही मरीज़ों पर श्राजमाया है, तो कुछ लेते ही न थे बल्कि उनकी दवा-दारू और पथ्य- सब अच्छे हो गए । यह ठीक है कि पण्डितजी बहुत की व्यवस्था भी उन्हें करनी पड़ती थी। इस सेवा-भावके कमज़ोर हैं, उनमें साँस ही साँस बाकी है, फिर भी कारण पिताजी बड़े लोक-प्रिय हो गये थे । किसान, परमात्माका नाम लेकर आप इस बूटीको उन्हें ज़रूर गरीब तथा अछूत लोग उन पर अपना पूरा अधिकार पिलाइये।" समझते थे । पिताजी भी अमीरोंसे पीछे बात करते, पटवारीजीकी यह पुड़िया पं० पद्मसिंह शर्माने पहले गरीबोंकी कष्ट कथा सुनते थे । इसलिये बीमारीमें बड़े बेमनसे ली। खोलकर देखा, तो घास-फूस कूड़ाउनके भक्त दर्शनार्थियोंका ताँता लगा रहता था। करकट ? अरे, यह क्या बवाल ? * *
"नहीं, नहीं, बवाल नहीं, यह तो अमृत है । "क्यों भाई कैसे पाए, कहाँ रहते हो ?” सामने अाप इस दवामेंसे दस माशे लेकर पन्द्रह-बीस काली खड़े हुए एक ग्रामीण भाईसे पं० पद्मसिंह शर्माने बड़ी मिर्च मिलवाइये और भंग की तरह घोट पीस तथा उदासीनतासे पूछा।
डेढ़ पाव जलमें छानकर अभी पिला दीजिए और इसी ___ "पण्डितजीकी बीमारीका हाल सुनकर आया हूँ... तरह सु बह पिलाइए । तीन-चार दिन करके तो देखिए, का पटवारी हूँ सुना है, उन्हें बवासीरकी बीमारी है ।” परमात्माने चाहा, तो आराम हो जायगा।" ग्रामीण --मोटे झोटे कपड़े पहने हुए उस अागन्तुकने उत्तर भाईने कहा। दिया।
पं० पद्मसिंह शर्माके निराश हृदयमें एक बार ___ "अरे भई ! अब पण्डितजीको क्या देखोगे ? दो- फिर आशाका सञ्चार हुआ, उन्होंने मेरे भाई एक दिन के मेहमान हैं । मिलने जुलने से उन्हें कष्ट स्वर्गीय उमाशङ्करजीसे कहा- "लो इसे पीसो होता है । मैं सुबहसे अब तक लगभग ५० श्रादमियों और छानो। कभी-कभी ऐसी जड़ी-बूटी बड़ा काम को उनके पास जानेसे रोक चुका हूँ श्राप भी क्षमा कर जाती हैं, फिर यह तो एक साधुकी करें।"-शर्माजी बड़ी निराशा और दुःखसे बोले। बताई है ।" शामको दवाकी पहली मात्रा दी गई और ___ "नहीं साहब, मैं पण्डितजीके दर्शन करके लौट फिर सुबह पिलाई गई । इतने ही से खूनका वेग कुछ जाऊँगा। उन्होंने जीवन भर सबका भला किया है। कम हुआ। निपट निराशा-निशामें आशाकी किरण
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वर्ष ३, किरण -8 ]
दिखाई दी । उदासीनता घटी, चिन्तामें कमी हुई, साहसने फिर उद्योगशीलताकी बाँह पकड़ी। चार दिन में खून आना बन्द हो गया । पिताजीको भी अपने जीवनकी आशा होने लगी, और उन्होंने अब उस घास-फूसको 'जीवन मूरि' कहना शुरू किया ।
बावली घास
पुड़िया की आठ खुराकें चार दिनमें खतम हो गई । मैं ताँगा लेकर पटवारीजीके पास पहुँचा, २१) रु० और कुछ मिठाई उनके आगे रखकर निवेदन किया"दीवानजी अब पिताजी अच्छे हैं। खून बन्द हो गया है, नींद आने लगी है, अब तो सिर्फ कमजोरी शेष है । थोड़ी दवा और दे दीजिए, बड़ी कृपा होगी। आपकी सेवामें हम लोगोंकी तरफसे यह तुच्छ भेंट अर्पित है, कृपया स्वीकार करें ।"
पटवारीजीकी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा, वे बोले – “पण्डितजी अच्छे हो गए, मैंने सब कुछ भर पाया । अब वे सैंकड़ोंका भला करेंगे। ऐसे परोपकारी जितने अधिक जीवें, उतना ही अच्छा । मैं वेद-हकीम नहीं हूँ । रुपए आप उठा लीजिए, मैं तो मुफ़्त में यह
रहता हूँ। मेरा लगता ही क्या है । आठ श्राने में मनों घास इकट्ठा हो जाती है। आप चाहें, तो इस मिठाई को मुहल्लेके बालकोंको बाँट सकते हैं, नहीं तो इसे भी ले जाइए । मैं कुछ भी न लूंगा ।"
पटवारीजीका दो टक इन्कार देखकर फिर इसरार करनेकी मेरी हिम्मत न हुई । रुपये उठा लिए और मिठाई बालकको बाँट दी। पटवारीजीने अबकी बार प्रचुर मात्रा में दवाई देते हुए कहा – “लीजिए, यह
दिनको काफी होगी । इसीसे पण्डितजी चलने
२१३
फिरने लगेंगे, भूख खूब लगेगी, दस्त साफ श्रावेगा । यह दवा जरा सर्दीसी करती है, उसकी फिक्र न करना । एक बात और सुनिए, अब दवा के लिए मेरे पास आने का कष्ट न करें । वह तो आपके हरदुआगंजके पास ही कपास, ज्वार, मक्के और बाजरे के खेतोंमें बहुत होती है। वहींसे ताजा उखड़वा मँगाइए और सुखाकर रख लीजिये । अभी तो कार्तिक ही है, आपको बहुत-सी घास मिल जायगी । यह गँवारू बूटी है । इधर गाँव के लोग इसे 'बावली घास' कहते हैं । इसका पौधा डेढ़ फुट ऊँचा होता है, पत्तियाँ लम्बी लगती हैं, फली भी श्राती हैं, जिनमें बीज होते हैं ।"
अभिप्राय यह कि 'बावली घास' से पिताजी बिलकुल अच्छे हो गए। उनकी कृश काया फिर मोटीताजी और तन्दुरुस्त दिखाई देने लगी । पूज्य शर्माजी सेरों घास उखड़वा कर अपने साथ ले गए। पिताजीने भी खूब प्रचार किया। मैं भी प्रतिवर्ष पचासों पैकेट भेजता रहता हूँ। जो मित्र या परिचित मिलता है, बराबर उससे उसका जिक्र करता हूँ। अर्शके जिस रोगीको वह दी गई, उसीको लाभ हुआ ।
न जाने भगवती वसुन्धराके गर्भ में क्या-क्या विभूतियाँ छिपी पड़ी हैं। संसार में प्रकृति माताकी व्यापकता और विचित्रता समझने वाले बहुत थोड़े हैं, वे ही सच्चे ज्ञानी और पूरे पण्डित हैं। ( दीपक से )
लोहामण्डी श्रागरा ]
* यह घास क्वार- कातिकमें ही होती है । इस "साल जितनी इकट्ठी की गई थी, वह सब बाँट दी गई।
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अर्थप्रकाशिका और पं०सदासुखजी
[ले०५० परमानन्द जैन शास्त्री ]
श्रीउमास्वातिके . तत्वार्थ सूत्रकी हिन्दी लेप अपना उपयोगकी विशुद्धताके अर्थि तथा
टीकाओं में 'अर्थप्रकाशिका' अपना स्वास तथा संस्कृतके बोधरहित अल्पज्ञानिके तत्त्वार्थस्थान रखती है । इसमें प्राचीन जैन ग्रन्थों के अनु- - सूत्रनिके अर्थ समझनेके अर्थि अपनी बुद्धिके सार सूत्रोंका स्पष्ट अर्थ ही नहीं दिया गया, बल्कि अनुसार लिखी है. । परन्तु राजवार्तिकका अर्थ उनका विशद व्याख्यान एवं स्पष्टीकरण भी किया कहूँ कहूँ गोम्मटसार, त्रिलोकसारका अर्थ लेय गया है-सूत्रमें आई हुई प्रायः उन सभी बातोंका लिया है । अपनी बुद्धिकी कल्पनाते इस प्रन्थमें इसमें यथेष्ट विवेचन है जिनसे तत्वार्थके जिज्ञा- एक अक्षर हूँ नहीं लिखा है । जाकै पापका भय सुओंको तत्वार्थ विषयका बहुत कुछ परिज्ञान हो होयगम, अर जिनेन्द्रकी आज्ञाका धारने वाला जाता है । टीकाकी प्रामाणिकताके विषयमें पण्डित होपगा सो जिनेन्द्र के आगमकी आज्ञा बिना एक सदासुखदासजीके निम्न लद्गार खास तौरसे अचर स्मरणगोचर नहीं करेगा लिखना तो बणे ध्यान देने योग्य हैं । जिनसे स्पष्ट है कि इस टीका ही कैसे ? अर ज़े सूत्र आज्ञा छाँड़ि अपने मनकी में जो कुछ विशेष कथन किया गया है वह सब मुक्ति से ही अपने अभिमान पुष्ट करने• योग्य राजवार्तिक, गौम्मटसार और त्रिलोकसार आदि अयोग्य कल्पना करि लिखें हैं ते मिथ्यादृष्टि सूत्रप्रन्थोंका आश्रय लेकर किया गया है-पंडितजीने द्रोही अनन्त संसार परिभ्रमण करेंगे”। ... अपनी ओरसे उसमें एक अक्षर भी नहीं लिखा: इस टीकाके अन्तमें दी हुई प्रशस्ति से एक है। वे तो सूत्र-विरुद्ध लिखने वालेको मिथ्यादृष्टि बातका और भी पता चलता है और वह यह कि; और सूत्रद्रोही तक बतलाते हैं। और ऐसा करने . यह टीका अकेले पण्डित सदासुखदासजीकी ही को बहुत ही ज्यादा अनुचित समझते हैं, और कृति नहीं है, किन्तु दो विद्वानोंकी एक सम्मिलित इसलिये ऐसे सूत्रकी आज्ञानुसार वर्तने वाले तथा कृति है। इस बातको सूचित करने वाले प्रशस्तिके पाप भयसे भयभीत विद्वानों के द्वारा अन्यथा अर्थ -पद्य निम्न प्रकार हैंके लिखे जानेकी सम्भावना प्रायः नहींके बराबर ........
चौपाई है। पंण्डितजीके वे उद्गार इस प्रकार हैं:
"ऐसैं अर्थ प्रकाशिका नाम देश भाषा बच-. "पुरव में गंगा तट धाम, निका श्री राजवार्तिक नाम ग्रन्थका अस्प लेश. . अति सुंदर आरा तिस नाम ।
चौपाई
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वर्ष ३, किरण ८१] . ... ... अर्थप्रकाशिका और पं०सदासुखजी तामैं जिन चेत्यालय से,
परमेष्ठींसहायजी अग्रवाल 'जैन थे। आपने अपने । अग्रवाल जैनी बहु बसैं ॥ १३॥ पिता कीरतचन्दजीके सहयोगसे ही जैन सिद्धान्त
का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया था और आप - बहुज्ञाता तिन में जु रहाय, .. . बड़े धर्मात्मा सज्जन थे तथा उस समय
नाम तासु परमेष्ठि सहाय।... आरामें अच्छे विद्वान समझे जाते थे । ... जैनग्रन्थमें रुचि बहु करै, ..उन्होंने साधर्म भाई जगमोहनदासकी मिथ्या धरमं न चित में धरै॥ १४॥ तत्त्वार्थ विषयके जाननेकी विशेष रुचिको देखकर दोहा
स्वपरहितके लिये यह 'अर्थप्रकाशिका' टीका सब सो तत्त्वारथ सूत्रकी, . ..से पहले पाँच हजार श्लोक प्रमाण लिखी थी
और फिर उसे संशोधनादिके लिये जयपुरके रची वचनिका सार । ...... प्रसिद्ध विद्वान पं० सदासुखदासजीके पास भेजा - नाम जु अर्थ प्रकाशिका, ..... था । पण्डित सदासुखजीने संशोधन सम्पादनादि .:. गिणती पाँच हजार ॥१५॥ के साथ टीकाको पल्लवित करते हुए उसे वर्तमान सो भेजी जयपुर विष,
११ हजार श्लोक परिमाणका रूप दिया है और
इसीसे यह टीका प्रायः पण्डित सदासुनजीकी नाम सदासुख जाय।
- कृति समझी जाती है। ...... सो पूरण ग्यारह सहस, ....... करि भेजी तिन पास ॥१६॥. - ... उक्त परिचय परसे इतना और भी साफ़ सवैया
ध्वनित होता है कि पण्डित सदासुखजीकी कृतियों
(भगवती आराधना टीका आदि ) का उस समय अग्रवाल कुल श्रावक कीरतचन्द,
आरा जैसे प्रसिद्ध नगरों में यथेष्ट प्रचार. हो चुका जुआरे माँहि सुवास । था और उनकी विद्वत्ता एवं टीका शक्तिका सिक्का - परमेष्ठी सहाय तिनके सुत, ... सत्कालीन विद्वानों के हृदय पर जम गया था । यही
पिता निकट करि शास्त्राभ्यास ॥१७॥ कारण है कि उक्त पण्डित परमेष्ठीसहायजीको '' किलो ग्रंथ निज पर हित कारण, तत्त्वार्थसूत्रकी टीका लिखने और उसे जयपुर लखि बहु रुचि जग मोहनदास । पण्डितजीके पास संशोधनादिके लिये भेजनेकी
प्रेरणा मिली । इतना ही नहीं, बल्कि उसमें यथेष्ट ., सस्वारथ अधिगम सु सदासुख,
परिषर्धन करने की अनुमति भी देनी पड़ी है। तभी रास चहँ दिश अर्थप्रकाश ॥ १८ ॥ पंडित सदासुखजी उस टीकाको दुगनेसे भी अइन फलोंसे स्पष्ट है कि पारा निवासी पंडित धिक विस्तृत करनेमें समर्थ हो सके हैं।
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इस टीकाके सम्पादनादि करने में पंडित सदासुखजीका पूरे दो वर्षका समय लगा था । और वह विक्रम संवत १९१४ में वैसाख शुका दशमी रविवार के दिन पूर्ण हुई थी। जैसा कि प्रशस्तिके : निम्न पद्यसे प्रकट है:
संवत् उगणी से अधिक, चौदह
सुदि दशमी वैसाखी,
दितवार ||
पूरण किया विचार ||३|
यह टीका अपने विषयकी स्पष्ट विवेचक होने के साथ साथ पढ़ने में बड़ी ही रुचिकर प्रतीत होती है । इसी से इसके पठन-पाठनका जैनसमाजमें काफी प्रचार है ।
इस टीकाके प्रधान लेखक पंडित सदासुखजी तेरापन्थ आम्नायके प्रबल समर्थक थे । आप विक्रमकी १९ व २० वीं शताब्दी के बड़े अच्छे विद्वान् हो गये हैं । आपका जन्म खण्डेलवाल जाति में हुआ था और आपका गोत्र ' कासलीवाल ' था। आप डेडराज के वंशज थे और आपके पिता का नाम दुलीचन्द था, जैसा कि अर्थ प्रकाशिका प्रशस्तिकी निम्न पंक्तियों से प्रकट है:
दुलीचन्दका पुत्र,
राजवंश मांहि, इक किंचित ज्ञाता ।
अनेकान्त
-
नाम सदासुख कहें,
कासलीवाल विख्याता ॥ ४ ॥
आत्मसुखका बहु इच्छुक ।
[ ज्येष्ठ, आषाढ़, वीर- निर्वाण सं० २४६६
सो जिनवानि प्रसाद,
विषय भए निरिच्छुक || ५ ॥
आपका जन्म विक्रम संवत १८५२ में अथवा उसके लगभग हुआ जान पड़ता है; क्योंकि आप की रत्नकरण्ड श्रावकाचारकी टीका विक्रम सं० १९२० की चैत कृष्णा चतुर्दशीको पूर्ण हुई है और उस समय उसकी प्रशस्ति में आपने अपनी आयु ६८ वर्षकी प्रकट की है । आपकी जन्म भूमि जयपुर है । उस समय जयपुर में राजा रामसिंहका राज्य था। कहा जाता है कि पं० सदासुखदासजी राज्यके खजांची थे और आपको जीवन निर्वाह के लिये राज्यकी ओरसे ८) रु० माहवार मिला करते थे। इन्हींसे आपका और आपके कुटुम्बका पालन-पोषण होता था । इस विषय में एक किम्बदन्ती इस तरहसे भी कही जाती है कि आपको जयपुर राज्य से ८) रु० माहवार जिस समय से मिलना शुरू हुआ था वह उन्हें बराबर उसी तरह से मिलता रहा उसमें जरा भी वृद्धि नहीं हुई । एकबार महाराजाने स्वयं अपने कर्मचारियों आदि के वेतनादिका निरीक्षण किया, तब राजाको मालूम हुआ कि राज्य के खजांचीके सिवाय, चालीस वर्ष के असेंमें सभी कर्मचारियोंके वेतन में वृद्धि हुई है - वह दुगुना और चौगुना तक हो गया है । परन्तु खजांचीके वही आठ रुपया हैं । यह सब जानकर राजा को बहुत कुछ श्राश्वर्य और दुःख हुआ। राजाने पंडितजीको बुलाकर कहा किमुझसे भूल हुई है जो आज तक आपके वेतन में किसी तरह की वृद्धि नहीं हो सकी। इतने थोड़ेसे खर्चमें आपके इतने बड़े कुटुम्बका पालन-पोषण
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वर्ष ३, किरण ..]
अर्थप्रकाशिका और पं०सदासुखजी
कैसे होता होगा ? उत्तरमें पंडितजीने कहा कि रूप जो कार्य बराबर चालू रहा है वह शायद ही
आपकी कृपासे सब हो जाता है । तब राजाने देखने को मिलता। बड़े आग्रहसे कहा कि अब आपको जो जरूरत हो सो मांगलें, मैं उसे पूरा कर दूंगा और आजसे : पंडितजीकी जीवन-घटनाओंका और कौटुआपको वेतन २०) रु० माहवार मिला. करेगा। म्बिक जीवनका यद्यपि कोई परिचय उपलब्ध इतना सब होने पर भी परम संतोषी पण्डितः नहीं है तो भी जो कुछ टीका ग्रन्थों में दी गई सदासुखदासजीने कहा कि यदि आप मेरी प्रार्थना संक्षिप्त प्रशस्ति आदिसे जाना जाता है उससे पं० स्वीकार करें तो मैं निवेदन करूँ, इस समय मैं जीकी चित्तवृत्ति, उनकी सदाचारता, आत्म-निर्भरत्नकरण्ड श्रावकाचारको टोका लिख रहा हूँ, यता, अध्यात्मरसिकता, विद्वत्ता और सच्ची स्वयं अपनी इस अस्थायी पर्यायका कोई भरोसा धार्मिकता पद पद पर प्रकट होती है । आपका नहीं है और मुझे किसी चीजकी कोई आकांक्षा जिनवाणीके प्रति बड़ा भारी स्नेह था, और उसकी नहीं है । अतः आजसे मैं आठ घंटे के बजाय ६ देश देशान्तरों में प्रचार करनेकी आवश्यकताको घटे ही खजांचीका कार्य किया करूंगा और वेतन आप बहुत ही ज्यादा अनुभव किया करते थे। भी आप मुझे ८) रु० की बजाय ६) रु० मासिक इसलिये आपका अधिक समय शास्त्र स्वाध्याय, ही दे दिया करें। तब राजान कहा कि कलसे सामायिक, तत्त्वचितवन पठन-पाठन और ग्रंथोंके आप खजांचीका काय ६ घण्टे ही किया करें, अनुवादादि कार्योंमें ही व्यतीत होता था । रत्नपरन्तु वेतन यदि आप अधिक नही लेना चाहते करण्ड श्रावकाचारकी टीकाके अवलोकनसे आपके तो वह ८) रु०से किसी तरह भी कम नहीं किया सैद्धान्तिक अनुभवका कितना ही पता चल जाता जा सकता।
है और साथ ही आपकी विचार पद्धत्तिका भी
बहुत कुछ ज्ञान हो जाता है। यद्यपि इस टीकामें १. यदि यह घटना सत्य हो; तो इससे पण्डित कहीं कहीं पर चरणानुयोगके विषयको उसके जीको संतोषवृत्तिका और धार्मिक साहित्यके पात्रकी सोमासे कुछ घटा बढ़ाकर लिखा गया है, निर्माणका कितना अधिक अनुराग प्रतीत होता जो प्रायः पण्डितजीकी उदासीन चित्तवृत्ति का है, इसे बतलानेकी जरूरत नहीं रहती। यदि भट्ट परिणाम जान पड़ता है। फिर भी स्वामी समन्त. रकीय प्रथाके खिलाफ तेरहपन्थ दि० जैनसमाज भद्रके .रत्नकरण्ड श्रावकाचारका यह महाभाष्य में स्थापित न होता और इस तरहसे खासकर पंडितजीके विशाल अध्ययन, विद्वत्ता और कार्यजयपुर राज्यके विद्वान् दिगम्बर साहित्यको अनु- तत्परताकी ओर संकेत करता है । यदि आज वादादिसे अलंकृत कर उसका प्रचार न करते तो दिगम्बर समाजके विद्वानोंमें जैनसाहित्यके उद्धार दि० जैन समाजमें धार्मिक ग्रंथोंके पठन-पाठनादि एवं प्रचारकी उन जैसी लगन हो जाय तो निस्सका और उनके ग्रंथोंके टीका-टिप्पणादिके निर्माण- न्देह कुछ वर्षों में ही बहुत कुछ ठोस साहित्यका
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११८
अनेकान्त
निर्माण होकर संसार में उसका प्रचार किया जा सकता है।
पण्डित सदासुखदासजी के एक प्रधान शिष्य थे । उनका नाम था पन्नालालजी संघी। आपका उक्त पंडितजी से विक्रम सं० १९०१ से १९०७ के मध्यवर्ती किसी समय में साक्षात्कार हुआ था । पण्डितजी के सदुपदेश एवं प्रभावसे संघीजीकी चित्तवृत्ति पलट गई और जैनधर्मके ग्रन्थोंके अभ्यासकी ओर उनका चित्त विशेषतया उत्कंठित हो उठा। उन्होंने यह प्रतिज्ञा की, कि मैं आजसे रात्रिको १० बजे प्रति दिन पंडितजीके मकान पर पहुँच कर जैनधर्म ग्रंथोंका अभ्यास एवं परि शीलन किया करूँगा । जब संघीजी अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार रात्रिको १० बजे पंडितजीके मकान पर पहुँचे तब पण्डितजीने कहा कि आप बड़े घर के हैं—सुखिया हैं- अतः आपसे ऐसे कठिन प्ररणका निर्वाह कैसे हो सकेगा ? उत्तर में संघीजीने उस समय अपने मुँह से तो कुछ भी नहीं कहा किन्तु जब तक पंडित सदासुखजी जीवित रहे तब तक आप बराबर नियम पूर्वक उसी समय उनके पास पहुँचते रहे । पंडितजी के सहयोग से आपने कितने ही सिद्धान्त ग्रंथोंका अवलोकन किया और जैनधर्म के तत्त्वों का मनन एवं परिशीलन किया ।
[ ज्येष्ठ, आषाढ़, वीर - निर्वाण सं० २४१६
अनेक उत्तमोत्तम प्रन्थोंकी सुलभ भाषा वचनि काएँ की हैं, और अनेक नवीन ग्रंथ भी बनाएँ हैं, परन्तु अभी तक देश-देशान्तरोंमें उनका जैसा प्रचार होना चाहिये था वैसा नहीं हुआ है। और तुम इस कार्य के सर्वथा योग्य हो, तथा जैनधर्मके मर्म को भी अच्छी तरह समझ गये हो, अतएव गुरुदक्षिणा में मैं तुमसे केवल यही चाहता हूँ कि जैसे बने तैसे इन ग्रंथों के प्रचारका प्रयत्न करो । वर्तमान समय में इसके समान पुण्यका और धर्मकी प्रभावनाका और कोई दूसरा कार्य नहीं है ।" यह कहने की आवश्यकता नहीं, कि पण्डितजीके सुयोग्य शिष्य- संघी जीने गुरु दक्षिणा देने में ज भी आना कानी नहीं की। और आपने अपने जीवनमें राज्जवार्तिक, उत्तर पुराण आदि आठ. ग्रन्थों पर भाषा वचनिकाएँ लिखी हैं और २७००० हजार श्लोक प्रमाण. 'विद्वज्जन बोधक' नामके ग्रंथका निर्माण भी किया है। इसके सिवाय सरस्वती पूजा च्यादि कुछ पुस्तकें पद्य में लिखी हैं। अन्य साधर्मी भाइयों की सहायता से आपने जयपुर में एक "सरस्वती भवन" की स्थापना की थी जिससे बाहरसे ग्रंथोंकी माँग श्राने पर ग्रन्थों की प्रतिलिपि कराकर भेज देते थे 1. उस कार्यको आप पंडितजीकी अमानतः समझते थे, और उस का जीवन पर्यंत तक निर्वाह करते रहे ।।
• पंडित सदासुखदासजी ने अन्त समय में अपने शिष्य संघीजी से कहा कि "अबमें इस अस्थायी पर्याय को छोड़कर विदा होता हूँ। मैंने तथा मेरे पूर्ववर्ती पंडित टोडरमलजी, मन्नालालजी और जयचन्द्रजी आदि विद्वानोंने असीम परिश्रम करके
यद्यपि पण्डित सदासुखदासजीके मरण-समय
पं० पन्नालालजी संघीका परिचय 'विदुजनबोधक' के मुक्ति प्रथमभांगी प्रस्तावना से लिया गया है । देखों पृष्ठ ६७ ।
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वर्ष-३, किरण ८-१]
अर्थप्रकाशिका र संसदासुखजी का ठीक ठीक बोध नहीं हो सका है । परन्तु रल- हे भगवति तेरे. परसाद करण्ड श्रावकाचारकी प्रशस्तिसे बतानी बालासर सामति तोर विवाद। निश्चित है कि रत्नकरण्ड श्रावकाचारकी वचनिका पंडितजीकी अन्तिम कृति है। वह विक्रम संवत्
पंच परम गुरुपद करि ढोक, .. . १९२० में चैत्र कृष्णा चतुर्दशीके दिन पूर्ण हुई है। संयम सहित लहूँ परलोक ॥१४॥ उस समय पंडितजीकी उम्र ६८ वर्षकी हो चुकी थी । इसके बाद आप अधिकसे अधिक दो-चार इन पद्योंसे स्पष्ट प्रतीत होता है कि पण्डित वर्ष ही जीवित रहे होंगे । रत्नकरण्ड श्रावकाचार सदासुखदासजी अपने समाधि मरणके लिये की आपकी यह टीका जैनशास्त्रोंका विशेष अनु- कितने उत्सुक थे । जरूर ही उनका मरस समाधि भव प्राप्त कर लेनेके बाद लिखी गई है, इसी पूर्वक हुआ है और उसके प्रसादसे वे निसन्देह कारण इसमें दिए हुए वर्णनसे पंडितजी, उनकी सद्गतिको प्राप्त हुए होंगे। . चित्तवृत्तिका और सांसारिक देह भोगोंसे । वास्तविक उदासीनताका बहुत कुछ आभास. पंडित सदासुखजीने जो साहित्य सेवा की है, मिल जाता है। उसमें समाधि आदिका जो महत्व और अपने अमूल्य समयको जिनवाणीके अध्ययन पूण वर्सन दिया है उससे पण्डितजीकी समाधि- अध्यापन और टीका कार्यमें बितानेका जो प्रयत्न मरण-विषयक जिज्ञासा एवं भावनाका भी कितना किया है वह सब विद्वानों के द्वारा अनुकरणीय है। ही दिग्दर्शन हो जाता है । और भगवती आराधना संस्कृत-प्राकृतके जैनग्रन्थोंका हिन्दी भाषामें अनुकी टीकाके अन्तके निम्न दो पद्योंसे, जिनमें वादादि कर जो जैनसमाजका उपकार वे कर गये समाधि मरणकी आकाँक्षा व्यक्त की गई है, मेरे हैं वह बड़ा ही प्रशंसनीय और आदरणीय है । उपयुक्त निष्कर्षकी पुष्टि होती है:
इससे जैनसंसारमें आपका नाम अमर हो गया
है। इस समय तक मुझे आपको ७ कृतियोंका पता मेरा हित होनेको और,
चला है । संभव है और भी किसी ग्रंथकी वच
निका लिखी गई हो या कोई स्वतन्त्र ग्रंथ बनाया दीखे नाँहि जगतमें ठौर ।
गया हो । प्रस्तुत 'अर्थप्रकाशिका' टीका और उक्त यातै भगवति शरण जुगही, रत्नकरण्ड श्रावकाचारकी टोकाके अतिरिक्त जिन मरण आराधन पाऊँ सही ॥ १३ ॥
पाँच कृतियोंका पता और चला है वे इस प्रकार
• पठसठ वरस नु प्रायुके, बीते तुझ आधार । शेष मायु तव शरणते, जाहु यही मम सार ॥१७ १-भगवतो आराधना टीका, संवत १९०८ में
-प्रशस्ति, रस्नकरण्ड श्रावकाचारटीका। भादों सुदी दोयजको पूर्ण हुई।
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प्रकान्त
[ज्येष्ठ, भाषाद, वीर निर्वाण सं० २४६६
२–पण्डित बनारसीदासकृत नाटक समयसार दिया था उसे कार्यमें परिणतः करनेका अपना टीका
भी कर्तव्य समझेगा, और तद्नुसार जैन प्रन्थों
का अनेक भाषाओं में अनुवादादि कर प्रचार ३-नित्यनियम पूंजा बस्कृतकी टीका।
करनेका जरूर कोई संगठित प्रयत्न करेगा। ऐसा ४–अकलंक स्तोत्रको टीका । . .
करके ही वह अपने उपकारीके ऋणसे उऋण हो
सकेगा।।... ... ... ५-तत्त्वार्थसूत्रकी लघु टीका।
- वीर सेवामन्दिर सरसावा
. पिछली चार टीकाओंके सामने न होनेके ता०५-५-१९४० कारण उनके विषयमें रचना संवत् और प्रशस्ति . आदिका कोई ठीक परिचय नहीं मिल सका। यह लेख श्रीमूलचन्दा किसनदासजी कापरिकाके आशा है समाज पंडितजीके उपकारको स्मरण 'दिगम्बर जैन पुस्तकालय' सूस्तसे शीघ्र प्रकाशित होने करता हुआ उनके सेवा भावका आदर्श सामने वाली 'अर्थप्रकाशिका' टीकाके लिये प्रस्तावनाके रूपमें रक्खेगा और जिनवाणीके प्रचारका जो सन्देश लिखा गया है। उन्होंने अपने शिष्य पंडित पन्नालालजी संघीको
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जैनियोंकी दृष्टिमें बिहार
| लेखक - पंडित के० भुजवली शास्त्री, विद्याभूषण, स० " जैन सिद्धान्तभास्कर " ]
"स महत्वपूर्ण प्रस्तुत विषयका मैं दो दृष्टियों से विचार करूँगा, जिनमें पहली दृष्टि पौराणिक और दूसरी ऐतिहासिक होगी । जैनियों की मान्यता है कि वर्तमानकाल में भारतक्षेत्रान्तर्गत आर्यखण्डमें एक दूसरे से दीर्घकालका अन्तर देकर स्व-पर- कल्याणार्थ चौबीस महापुरुष अवतरित हुए, जिन्हें जैनी तीर्थंकरके नामसे सम्बोधित करते और पूजते हैं । इन तीर्थङ्करोंमें १९ वें तीर्थङ्कर श्रीमल्लिनाथ, २० वें तीर्थङ्कर श्रीमुनिसुव्रत, २१ वें तीर्थङ्कर श्रीनमि नाथ एवं २४ वें तीर्थकर श्रीमहावीरकी जन्मभूमि कहलाने का सौभाग्य इसी बिहार प्रान्तको है । मल्लिनाथ और नमिनाथकी जन्मनगरी मिथिला, मुनिसुव्रतकी राजगृह तथा महावीर - की वैशाली है। चौबीस तीर्थङ्करोंमेंसे २२ वें श्रीनमिनाथ और १ ले श्री ऋषभदेवको छोड़ कर शेष २२ तीर्थङ्कर इसी बिहारसे मुक्त हुए हैं। जिनमेंसे २० तीर्थङ्करोंने तो वर्तमान हजारीबाग जिलान्तर्गत सम्सेदशिखर ( Parshwanath hill ) से मुक्तिलाभ किया है और शेष दो में से महावीरने पावासे तथा वासुपूज्यने चम्पा से । सम्मेदशिखर, पावापुर और चम्पापुर ( भागलपुर ) के अतिरिक्त राजगृह, गुणावा, गुलजारबाग (पटना) जैसे स्थानोंको भी जैनी अपने अन्यान्य महापुरुषोंका मुक्तिस्थान मानते
आरहे हैं । इतना ही नहीं, सम्मेदशिखर, पात्रापुर और राजगृहादि स्थानों पर जैनियोंने अतुल द्रव्य व्यय कर बड़े-बड़े आलीशान मन्दिर निर्माण किये तथा धर्मशालाएँ आदि बनवाई हैं। और प्रतिवर्ष हजारोंकी संख्या में समूचे भारतवर्ष से जैनी यात्रार्थ वहाँ जाते हैं।
प्रांत में अपने परमपूज्य एक-दो नहीं बीस तीर्थकरोंने दिव्य तपस्या के द्वारा कर्म-क्षय कर मोक्ष लाभ किया है, वह पावनप्रदेश जनी मात्रके लिए कैसा आदरणीय एवं श्लाघनीय है - यह यहाँ कहने की आवश्यकता नहीं । इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि एक श्रद्धालु जैनीके लिए इस बिहारका प्रत्येक कण, जो तीर्थङ्करों एवं अन्यान्य महापुरुषोंके चरणरजसे स्पृष्ट हुआ है, शिरोधार्य तथा अभिनन्दनीय है । इसकी विस्तृत कीर्त्ति -गाथा जैन-प्रन्थोंमें बड़ी श्रद्धासे गायी है।
प्रथम तीर्थकर श्री ऋषभदेव इदवाकुवंशीय क्षत्रिय राजकुमार थे । हिन्दूपुराणों के अनुसार ये स्वयम्भू मनुकी पाँचवीं पीढ़ीमें हुए बतलाये गये हैं । इन्हें हिन्दू ' एवं बौद्ध ' शास्त्राकार भी सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और युग के आरम्भ में जैन-धर्मका संस्थापक मानते हैं । हिन्दू अवतारोंमें यह
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१ देखो, भागवत ५ । ४, ५, ६ । २ देखो, 'न्यायबिन्दु'
श्र० ३ ।
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आठवें माने गये हैं और सम्भवतः वेदोंमें भी एवं श्री नेमिनाथ आदि कतिपय तीर्थङ्करोंका इन्हींका उल्लेख मिलता है । इन्हीं ऋषभदेवके उल्लेख मानते हैं । आधुनिक खोजमें जैनियोंज्येष्ठ पुत्र सम्राट भरतके नामसे यह देश भारत- के अन्तिम तीर्थङ्कर भगवान महावीरके पूर्ववर्ष कहलाता है। बीसवें तीर्थकर श्री मुनिसुव्रत- गामी २३वें तीर्थङ्कर भगवान पार्श्वनाथको नाथके कालमें ही मर्यादा-पुरुष रामचन्द्र एवं सभी इतिहासवेत्ता सम्मिलितरूपसे ऐतिहासिक लक्ष्मण हुए थे । श्रीकृष्ण २२ वें तीर्थङ्कर श्री व्यक्ति स्वीकार कर चुके हैं, जो भगवान् नेमिनाथ के समकालीन ही नहीं, बल्कि इनके महावीरसे प्रायः ढाईसौ वर्ष पहले हुए थे। ताऊजाद भाई थे । अब कई विद्वान भगवान् अतएव आधुनिक दृष्टिसे एक विशेष विश्वसनीय नेमिनाथको भी ऐतिहासिक व्यक्ति मानने लगे जैन इतिहास ई० पूर्व नवमी शताब्दीसे प्रारम्भ हैं । गुजरातमें प्राप्त ई० पूर्व लगभग ११ वीं हुआ था यह निर्विवादरूपसे माना जा सकता शताब्दीके एक ताम्रपत्रके आधार पर हिन्दू है। अस्तु, यह विषयान्तर है। अब आइये प्रस्तुत विश्वविद्यालय बनारसके सुयोग्य प्रोफेसर डाक्टर विषय पर। प्राणनाथ विद्यालंकार तो इन्हें ऐतिहासिक व्यक्ति जैनियोंकी दृष्टिमें बिहार' इस विषयपर स्पष्ट घोषित करते हैं। बल्कि प्रोफेसर प्राणनाथ- ऐतिहासिक दृष्टिसे विचार करता हुआ मैं सर्वजी का कहना है कि 'मोहोनजोदारो' से प्रथम अन्तिम तीर्थङ्कर भगवान महावीरको ही उपलब्ध पाँचहजार पूर्वकी वस्तुओंमें कई शिलाएँ लूँगा। भगवान महावीरका जन्म आजसे २५३८ भी हैं जिनमें से कुछ में 'नमो जिनेश्वराय' साफ वर्ष पूर्व चैत्र शु० त्रयोदशीके शुभ दिन वर्तमान अंकित मिलता है।
मुजफ्फरपुर जिले के वसाढ़ नामक स्थानमें हुआ । यद्यपि भगवान पार्श्वनाथके पूर्वके तीर्थङ्करोंके था, जिसका प्राचीन वैभवशाली नाम वैशाली अस्तित्वको प्रमाणित करनेके लिये हमारे पास था। भगवान महावीरके श्रद्धेय पिता नृप सिद्धार्थ सबल ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं, फिर भी थे। ये काश्यपगोत्रीय इक्ष्वाकु अथवा नाथ या जैन-ग्रन्थोंके कथन एवं आजसे लगभग ढाई- ज्ञातवंशीय क्षत्रिय थे । इनका विवाह वैशालीके तीन हजार वर्ष पूर्व निर्मित अवशेष ' तथा लिच्छिवी क्षत्रियों के प्रमुखनेता राजा चेटककी शिलालेखादि ५ से शेष तीर्थङ्करोंके अस्तित्वका पुत्री प्रियकारिणी अथवा त्रिशलाके साथ हुआ पता अवश्य चलता है। बल्कि कई विद्वान् था। राजा चेटक-जैसे संभ्रान्त राजवंशसे सिद्धार्थरामायण, महाभारतादि ग्रन्थों में ही नहीं किन्तु यजुर्वेदादि सुप्राचीन वैदिक साहित्यमें जैन-धर्म का वैवाहिक सम्बन्ध होना ही इनकी प्रतिष्ठा
और गौरवका ज्वलन्त निदर्शन है। जैनप्रन्थोंमें ३ देखो, 'इण्डियन हिस्टारिकल क्वाटली' भाग ७. नं० २। ४ देखो, कंकालीटोले वाला मथुरा-जैनस्तूप।
६ देखो, 'संक्षिप्त जैन इतिहास' प्रथम भागकी प्रस्तावना ५ देखो, खण्डगिरि-उदयगिरि-सम्बन्धी हाथी-गुफाका और 'वेद पुराणादि ग्रन्थों में जैनधर्मका अस्तित्व' । शिलालेख।
७ देखो, 'उत्तरपुराण' पृष्ठ ६०५ ।
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वष ३, किरण ८-९ ]
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सिद्धार्थ नाथवंशके मुकुटमणि कहे गये हैं। जैनसंघ इसी नामसे अधिक परिचित था। यह
आधुनिक साहित्यान्वेषणसे प्रकट हुआ है कि निर्विवाद बात है कि भगवान महावीरके समय ज्ञात्रिक-क्षत्रियोंका निवास स्थान प्रधानतया बैशालीमें जैनियोंकी संख्या अत्यधिक थी। वैशाली (बसाढ़), कुण्डग्राम एवं वणियग्रामोंमें चीनयात्री हुएनस्वांग ( सन् ६३५ ) के भारतयात्रा था। साथ ही, यह भी ज्ञात हुआ है कि नाथ- कालतक जैनियोंकी संख्यामें वहाँ कमी नहीं हुई वंशीय क्षत्रिय कुण्ड ग्रामसे ऐशान्य दिशामें अव- थी; क्योंकि उन्होंने अपने यात्राविवरणमें स्पष्ट स्थित कोल्लागमें अधिक संख्यामें रहते थे। लिखा है कि वैशाली-राज्यका घेरा करीब एक वैशालीके बाहर निकट ही कुण्डग्राम वर्तमान हजार मीलका था, वहाँकी जलवायु अनुकूल थी, था, जो संभवतः आजकलका वसुकुण्ड गाँव है। लोगोंका आचरण पवित्र और श्रेष्ट था, लोग जैनग्रन्थोंके कथनानुसार भगवान महावीरका धर्मप्रेमी थे, विद्याकी बड़ी प्रतिष्ठा थी, और जन्म यहीं पर हुआ था । कोई कोई विद्वान जैनी बहुत सँख्यामें मौजूद थे । तीस वर्षकी कोल्लागको ही महावीर का जन्मस्थान बताते हैं। अवस्थामें भगवान् महावीरने संसारसे विरक्त हो परन्तु यह बात दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों अपने आत्मोत्कर्षको साधने एवं संसारके जीवोंको सम्प्रदायोंकी मान्यताके प्रतिकूल है। नाशवंशीय सन्मार्गमें लगानेके लिये सम्पूर्ण राज्यवैभवको क्षत्रिय वज़िप्रदेशीय प्रजातन्त्रात्मक राजसंघमें ठुकराकर जंगलका रास्ता लिया। दीन दुखियोंकी सम्मिलित थे । कौटिलीय अर्थशास्त्रसे स्पष्ट है पकार उनके उदार हृदयमें घर कर गयी और कि, प्रजातन्त्रीय राजसंघमें क्षत्रियकुलोंके मुखि
उनकी सची सेव। बजानेके लिये वे दृढप्रतिज्ञ याओंकी कौंसिल मुख्यकार्यकी थी और इस
होगये । विशेष सिद्धिके लिये विशेष तपस्याकी कौंसिलके सदस्योंका नामोल्लेख राजाके रूपमें होता था । यही कारण है कि भगवान् महा.
आवश्यकता होती है, यह बात निर्विवाद सिद्ध वीरके पिता सिद्धार्थकुंडपुरके राजा कहलाते थे।
है। इसी लिये महावीरको बारह वर्षों तक घोर
तपश्चरण करना पड़ा। क्योंकि तपश्चरण ही नाथवंशीय क्षत्रिय मुख्यतः जैनियोंके २३वें
आन्तरिक मलको छाँटकर आत्माको शुद्ध, सुयोग्य तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथके अनुयायी थे। बाद.
एवं कार्यक्षम बना सकता है। इस दुर्द्धर तपश्चरणको जब भगवान महावीरके दिव्य कर-कमलोंमें।
की कुछ घटनाओंको ज्ञातकर रोंगटे खड़े होजाते जैनधर्मका शासनसूत्र आया तब वे नियमानुसार
हैं। परन्तु साथ ही साथ आपके असाधारण उनके उपासक बनगये । बौद्धग्रन्थोंमें भगवान्
धैर्य, अटल निश्चय, दृढ़ आत्मविश्वास, अगाध महावीर 'निग्गंथताथपुत्त' के नामसे ही अधिक
साहस एवं लोकोत्तर क्षमाशीलताको देखकर प्रसिद्ध हैं । इसका कारण यह है कि उस जमानेमें
भक्तिसे मस्तक झुक जाता है और मुख स्वयमेव ८ देखो, 'कौहिस्य-रुर्थशास्त्र' का मैसूर सँस्करण पृष्ठ ४५५ ९ देखो, मिसेज स्टिवेन्सन् का 'हार्ट आफ जैनिज्म' (लंडन) १० देखो, 'बंगाल बिहार उड़ीसाके प्राचीन जैनस्मारक' । पृष्ट२३
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स्तुति करने लग जाता है। बारह वर्षों के उग्र यथार्थ वस्तुस्थितिका बोध कराया, तत्वको तपश्चरणोंके बाद वैशाख शु० दशमी को जृम्भक समझाया, भूलें दूर को, कमजोरियाँ हटाई, गाँवके निकट, ऋजुकूला नदीके किनारे सालवृक्षके आत्मविश्वास बढ़ाया, कदाग्रह दूर किया, नीचे केवल ज्ञान अर्थात् सर्वज्ञज्योतिको वे प्राप्त पाखण्डको घटाया, मिथ्यात्व छुड़ाया, पतितोंको हुए। इस प्रकार मुक्तिमार्गका नेतृत्व ग्रहण करने- उठाया, अत्याचारोंको रोका, हिंसाका घोर विरोध के जब आप सर्वप्रकारसे उपयुक्त हुए तब जन्म- किया, साम्यवादको फैलाया और लोगोंको जन्मान्तरमें संचित अपने विशिष्ट शुभ संकल्पा. स्वावलम्बी बनानेका उपदेश दिया । ज्ञात होता नुसार महावीरने लोकोद्धारके लिये अपना विहार है कि आपके विहारका प्रथम स्थान राजगृह के (भ्रमण ) प्रारम्भ किया । संसारी-जीवोंको निकट विपुलाचल और वैभार पर्वत आदि पंच सन्मार्गका उपदेश देनेके लिये लगभग ३० वर्षो पहाड़ियोंका पुण्यप्रदेश था। उस समय राजगृहमें तक प्रायः समग्र भारतमें अविश्रान्त रूपसे आपका
पका शिशुनागवंशका प्रतापी राजा श्रेणिक या बिम्बविहार होता रहा। खासकर दक्षिण एवं उत्तर
सार राज्य करता था ।श्रेणिक ने भगवान्की परिविहारको यह लाभ प्राप्त करनेका अधिक सौभाग्य
षदों में प्रमुख भाग लिया है और उसके प्रश्नों पर प्राप्त है। विद्वानोंका कहना है कि इस प्रदेशका
बहुत से रहस्योंका उद्घाटन हुआ है। श्रेणिककी 'बिहार' यह शुभ नाम महावीर एवं गौतम बुद्धके
रानी चेलना भी वैशालीके राजा चेटककी पुत्री विहारकी ही चिरस्मृति है। जहाँ पर महावीरका
थी। इसलिए वह रिश्तेमें महावीर स्वामीकी शुभागमन होता था, वहाँ पशु-पक्षी तक भी आकृष्ट होकर आपके निकट पहुँच जाते थे।
मौसी होती थी। जैन ग्रन्थोंमें राजा श्रेणिक
भगवान महावीरकी सभाओंके प्रमुख श्रोताके आपके पास किसी प्रकारके भेद-भावकी गुञ्जायश
रूप में स्मरण किये गये हैं। हाँ, एक बात और है नहीं थी। वास्तवमें जिस धर्ममें इस प्रकारकी
और वह यह है कि बौद्ध ग्रन्थोंमें विम्बसार उदारता नहीं है वह विश्वधर्म-सार्वभौमिक-होने
गौतम बुद्धके एक श्रद्धालु भक्तके रूपमें वर्णित हुए का दावा नहीं कर सकता। भगवान महावीरकी
हैं । प्रारम्भावस्थामें बिम्बसारका बुद्धानुयायी महती सभामें हिंसक जन्तु भी सौम्य बन जाते थे
होना जैनग्रंथ भी स्वीकार करते हैं। अत: बहुत और उनकी स्वाभाविक शत्रुता भी मिट जाती
कुछ सम्भव है कि बिम्बसार पहले गौतमबुद्धका थी। महावीर अहिंसाके एक अप्रतिम अवतार ही
। भक्त रहा हो और पीछे भगवान महावीरकी वजह थे. इस बातको स्वर्गीय बाल गङ्गाधर तिलक, से जैन धर्ममें दीक्षित हो गया हो। महात्मा गांधी और कवीन्द्र रवीन्द्र जैसे जैनेतर विद्वानोंने भी मुक्तकण्ठसे स्वीकार किया है। ११ देखो, 'अनेकान्त' वर्ष १ कि० १ में प्रकाशित और फिर भगवान् महावीरने अपने विहारमें असंख्य स्वतन्त्ररूपसे मुद्रित मुख्तार श्रीजुगलकिशोरका 'भगवान् महावीर प्राणियोंके अज्ञानान्धकारको दूर किया, उन्हें और उनका समय' शीर्षक निबन्ध ।
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वर्ष ३, किरण ८-९]
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एक दृष्टि से विहारको यदि जैन-धर्मका उद्गम पाँचों जैन धर्मावलम्बी सिद्ध होते हैं १२ । उल्लिखित स्थान माना जाय तो भी कोई ऐसा घोर विरोध ग्रन्थों में ये सभी शासक धर्मात्मा, वीर एवं राजनहीं दिखता। क्यों कि इस समय जैन धर्मका जो नीतिपटु कहे गये हैं। इन राजाओंमें खासकर कुछ मौलिक सिद्धान्त उपलब्ध है, वह अन्तिम श्रेणिक या बिम्बसारको जैनग्रंथोंमें प्रमुख स्थान तीर्थङ्कर भगवान् महावीरके उपदेशका ही सार प्राप्त है, यह बात मैं पहले ही लिख चुका हूँ। समझा जाता है। हाँ, यह बात अवश्य है कि कुणिक या अजातशत्रु भी अपने समयका एक
आपका सिद्धान्त अपने पूर्ववर्ती शेष तेईस तीर्थंकरों प्रख्यात प्रतापी राजा था । इसने बौद्ध धर्म से के सिद्धान्तकी पुनरावृत्ति मात्र है । जैनियोंकी यह असन्तुष्ट होकर जैनधर्मको विशेषरूपसे अपनाया दृढ श्रद्धा है कि अपने वन्दनीय चौबीस तीर्थङ्करों था। मालूम होता है कि इसीलिये बौद्धग्रंथोंमें यह के मौलिक उपदेश में थोड़ा भी अन्तर कभी नहीं दुष्कर्मो का समर्थक एवं पोषक कहा गया है। रहा है। ऐसी दशामें विज्ञ पाठक स्वयं विचार कर भगवान महावीर का निर्वाण इसीके राज्य कालमें सकते हैं कि जैनियोंकी दृष्टि में विहार कितना हुआ था । परन्तु एक बात जरूर है कि इस महत्वपूर्ण अग्रस्थान रखता है । अब मैं यहाँ पर कुणिक या अजातशत्रुके राज्याधिकारी होते ही संक्षेपमें इस बातका दिग्दर्शन करा देना चाहता हूँ इसका व्यवहार अपने पिता श्रेणिकके प्रति बुरा होने कि भगवान महावीरके उपरान्त इस विहारमें लगा था। जैनग्रंथ कहते हैं कि पूर्व वैरके कारण शासन करनेवाले भिन्न भिन्न राजवंशोंका जैन- अजातशत्र अपने पिताको काठके पिंजरे में बन्दकर धर्मसे कहाँतक सम्बन्ध रहा है।
उसे मनमाना दुःख देने लगा था। किन्तु बौद्ध शिशनागवंश-ई० पूर्व छठी शताब्दी में ग्रन्थोंसे पता चलता है कि इसने बुरा कार्य देवदत्त मगधराज्य भारतमें सर्वप्रधान था । इस प्रमुख
. नामक एक बौद्ध-संघ-द्वेषी साधु के बहकानेसे
किया था। राज्य के परिचयसे ही भारतका एक प्रामाणिक इतिहास प्रारम्भ होता है । उस समय यहाँके
नन्द-वंश-सर विन्सेन्टस्मिथ, एम० ए०
का कहना है कि नन्द राजा ब्राह्मण धर्मके द्वेषी शासनकी बागडोर शिशुनागवंशीय वीर क्षत्रियों के
पार जैनधर्मके प्रेमी थे। कैम्ब्रिज हिस्ट्री भी हाथमें थी। इस वंशके राजाओंने ई० पूर्व ६४५ इस बातका समर्थन करती है। नव नन्दोंके से ई० पूर्व ४८० तक यहाँ पर राज्य किया है। मन्त्री तो निस्सन्देह जैनधर्मानुयायी थे। महा. उत्तरपुराण, आराधना-कथाकोश और श्रेणिक- पद्मका मन्त्री कल्पक था, इसीका पुत्र परवर्ती चरित्र आदि जैन ग्रंथोंसे इस वंशके शासकों- नन्द का मन्त्री रहा । अन्तिम नन्द सकल्य में से (१) उपश्रेणिक, (२) श्रेणिक (विम्बसार) देखो, विशेष परिचय के लिये 'संक्षिप्त जैन इतिहास' (३)कुणिक (अजातशत्रु),(४)(दर्शक, (५) उदयन ये भाग २, खण्ड २ । १३ देखो, 'अली हिस्ट्री आफ इण्डिया'
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अनेक [ ज्येष्ठ अषाढ़, वीर- निर्वाण सं० २४६६
सी० एम० वर्डवुड और श्रीयुत स्वर्गीय काशीप्रसाद जायसवाल प्रमुख हैं। " ईसा की ५ वीं शताब्दी तक के प्राचीन जैन ग्रन्थ एवं बाद के शिलालेखों का कथन है कि जब उत्तरभारत
में बारह वर्षोका घोर दुर्भिक्ष पड़ा था तब
चन्द्रगुप्त अन्तिम श्रुत केवली श्री भद्रवाहुके साथ दक्षिणकी ओर चला गया और वर्तमान मैसूर राज्यान्तर्गत श्रवणबेलगोल में- जहाँ अब तक उसके नामकी यादगार है-मुनि के तौर पर रहकर अन्तमें वहीं पर वह उपवासपूर्वक स्वर्गासीन हुआ | श्रवणबेलगोलकी स्थानीय अनुश्रुति भी भद्रबाहु और चन्द्रगुप्तका सम्बन्ध जोड़ती है। इतना ही नहीं; अनुश्रुति द्वारा श्रवणबेल्गोल के साथ इन दोनोंका भी सम्बन्ध जुड़ता है | श्रवणबेलगोलके दो पर्वतों में से छोटेका नाम 'चन्द्रगिरि' है जो कि चन्द्रगुप्त नामक किसी महान् व्यक्तिका स्मृति चिन्ह है। इसी पर एक गुफा भी है जिसका नाम 'भद्रबाहु' गुफा है । इसी पर्वत पर एक सुन्दर प्राचीन मन्दिर भी है, जिसका नाम 'चन्द्रगुप्तवस्ति' है ।
अथवा धननन्द था । इसका मन्त्री शकटार जैन धर्मानुयायी था, जो अन्त में मुनि होगया था । १४
इसके पुत्र स्थूल भद्र और श्रीयक थे । स्थूल भद्र जैन मुनि होगये थे और श्रीयक को मन्त्रीपद मिला था । इसीका अपर नाम सम्भवतः राक्षस था । यद्यपि उस समय भारतमें घननन्द सबसे बड़ा राजा समझा जाता था फिर भी इसमें इतनी योग्यता नहीं थी कि यह इतने विस्तृत राज्यको समुचित रीति से सँभाल लेता । फलतः उधर कलिंगको ऐरवंशके एक राजाने इससे जीत लिया; इधर चाणक्य की सहायता से चन्द्रगुप्त ने इसपर आक्रमण कर दिया। अन्त में ई० पूर्व ३२६ में नन्द वंशकी इतिश्री होगई । सर स्मिथ के कथनानुसार इसने ही जैनियों के तीर्थ पंचपहाड़ीका निर्माण पटना में कराया था ।
मौर्य वंश – जैन - साहित्य और शिलालेखोंसे मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त जैन-धर्मका परम भक्त प्रमाणित होता है । इतिहास - लेखक दीर्घ - काल तक इस बात पर विश्वास करने को तैयार नहीं हुए । परन्तु अब इधर कुछ वर्षोंसे ऐतिहासिक विद्वानोंने बहुमत से चन्द्रगुप्तका जैनधर्मानुयायी होना स्वीकार कर लिया है । इन विद्वानोंमें मि० विन्सेन्ट ए० स्मिथ, मि० ई० थामस मि० विल्सन, मि० बी० लुईस राइस, सं० इन्साइक्लोपीडिया आफरिलीजन, मि०जार्ज
१४ देखो, 'आराधना कथा कोश' भाग ३, पृष्ठ ७८-८१ । १५ देखो, 'हिस्ट्री एण्ड लिटरेचर श्राफ जैनिज्म' ।
सम्राट चन्द्रगुप्त का उत्तराधिकारी बिन्दुसार भी परिशिष्ट पर्व आदि जैन ग्रन्थों से जैन धर्मावलम्बी सिद्ध होता है । जैन ग्रन्थों में इसका दूसरा नाम सिंहसेन मिलता है। बिन्दुसार अपने श्रद्धेय पिता के समान बड़ा प्रतापी था । इसकी विजयों का पूर्ण वृत्तान्त उपलब्ध होने पर निस्सदेह इसे भी चन्द्रगुप्त और अशोक जैसे सम्राटोंकी श्रेणी में अवश्य स्थान मिल सकता है ।
१६ देखो, 'मौर्य साम्राज्य के जैन वीर' पृष्ठ । ११८-१४८ ।
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वर्ष ३, किरण ८-]
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जैनग्रंथ भी आचार्य चाणक्यको सम्राट विन्दुसार श्रेणिक ( बिम्बसार ) और उसके पुत्र कुणिक का प्रधानमंत्री प्रकट करते हैं । बिन्दुसारके (अजातशत्रु ) के नामोंके साथ लगाई गयी है। स्वर्गस्थ होने पर ई० पूर्व २७२ में इसका पुत्र पर अशोकके २२ ३ वर्षकी 'भावरा' की प्रशस्तिमें अशोक राज्यारूढ़ हुआ। कई विद्वानोंका मत है जिसमें उसके बौद्ध होनेके स्पष्ट प्रमाण हैं, उसकी कि सम्राट अशोकने अपनी प्रशस्तियोंमें जो पदवी केवल 'पियदसि' पायी जाती है, 'देवानांअहिंसा, सत्य, शील आदि गुणों पर जोर दिया पिय' नहीं। इसी बीचमें वह जैनसे बौद्ध हुआ उससे प्रतीत होता है कि वह स्वयं जैनधर्मा- होगा । पर आजकल बहुत मत यही है कि वलम्बी रहा हो तो आश्चर्य नहीं। प्रो० कनका अशोक बौद्ध था । (जैन इतिहासकी पूर्व पीठिका) कहना है कि 'अहिंसाके विषयमें अशोकके जो जैनियों की वंशावलियों और अन्य ग्रन्थों में नियम हैं वे बौद्धोंकी अपेक्षा जैनियोंके सिद्धान्तों उल्लेख है कि अशोकका पौत्र 'सम्प्रति' था, से अधिक मिलते हैं । जैनग्रंथों में इसके जैन होनेका उसके गरु 'सहस्ति' आचार्य थे और वह जैनप्रमाण भी स्पष्ट उपलब्ध है। कवि कल्हणकी धर्मका बड़ा प्रतिपालक था। उसने 'पियदसि' के 'राजतरंगणी' में अशोक द्वारा काश्मीरमें जैनधर्म- नामसे बहुतसी प्रशस्तियाँ शिलाओं पर का प्रचार किये जानेका वर्णन है। यही बात अंकित करायी थी । इस कथनके आधार पर अबुलफजलकी 'आइने अकबरीसे भी विदित प्रो० पिशेल और मि० मुकर्जी जैसे विद्वानोंका होती है। कुछ विद्वानोंका मत है कि अशोक मत है कि जो शिलाप्रशस्तियाँ अब अशोकके पहले जैनधर्मका उपासक था, पश्चात् बौद्ध नामसे प्रसिद्ध हैं, वे सम्भवतः 'सम्प्रति' ने होगया था। इसका एक प्रमाण यह दिया लिखवायी होंगी । पर सरविन्सेन्ट स्मिथकी जाता है कि अशोक के उन लेखोंमें जिनमें उसके राय इसके विरुद्ध है । वे उन सब लेखोंको स्पष्टतः बौद्ध होनेके कोई संकेत नहीं पाये जाते
अशोकके ही प्रमाणित करते हैं। अशोकके बल्कि जैन सिद्धान्तोंके ही भावोंका आधिक्य हे, समयमें सम्प्रति युवराज था और उसीने अपने राजाका उपनाम 'देवानांपिय पियदसी' पाया जाता अधिकारसे अशोकको राजकोषमें से बौद्धहै। 'देवानां पिय' विशेषत: जैनग्रन्थोंमें ही राजा- संघको दान देनेका विरोध कर दिया था। की पदवी पायी जाती है। श्वेताम्बरी ‘उवाई' सम्राट कुनालके शासनमें भी शासन-सूत्र उसी (औपपातिक ) सूत्रग्रन्थोंमें यह पदवी जैन राजा के हाथ में था । दशरथ के समय में भी वही १७ देखो, 'राजाविलकथे' ( कन्नड़)
वास्तविक शासक रहा । यही कारण है कि बहुत१८ देखो, 'यः शान्तवृजिनो राजा प्रयन्तो जिनशासनम्। से ग्रन्थोंमें सम्प्रतिको ही अशोकका उत्तराशुष्कलेऽत्र वितस्तात्रौ तस्तार स्तूपमंडले ॥ ०१
धिकारी लिख दिया है । जैन-साहित्यमें सम्प्रति१९ देखो, 'अली फ्रंथ आफ अशोक', थामस-कृत। का वही स्थान है जो बौद्ध-साहित्यमें अशोक
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. अनेकान्त
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का । उसने अपने प्रियधर्म को फैलाने के लिए यहीं संवरण करना पड़ता है। यह बात निर्विवाद बहुत प्रयत्न किया था।२ परिशिष्ट पर्वके कथ. सिद्ध है कि राजगृह, पाटलिपुत्र आदि पुरातन नानुसार सम्प्रतिने अनार्य देशोंमें भी जैन-धर्म स्थानोंसे जैनधर्मका बहुत पुराना अभेद सम्बन्ध का प्रचार किया था। दानशाला-निर्माण आदि है। १९३७ के फरवरी महीनेमें पटना जंक्सनसे अनेक लोकोपकारक कार्य भी जैनधर्मके प्रचार एक मीलकी दूरी पर लोहनीपुर मुहल्लेमें जो दो में सम्प्रतिके पर्याप्त सहायक हुए हैं। दिगम्बर जैन मूर्तियाँ खोदते वक्त मिली हैं उनके
बृहस्पतिमित्रको जीतकर मगधको वशमें लाने सम्बन्धमें पुरातत्त्वके अनन्य मर्मज्ञ स्वर्गीय डा० वाला सम्राट् खारवेल भी कट्टर जैन-धर्मावलम्वी काशीप्रसाद जायसवालका कहना है कि भारतथा। खारवेलने जैनधर्मकी बहुत बड़ी सेवा की वर्षों आजतककी उपलब्ध मूर्तियोंमें ये सबसे थी। हाथीगुफा वाले शिलालेखमें खारवेलको प्राचीन हैं । जायसवाल महोदय इन मूर्तियोंको 'धर्मराज' एवं 'भिक्षुराज' कहा गया है। कलिंगके ईसासे ३०० वर्ष पूर्वकी मौर्यकालीन मानते हैं२२ । कुमारी पर्वतपर खारवेल और उसकी रानीने कुलहा पहाड़ ( हजारी बाग.) श्रावक पहाड़ अनेक मन्दिर तथा विहार बनवाये थे। खासकर (गया), पचार पहाड़ ( गया ) आदि स्थानों की सम्राटके द्वारा निर्मित वहाँकी गुफाओंका मूल्य
मानक खोज की बड़ी आवश्यकता है। संभव है इन अत्यधिक है।
स्थानोंकी खोजसे कुछ नयी बातें इतिहासको
उपलब्ध हों। कुछ विद्वानोंका खयाल है कि कुलहा बादके विहारमें शासन करनेवाले गुप्तवंश
पहाड़ भगवान् शीतलनाथ तीर्थंकर की तपोभूमि आदि अन्यान्य राजाओंका जैनधर्मसे क्या संबंध रहा, इस बात को खुलासा करनेसे लेखका कलेवर विशेष बढ़ जायगा। इसलिये अपनी इस इच्छाका
२२ देखो, 'जैन ऐन्टीक्वेरी' भाग ३, नं० १ पृष्ठ १७-१८
२३ देखो, 'दिगम्मबरीय जैन डाइरेक्री।' २० देखो, सत्यकेतु विद्यालङ्करका 'मौर्यसाम्राज्य का इतिहास ।
२१ देखो, विशेष विवरणके लिये 'सक्षिप्तजैनइतिहास' भाग २ खंड २।
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परिग्रह-परिमाण-बतके दासी-दास
[ लेखक-श्री पण्डित नाथूराम प्रेमी ] प्रसारमें स्थायी कुछ नहीं । सभी कुछ सुवर्णादि । धण्ण धान्यं ब्रीह्यादि । कुप्प
"परिवर्तनशील है। हमारी सामाजिक व्य. कुप्यं वस्त्रं । भण्ड भाण्डशब्देन हिंगुमरिवस्थाओं में भी बराबर परिवर्तन होते रहते हैं, चोदिकमुच्यते । द्विपदशब्देन दासदासीयद्यपि उनका ज्ञान हमें जल्दी नहीं होता। भृत्यवर्गादि । चउप्पय गजतुरगादयः
जो लोग यह समझते हैं कि हमारी सामा- चतुष्पदाः । जाणाणि शिविकाविभानादिकं जिक व्यवस्था अनादिकालसे एक-सी चली आ यानं । सयणासणे शयनानि आसनानि च ।" रही है, वे बहुत बड़ी भूल करते हैं। वे जरा गह- अर्थात-खेल, वास्तु (मकान), धन (सोनाराईसे विचार करके देखें तो उन्हें मालूम हो। जाय कि परिवर्तन निरन्तर ही होते रहते हैं,
___चाँदी), धान्य (चावल आदि), कुप्य (कपड़े), हरएक सामाजिक नियम समयकी गतिके साथ
भाण्ड (हींग मिर्चादि मसाले), द्विपद (दोपाये कुछ-न कुछ बदलता ही रहता है।
दास-दासी) चतुष्पद (चौपाये हाथी, घोड़े आदि) उदाहरण के लिए इस लेखमें हम दास-प्रथा यान (पालकी विमान आदि), शयन (बिछौने की चर्चा करना चाहते हैं। प्राचीनकालमें सारे और आसन ये बाह्य परिप्रह हैं। देशोंमें दास-प्रथा या गुलाम रखनेका रिवाज लगभग यही अर्थ पण्डित आशाधरजी था। भारतवर्ष में भी था । इस देशके अन्य और आचार्य अमितगतिने भी अपनी टीकाओं प्राचीन ग्रन्थों के समान जैन-ग्रन्थों में भी इसके में किया है। इन दसमेंसे हम अपने पाठकोंका अनेक प्रमाण मिलते हैं।
ध्यान द्विपद और चतुष्पद अर्थात दोपाये और जैनधर्म के अनुसार बाह्यपग्रिहके दस भेद हैं- चौपाये शब्दोंकी ओर खींचना चाहते हैं । ये बाहिरसंगा खेत्तं
दोनों परिग्रह हैं। जिस तरह सोना, चाँदी, वत्थं धणधण्णकुप्यभण्डानि । दुपय-चउप्पय-जाणा
मकान, वस्त्र आदि चीज मनुष्यकी मालिकी णि चेव सयणासणे य तहा।१११६ समझी जाती हैं, इसी तरह दोपाये और
-भगवती आराधना चौपाये जानवर भी। चौपाये तो खैर, अब भी इसपर श्रीअपराजितसूरिकी टीका देखिए- मनुष्य की जायदाद में गिने जाते हैं, परन्तु पूर्व
"बाहिरसंगा बाह्यपरिग्रहाः । खेत्तं कालमें दास-दासी भी जायदादके अन्तर्गत कर्षणाद्यधिकरणं । वत्थं वास्तु-गृहं । धणं थे। पशुओंसे उनमें यही भिन्नता थी कि उनके
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अनेकान्त [ज्येष्ठ-अषाढ़, वीर-निर्वाण सं० २४६६
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चार पाँव होते हैं और इनके दो। पाँचवें परिग्रह (Slave) है। इस समयके नौकरका तो स्वतन्त्र त्याग व्रतके पालनमें जिस तरह और सब व्यक्तित्व है। वह पैसा लेकर काम करता है, चीजोंके छोड़नेकी जरूरत है उसी तरह इनकी गुलाम नहीं होता। कौटिलीय अर्थशास्त्रमें गुलाम थी। परन्तु शायद इन द्विपदोंको स्वयं छूटनेका के लिये 'दास' और नौकर के लिये 'कर्मकर' शब्दोंअधिकार नहीं था।
का व्यवहार किया गया है। ___ दास दासियोंका स्वतन्त्र व्यक्तित्व कितना था, ... अनगारधर्मामृत अध्याय ४ श्लोक १२१ की इसके लिए देखिए
टीकामें स्वयं पं० आशाधरने दास शब्दका अर्थ सञ्चिता पुणगंथा
किया है-"दासः क्रयक्रीतः कर्मकरः ।" वधंति जीवे सयं च दुक्खंति । अर्थात् खरीदा हुआ काम करने वाला । पं० पावं च तण्णिमित्र राजमल्लजाने लाटीसंहिताके छठे सर्ग परिगिलं तस्स से होई ॥१९६२
लिखा है“सच्चित्ता पुणगंथा वधंति जीवेगंथा परियडा दासकर्मरता दासी
क्रीता वा स्वीकृता सती । दासी दास गोमहिण्यादयो घ्नन्ति जीवान् स्वयं च दुखिता भवन्ति । कर्मणि नियुज्य
तत्संख्या व्रतशुद्ध्यर्थ मानाः कृष्यादिके पापं च स्वपरिगृहीतजीव
कर्तव्या सानतिक्रमात् ॥१५०॥ कृतासंयमनिमिचं तस्य भवति ।"
यथा दासी तथा दासः ......। -विजयोदया टीका अर्थात्,-दास-कर्म करने वाली दासियाँ अर्थात्-जो दासी-दास गाय-भैंस आदि चाहे वह खरीदी हुई हों और चाहे स्वीकार की सचित्त ( सजीव ) परिग्रह हैं वे जीवोंका घात हुईं, उनकी संख्या भी व्रतकी शुद्धिके लिये बिना करते हैं और खेती आदि कामों में लगाये जाने अतिक्रमके नियत कर लेनी चाहिये । इसी तरह पर स्वयं दुखी होते है । इसका पाप इनके स्वीकार दासों की भी। करने वाले या मालिकोंको होता है । क्योंकि इससे मालूम होता है कि काम करने वाली मालिकोंके निमित्तसे ही वे जीव-वधादि करते हैं। दासियाँ खरीदी जाती थीं और उनमें से कुछ
इससे स्पष्ट हो जाता है कि उनका स्वतन्त्र स्वीकार भी करली जाती थीं । स्वीकृताका अर्थ व्यक्तित्व एक तरहसे था ही नहीं, अपने किये हुए शायद ‘रखैल, होगा। 'परिग्रहीता' शब्द शायद पाप-पुण्यके मालिक भी वे स्वयं नहीं थे । अर्थात् इसीका पर्यायवाची है। दस तरहके बाह्यपरिग्रहोंमें जो 'दास-दासी' परि- यशस्तिलक में श्रीसोमदेवसूरिने लिखा हैग्रह है उसका अर्थ जैसा कि आजकल किया वधू-वित्तस्त्रियौ मुक्त्वा सर्वत्रान्यत्र तजने । जाता है 'नौकर नौकरानी' नहीं है, किन्तु गुलाम माता श्वसा तनूजेति मतिब्रह्म गृहाश्रमे ॥
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वर्ष ३, किरण ८-९]
परिग्रह-परिमाण-व्रतके दासी-दास गुलाम थे
__ अर्थात-पत्नी और वित्त-स्त्री को छोड़कर स्वामिनोऽस्यां दास्यां जातं अन्य सब स्त्रियोंको माता, बहिन और बेटी सम
समाकमदासं विद्यात् । ३२ । झना गृहस्थाश्रमका ब्रह्म या ब्रह्मचर्याणुव्रत है।
गृह्या चेत्कुटुम्बार्थचिन्तनी माता वित्तका अर्थ धन होता है, वित्त-श्री से तात्पर्य
भ्राता भगिनी चास्याः दास्याः स्युः।३३। धनसे खरीदी हुई दासी होना चाहिये । इसका
-धर्मस्थीय तीसरा अधिकरण । अर्थ वेश्या भी किया गया है परन्तु अब मुझे ऐसा
अर्थात्-यदि मालिकसे उसकी दासीमें प्रतीत होता है कि दासी अर्थ ही अधिक उपयुक्त
सन्तान उत्पन्न हो जाय तो वह सन्तान और होगा। कोशों में वार-योषित, गणिका पण्यस्त्री
उसकी माता दोनों ही दासतासे मुक्त कर दिये आदि नाम वेश्याके मिलते हैं, जिनके अर्थ समूह
जायँ। यदि वह स्त्री कुटुम्बार्थचिन्तनी होनेसे की, बहुतोंकी या बाजारू औरत होता है, पर
ग्रहण करली जाय, भार्या बन जाय तो उसकी
माता, बहिन और भाइयोंको भी । दासतासे मुक्त धन-स्त्री या वित्त-स्त्री जैसा नाम कहीं नहीं मिला।
' कर दिया जाय। . गृहस्थ अपनी पत्नी और दासीको भोगता इन सूत्रोंको रोशनीमें सोमदेवसूरिका ब्रह्माणुहुआ भी चतुर्थ अणुव्रतका पालक तभी माना जा व्रतका विधान अयुक्त नहीं मालूम होता। सकता है, जब दासी गृहस्थकी जायदाद मानी स्मृति-ग्रन्थोंमें दासोंका वर्णन बहुत विस्तारसे जाती हो। जो लोग इस व्रतकी उक्त व्याख्या पर किया गया है। नाक-भौंह सिकोड़ते हैं वे उस समयकी सामाजिक मनुस्मृतिमें सात प्रकारके दास बतलाये हैंव्यवस्थासे अनभिज्ञ हैं, जिसमें 'दासी' एक परि- ध्वजाहतो भुक्तदासो गृहजः क्रीतदत्रिमौ । ग्रह या जायदाद थी । अवश्य ही वर्तमान दृष्टि- पैत्रिको दण्डदासश्च सप्तैते दासयोनयः॥ कोणसे जब कि दास-प्रथाका अस्तित्व नहीं रहा है अर्थात्-ध्वजाहृत (संग्राममें जीता हुआ) और दासी किसीकी जायदाद नहीं है, ब्रह्माणुव्रतमें
भुक्त-दास ( भोजनके बदले रहने वाला, गृहज ) उसका ग्रहण निन्द्य माना जाना चाहिये।
( दासी-पुत्र ) , क्रीत ( खरीदा हुआ), दत्रिम कौटिलीय अर्थशास्त्रमें 'दासकल्प' नामक (दूसरे का दिया हुआ ), पैत्रिक पुरखोंसे चला एक अध्याय ही है, जिससे मालूम होता है कि आया ), और दण्डदास (दण्डके धनंको चुकानेके दासी-दास खरीदे जाते थे, गिरवी रक्खे जाते लिए जिसने दासता स्वीकारकी हो), ये सात थे और धन पाने पर मुक्त कर दिये जाते थे। प्रकार के दास हैं। दासियों पर मालिकका इतना अधिकार होता था याज्ञवल्क्यस्मृतिके टीकाकार विज्ञानेश्वर कि वह उनमें सन्तान भी उत्पन्न कर सकता था। (१२ वीं सदी ) ने पन्द्रह प्रकारके दास बतलाये और उस दशामें वे गुलामीसे छुट्टी पाजाती थीं। हैं, जिनमें ऊपर बतलाये हुए तो हैं ही, उनके
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अनेकान्त
सिवाय जुए में जीते हुए, अपने आप बिके हुए, दुर्भिक्षके समय बचाये हुए आदि अधिक हैं। ये दास जो कुछ कमाते थे, उस पर उनके स्वामीका
अधिकार होता था ।
पूर्वकाल में भारतवर्ष में दास-विक्रय होता था, इसके अपेक्षाकृत आधुनिक प्रमाण भी अनेक मिलते हैं
ईसा की चौदहवीं सदी के प्रसिद्ध भारतयात्री इब्नबतूताने बङ्गालका वर्णन करते हुए लिखा है कि “यहाँ तीस गज़ लम्बा सूती वस्त्र दो दीनार में और सुन्दर दासी एक स्वर्ण दीनार में मिल सकती है। मैंने स्वयं एक अत्यन्त रूपवती 'आशोरा' नामक दासी इसी मूल्यमें तथा मेरे एक अनुयायीने छोटी अवस्था का 'लूलू' नामक एक दास दो दीनार में मोल लिया था अर्थात उस समय दास-दासी अन्य चीजों के ही समान मोल मिल सकते थे ।
।
बङ्गला मासिक 'भारतवर्ष ' ( वर्ष ११ खण्ड २ अङ्क ६ पृ० ८४७) में प्रो० सतीशचन्द्र मित्र का 'मनुष्यविक्रय पत्र' नामक एक लेख छपा है । जिसमें दो दस्तावेजों की नक्कल दी है
(१) प्रायः २५० वर्ष पहले बरीसाल के एक कायस्थने ७ छोटे बड़े स्त्री-पुरुषों को ३१) रुपयेमें बेचा था । यह दस्तावेज फाल्गुन १३१६ ( बंगला संवत) के 'ढाका रिव्यू' में प्रकाशित हुई है । (२) दूसरी दस्तावेज १६ पौष १९९४ (बं० सं०) की लिखी हुई है । उसका सार यह है कि, अमीरावाद परगना ( फरीदपुर - जिला ) के गोयाला ग्राम -
'देखो, काशीविद्यापीठ द्वारा प्रकाशित 'इब्नबतूता की भारतयात्रा' का पृष्ठ ३६१ ।
[ ज्येष्ठ - अषाढ़, वीर निर्वाण सं० २४६६
निवासी रामनाथ चक्रवर्तीने अपने पदमलोचन नामक सात वर्षकी उम्र के दासको दुर्भिक्षवश अन्न-वस्त्र न दे सकने के कारण २) पण लेकर राजचन्द्र सरकारको बेच दिया । यह सदैव सेवा करेगा । इसे अपनी दासीके साथ व्याह देना । ब्याह से जो सन्तान होगी वह भी यही दास-दासी कर्म करेगी। यदि यह कभी भाग जाय तो अपनी क्षमता से पकड़वा लिया जाय । यदि मुक्त होना चाहे तो २२ मन सीसा (?) और रसून (लशूनं ?) देकर मुक्त हो जाय । दस्तावेज लिख दी सनद रहे ।
प्रमाणोंसे स्पष्ट हो जाता है कि पूर्व काल में दास-दासी एक तरहकी जायदाद ही थे, । खरीदे बेचे जा सकते थे, वे स्वयं अपने मालिक न थे, इसीलिए उनकी गणना परिग्रह में की गई है।
यह सच है कि अमेरिका-यूरोप आदि देशोंके समान यहाँ गुलामों पर उतने भीषण अत्याचारन होते थे जिनका वर्णन पढ़कर रोंगटे खड़े हो आते हैं और जिनको स्वाधीन करनेके लिए अमेरिका में (सन् १८६०) चार पाँच वर्ष तक जारी रहने वाला 'सिविल वार' हुआ था । फिर भी इस बातसे इन्कार नहीं किया जा सकता कि भारतवर्ष में भी गुलाम रखनेकी प्रथा थी और उनकी हालत लगभग पशुओं जैसी ही थी । सन् १८५५ में ब्रिटिश पार्लमेंटने एक नियम बनाकर इसे बन्द किया है। यद्यपि इनके अवशेष अब भी कहीं कहीं मौजूद हैं।
*
गुलामीका परिचय प्राप्त करने के लिए बुकर टी० वाशिंगटनका 'आत्मोद्धार' और मिसेज एच० वी० स्टो की लिखी हुई 'टाम काका की कुटिया' आदि पुस्तकें पढ़नी चाहिए।
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अमर मानव
[ लेखक - श्री सन्तराम बी० ९० ]
क फौजी डाक्टर लिखता है, – “चिकित्साशास्त्र ही रोगियोंकी प्राण-रक्षा नहीं कर सकता । कोई भी डाक्टर, जिसने युद्ध क्षेत्र में काम किया है, यह बात जानता है । अनेक ऐसे मनुष्य देखने में आये हैं, जिनको दवा-दारू और शस्त्र चिकित्सा बचाने में सर्वथा विफल रही और घायल मनुष्य केवल अपनी इच्छाशक्तिसे ही तन्दुरुस्त होकर पुन: लड़नेके लिये क्षेत्र में चले गये ।" मैं एक उदाहरण देता हूँ । सन् १९९८ में शेरोथियरी के मोर्चे के पीछे एक अस्थायी अस्पतालमें कई घायल सिपाही पड़े थे । उनमें आयोवाका एक आयरिशमैन भी था । एक गोली उसके दाहिने पार्श्वमें, हँसलीकी हड्डी के पीछेसे घुसी और उसके फेफड़े, डायाफ्राम ( Diaphragm ) पित्तकोष और यकृत मेंसे होकर निकल गयी थी । उसकी अंतड़ियों में १३ छेद हो गये थे, उनमें से छ: दुहरे रन्ध्र थे ।
मैंने पूछा - " क्या वह होश में था ?"
" बिलकुल होशमें, और बातें करता था । जब हम उसके शरीरकी परीक्षा कर रहे थे और आपरेशन की तैयारी हो रही थी, तो उसने इतने उच्च स्वरसे कहा, जिसे कि अस्पतालमें मौजूद प्रत्येक सचेत मनुष्यने सुना, - " डाक्टर ! मैं बिल कुल तन्दुरुस्त हो जाऊँगा, मेरी कुछ चिन्ता न कीजिये ।"
हमने उसे ईथर से अचेत किया, उसका पेट चीरकर खोला, उसके छेदोंको सिंया और दूसरी सभी आवश्यक बातें की। बड़े आश्चर्य की बात है कि, वह जीता बच निकला । ईथरका असर दूर होते ही वह बड़े बल के साथ बोला - "मैं बिलकुल ठीक हूँ ।" उसके निकट ही एक दर्जन दूसरे सिपाही भयङ्कररूपसे आहत पड़े थे । उनमें से एक खम्भ की तरह उठकर बैठ गया । उसने आयोवाके सिपाहीको ध्यानपूर्वक देखा और खिलखिलाकर हँस पड़ा । वह बोला, – “यदि यह इस कष्ट से जीता निकल सकता है, तो मैं भी बच सकता हूँ ।"
उस दिन से लेकर एक सप्ताह पीछेतक, जब मैं बदलकर दूसरे सेचनमें चला गया, रोगी मुझे प्रणाम कहने के बजाय यही कहा करता"डाक्टर ! मैं बिलकुल तन्दुरुस्त हो जाऊँगा, नेरी कुछ चिन्ता न कीजिये ।" वह एक ऐसा मानव बन गया, जो मरेगा नहीं और उसने अपने इर्द-गिर्द के दूसरे घायलोंमें जीते रहनेका निश्चय कर दिया ! उसकी अवस्था कई बार बिगड़ी, तापमान बहुत ऊँचा हो गया, नाड़ी तेजीसे चलने लगी और बड़े ही दुःखद लक्षण प्रकट हुए; परन्तु अपने बारबार होनेवाले चित्तभ्रमों में एकबार भी उसका यह विश्वास शिथिल न हुआ कि, चङ्गा हो जाऊँगा ।
उसने यर्सके द्वारा सन्देश भेजने आरम्भ किये । वह नर्स से कहता, "आप जाकर उस
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अनेकान्त [ ज्येष्ठ अषाढ़, वीर- निर्वाण सं० २४६६
अनुप्राणित करते थे । अधिक शोचनीयरूपसे आहत १२ व्यक्तियों में से चार मर गये; परन्तु बाकी आठ इतने पूर्णरूपसे उसके प्रभावके नीचे आ गये कि, वे सबके सब उस महासंकटमेंसे बचकर निकल आये । डाक्टर और नरसें एक समान अनुभव करती थीं और इतने उच्च स्वरसे कि, जिसे सब कोई सुन सकता था, कहती थीं, “मैं बिलकुल तन्दुरुस्त हूँ ।” – बादको जब वह आशावादी रोगी चङ्गा होकर अस्पताल से चला गया, एक सर्जन मिला। उसने मुझे बताया कि, अस्पताल के वार्ड में प्रत्येक व्यक्ति विश्वास करता कि उस आयरिशमैन ने उसे मृत्युके मुख से था, निकाला है।
उदास लेटे हुए सिपाही से कहिये कि, मेरे शरीर के भीतर १३ से २० तक छेद हैं और मैं फिर भी तन्दुरुस्त होकर पुन: रण-क्षेत्रमें जाऊँगा ।" उस व्यक्तिसे कहिये, - जो समझ रहा है कि, उसे पक्षाघात हो जायगा, — कि, "यह युद्ध अभीतक आरम्भ ही नहीं हुआ" और कहिये कि - “जितनी जल्दी हो सके, वह अपने काम पर चला जाय।” एक अफसरका दायाँ पार्श्व छरें से उड़ गया था । उससे इसने कहा, "जब तक आपकी छाती में हृदयमें मौजूद है, आपको कुछ भी चिन्ता नहीं करनी चाहिये | आप जैसा नवयुवक बड़ेसे बड़ा कष्ट सहन करके भी जीता बच सकता है। जब मैं चङ्गा होकर वापस घर जाऊँगा, तो अपने छोटे बच्चोंसे कहूँगा कि अस्पताल में मैंने एक मास की 'फलो' की छुट्टी काटी है ।"
विदा के दिन मैं उनको नमस्कार कहनेके लिये ठहर गया। मैंने कहा,— डाक्टर ! मुझे अपना पता बताते रहना, मैं आपको पत्र लिखूंगा। इस प्रकार आपको मालूम हो जायगा कि, मैं कब अपनी रेजीमेंट में वापस जाता हूँ। वीर मनुष्य यहाँ लेटकर नरसोंसे सेवा कराते हुए जीवन नहीं बिता सकता । डाक्टर ! नमस्कार, मेरी कुछ चिन्ता न करना ।"
ये आशाजनक शब्द अनिवार्यरूपसे रोज दुहराये जाते थे और अस्पताल में प्रत्येक व्यक्तिको
उस सिपाहीने मुझे सिखाया कि, हतोत्साहित सिपाही मृत्यु- मुखकी ओर खिसकने लगता है और आशा के बिना दवा-दारू कुछ भी काम नहीं देती। मैं युद्ध से जो निशानियाँ लाया हूँ, उनमें एक चिट्ठी है, जो मोरचेमेंसे एक ऐसे सिपाहीकी लिखी हुई है, जो तन्दुरुस्त होकर पुन: अपनी रेजीमेंट में गया था । वह मैं यहाँ पूरीकी पूरी उधृत करता हूँ
"डाक्टर ! मैं बिलकुल तन्दुरुस्त हूँ, मेरी कुछ चिन्ता न कीजिये ।"
( गृहस्थ से )
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भूल स्वीकार
[ लेखक - श्री सन्तराम बी० ए० ]
अमेरिका में डेलकारनेगी नाम के एक सज्जन लोगोंको मित्र बनाने और जनता को प्रभावित करनेकी कला के विशेषज्ञ हैं। उन्होंने इस विषयपर कई उत्तम ग्रंथ भी लिखे हैं । दूसरे लोगों को अपने विचारका बनाना एक गुर वे यह बताते हैं कि, यदि हम ग़लती पर हों, तो हमें अपनी ग़लतीको मान लेना चाहिये । इससे दूसरा व्यक्ति `शस्त्र डाल देता है । वे अपने जीवनकी एक घटना इस प्रकार लिखते हैं,
Comedy
"यद्यपि मैं न्यूयाक के औद्योगिक केन्द्र में रहता हूँ, तो भी मेरे घरसे मिनटकी दूरीपर जंगली लकड़ीका एक छोटासा नैसर्गिक वन है, जहाँ वसन्त ऋतुमें ब्लेकबैरीके सफ़ेद फूलोंका वितान तन जाता है, जहाँ गिलहरियाँ घोंसले बनाकर बच्चे पालती हैं और जहाँ घोड़ा घास घोड़ेके सिरके बराबर लंबी उगती है। यह प्राकृतिक बनभूमि फ़ॉरिस्टपार्क कहलाती है। मैं बहुधा अपने कुत्ते, रेक्सके साथ इस पार्क में घूमने जाया करता हूँ । रेक्स एक स्नेही और निर्दोष कुत्ता है पार्क में हमें क्वचित् ही कोई मनुष्य मिलता है । इसलिये मैं रेक्सके गलेमें न तसमा बाँधता हूँ और न मुँह
पर मुसका ।
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एक दिन हमें पार्कमें एक घुड़सवार पुलिसमैन मिला । उसे अपना अधिकार दिखानेकी खुजली हो रही थी । उसने मुझे तीव्र भर्त्सना करते हुए कहा, "आपने कुत्ते को इस पार्क में तसमे और
-
मुसकेके बिना क्यों छोड़ रक्खा है ? क्या आप नहीं जानते कि, यह क़ानूनके विरुद्ध है ?” मैंने नरमी से उत्तर दिया:-- “हाँ, मैं जानता हूँ । परन्तु मैं समझता था कि, यह यहाँ कोई हानि नहीं पहुँचायेगा ।" "आप नहीं समझते थे ! आप नहीं समते थे ! आप क्या समझते हैं, क़ानूनको इसकी रत्ती भर भी परवाह नहीं हो सकती है कि यह कुत्ता किसी गिलहरीको मार डाले अथवा किसी बच्चेको काट खाये। अब इस बार तो मैं आपको छोड़ देता हूँ; परन्तु यदि मैंने फिर कभी इस कुत्तेको यहाँ बिना तसमे और मुसकेके देख लिया, तो आपको जजके सामने पेश होना
पड़ेगा।"
मैंने विनीत भावसे उसकी आज्ञाका पालन करनेका वचन दिया और मैंने श्राज्ञा-पालन किया - थोड़ी बार । परन्तु रेक्स मुसकेको पसन्द नहीं करता था । और न मैं करता था । 'इसलिये हमने अवसर देखने का निश्चय किया । कुछ समय तक प्रत्येक बात मनोहर थी; परन्तु हम फिर पकड़े गये । एक दिन तीसरे पहर रेक्स और मैं एक पर्वतके माथे पर दौड़ रहे थे । वहाँ सहसा क़ानून की विभूति कुम्मैत घोड़े पर सवार देख पड़ा । रेक्स मेरे आगे-आगे सीधा पुलिस अफसर के पीछे दौड़ा जा रहा थाइससे मुझे बड़ी व्याकुलता हुई ।
मैं इसमें फँसता था, यह बात मुझे मालूम थी । इसलिए मैंने पुलिसमैन के बात आरम्भ
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करनेकी प्रतीक्षा नहीं की । मैंने आप ही पहल करदी | मैंने कहा – “अफसर महोदय, आपने मुझे अपराध करते हुए पकड़ लिया है । मैं अपराधी हूँ। मेरे पास अपराधके समय किसी दूसरी जगह होने का कोई उन या बहाना नहीं । आपने गत सप्ताह मुझे चेतावनी दी थी कि, यदि तुम इस कुत्तेको बिना मुसका लगाये यहाँ लाये, तो तुम्हें जुर्माना हो जायगा ।"
पुलिसमैन ने मृदुस्वर में उत्तर दिया, "हाँ, ठीक है, मैं जानता हूँ कि, यहाँ जब कोई मनुष्य इर्द-गिर्द न हो, तो इस जैसे छोटे कुत्तेको खुला दौड़ने देने का प्रलोभन हो ही जाता है।"
मैंने उत्तर दिया – “निश्चय ही यह प्रलोभन है । परन्तु यह क़ानूनके विरुद्ध है ।"
पुलिसमैन ने प्रतिवाद करते हुए कहा " इस जैसा छोटा कुत्ता किसीको हानि नहीं पहुंचायगा ।"
मैंने कहा, ' 'नहीं, परन्तु हो सकता है कि, वह किसी गिलहरीको मार डाले ।”
उसने मुझे बताया । – “मैं समझता हूँ आप इसे बहुत गम्भीर भावसे ले रहे हैं । मैं बताता हूँ कि आप क्या करें। आप उसे वहाँ पहाड़ पर दौड़ने के लिए छोड़ दिया कीजिये, जहाँ मैं उसे न देख सकूँ और हमें इसकी कुछ याद ही न रहेगी।"
वह पुलिसमैन होने के कारण, भाव चाहता था । इसलिये जब मैं धिक्कारने लगा, तो अपनी आत्म-पूजाको पोषित
महत्ताका अपनेको
[ ज्येष्ठ अषाढ़, वीर- निर्वाण सं० २४६६
करनेका एक ही मार्ग उसके पास रह गया और वह था उदारभावसे दया दिखाना ।
परन्तु मान लीजिये, मैंने अपनेको निर्दोष सिद्ध करनेका यत्न किया होता – ठीक, क्या आपने कभी पुलिसमैन के साथ वाद-विवाद किया है ? मैंने स्वी
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परन्तु उसके साथ लड़ने के बजाय, कार कर लिया कि, वह बिलकुल सच्चा है और मैं ग़लती रहूँ । मैंने यह बात शीघ्रता
से, स्पष्टता और उत्साहपूर्वक मानली, उसके मेरा पक्ष लेने और मेरे उसका पक्ष लेनेसे मामला अनुकूलता-पूर्वक समाप्त होगया ।
दूसरोंके मुखसे निकली हुई डोट-फटकार सहन करनेकी अपेक्षा क्या आत्म - आलोचना सुनना अधिक सहज नहीं ? यदि हमें पता हो कि, दूसरा मनुष्य हम पर बरसेगा, तो क्या यह. अच्छा नहीं कि उसके बोलने के पूर्व स्वयं ही उसके हृदयकी बात कह दी जाय
अपने सम्बन्धकी वे सब निन्दासूचक बातें कह डालिये, जो आप समझते हैं कि, दूसरा व्यक्ति आपसे कहने के लिए सोच रहा है, या कहना चाहता है, या कहनेका विचार रखता है - और उन्हें उसे कहने का अवसर मिलने के पूर्व ही कह दीजिये – और उसका क्रोध शान्त हो जायगा । सौ पीछे निन्नानवें दशाओं में वह उदार और क्षमाशील भाव ग्रहण कर लेगा और आपकी भूलोंको यथासम्भव कम करके दिख लायगा -ठीक जिस प्रकार पुलिसमैनने कारनेगी और उनके कुत्ते के साथ किया ।
- ( गृहस्थसे )
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गोम्मटसार-कर्मकाण्डकी त्रुटि-पूर्ति
. [शेखक-पं० परमानन्द शास्त्री]
ग्राचार्य नेमिचन्द्र-विरचित गोम्मटसारके पठन तथा उनके कार्योंका वर्णन, क्रम . स्थापन और
पाठनका दिगम्बर जैनसमाजमें विशेष उदाहरण द्वारा स्वभाव निर्देशके अनन्तर २२वीं प्रचार है। इस ग्रन्थमें कितना ही महत्व-पूर्ण गाथामें मूलकों की उत्तर प्रकृतियोंकी संख्याका कथन पाया जाता है, जो अन्य ग्रन्थों में बहुत कम क्रमिक निर्देश किया गया है । इसके बाद अधिदेखनेमें आता है। इससे करणानुयोगके जिज्ञासु- कार भरमें कहीं भी उत्तर प्रकृतियोंके क्रमशः नाम
ओंको वस्तु तत्त्वके जानने में विशेष सहायता और स्वरूप आदिका कोई वर्णन न करके एकदम मिलती है । इस ग्रंथके दो विभाग हैं, एक जीव- बिना किसी पूर्व सम्बन्धके दर्शनावरणकर्मके नव काण्ड और दूसरा कर्मकाण्ड । इनमेंसे प्रथम भेदोंमेंसे पांच निद्राओंका कार्य २३, २४ और २५ काण्डकी रचना बहुत ही सुसम्बद्ध और त्रुटिरहित नं०की तीन गाथाओं द्वारा बतला दिया गया है। है । किन्तु उसके उपलब्ध दूसरे काण्डके 'प्रकृति और इससे यह कथन सम्बन्ध विहीन तथा क्रम समुत्कीर्तन' नामक प्रथम अधिकारमें बहुत कुछ बिहीन होनेके कारण स्पष्टतया असंगत जान त्रुटियाँ पाई जाती हैं, जिनके कारण उसकी रचना पड़ता है । २२वीं गाथाके अनन्तर तो ज्ञानावरण असम्बद्ध-सी हो गई है। अनेक विद्वानोंको उसके कर्मके पाँच भेदों तथा दर्शनावरण कर्मके प्रथम विषयमें कितना ही सन्देह हो रहा है । मुद्रित प्रति चक्षु, अचक्षु आदि चार भेदोंके नाम स्वरूपादिका को ध्यान पूर्वक पढ़नेसे त्रुटियों और तज्जन्य वर्णन होना चाहिये था. तब कहीं पाँच निद्राओंके असम्बद्धताका बहुत कुछ अनुभव हो जाता है । कार्यका वर्णन संगत बैठता। परन्तु ऐसा नहीं है, यद्यपि संस्कृत और भाषा टीकाकारोंने उक्त अधि- और इसलिये यह स्पष्ट है कि यहाँ निद्राओंसे कारकी अपर्णता एवं असम्बद्धताको बहुत कुछ पर्वका कथन त्रटित है। अंशोंमें दूर कर दिया है फिर भी उसकी मूल- (२) निद्रा-विषयक २५ वीं गाथाके बाद विषयक-त्रुटियाँ अभी तक ज्योंकी त्यों बनी हुई है। २६ वीं गाथामें बिना किसी सम्बन्धके मिथ्यात्व पाठकोंकी जानकारीके लिये यहाँ उनमें से कुछ खास खास त्रुटियोंका दिग्दर्शन कराया जाता है:- * वह गाथा इस प्रकार है:
(१) उक्त 'प्रकृति समुत्कीर्तन' नामक अधि- पंच णव दोरिण अट्ठावीसं चउरो कमेण तेणउदी। कारमें कर्मको मूल आठ प्रकृतियोंके नाम, लक्षण ते उत्तरं सयं वा दुग पणगं उत्तरा होति ॥२२॥
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भनेकान्त
(ज्येष्ठ, भाषाह, बीर निर्वाण सं०२४१६
द्रव्यके तीन भेद किस तरह हो जाते हैं, यह टीकाकारोंने पूरा किया है। कथन किया गया है, जब कि कथनको संगत (५) अंगोपांग-विषयक २८ वीं गाथाके बाद बनानेके लिये यह आवश्यक था कि क्रम विहायोगति नामकर्म तथा छह संहननोंके नाम प्राप्त वेदनीयकर्म और मोहनीय कर्मके भेद-प्रभे..
अभः और उनके स्वरूपका कोई उल्लेख न करके छह दादिका कथन किया जाता; और उसके बाद २६
संहनन वाले जीव किस किस संहननसे कौन कौन वीं गाथाको दिया जाता, जैसा कि संस्कृत और गतिमें उत्पन्न होते हैं इत्यादि वर्णन २९-३०-३१भाषा टीकाकारोंने किया है । बिना ऐसा किये ग्रंथ
३२ नं० की चार गाथाओंमें किया गया है । और सन्दर्भके साथ यह गाथा संगत मालूम नहीं होती
वर्णन भी मात्र वैमानिक देवों तथा नारकियोंमें और अपनी स्थिति परसे इस बातको सूचित
उत्पत्ति के नियमका निर्देश करता है तथा कर्म करती है कि उससे पहलेकी कुछ गाथाएँ वहाँ छूट भमिकी स्त्रियों के अन्तके तीन संहननोंका ही उदय रही हैं।
बतलाता है। शेष मनुष्य तिर्यचोंमें कितने संहननों __(३) दर्शनमोह-विषयक २६ वीं गाथाके बाद
के बाद का उदय होता है ऐसा कुछ भी नहीं बतलाया चारित्र मोहनीय कर्मके २५ भेदों और आयु कर्मके ।
और न गुणस्थानों, कालों अथवा क्षेत्रोंकी दृष्टिसे चार भेदोंका तथा नाम कर्मकी पिण्ड-अपिण्ड
६ ही संहननोंका कोई विशेष कथन किया है । ऐसी प्रकतियोंके उल्लेखपूर्वक गति-जाति-विषयक प्रकृति- हालत में उक्त चारों गाथाओंका वर्णन असंगत योंका कोई वर्णन न करके और शरीरके नामों तक होने के साथ साथ अधरा और लँडुरा जान पड़ता का उल्लेख न करके २७ वी गाथामें औदारिकादि है। इन गाथाओंके पर्वमें तथा मध्यमें भी कितना पाँच शरीरोंके संयोगी भेदोंका कथन किया गया ही
ही कथन छूटा हुआ मालूम होता है। है । इससे इस गाथाकी स्थिति भी २६ वी गाथा जैसी ही है और यह भी अपने पूर्वमें बहुतसे कथन
इन गाथाओंकी ऐसी स्थिति देखकर ही आज के त्रुटित होनेको सूचित करती है।
से कोई २१ वर्ष पहले पं० अर्जुनलालजी सेठीने (४) २८ वीं गाथाकी स्थिति भी उक्त दोनों 'सत्योदय' पत्रमें लिखे हुए अपने 'स्त्री-मुक्ति' नामक गाथाओं जैसी ही है। क्योंकि इसके पर्वमें शरीर निबन्ध, कर्मकाण्डके उक्त 'प्रकृति समुत्कीर्तन' के बन्धन, संघात और संस्थान नामके भेद-प्रभेदों अधिकारको त्रुटि-पूर्ण एवं सदोष बतलाते हुए का तथा अंगों पांग नामके औदारिकादि मुख्य संहनन-विषयक उक्त चारों गाथाओंको क्षेपक तीन भेदोंका भी कोई वर्णन अथवा उल्लेख न करार दिया था और यह भी बतलाया था कि इन करके, इसमें मात्र शरीरके आठ अंगोंके नाम दिये का संकलन यहाँ पर अनुपयुक्त है। हैं और शेषको उपांग बतलाया है। बन्धनादिका मोटी मोटी त्रुटियोंके इस दिग्दर्शन परसे कोई उक्त सब कथन बादको भी नहीं किया गया है भी सहृदय विद्वान् यह नहीं कह सकता कि नेमिऔर इसलिये यह सब यहाँ पर त्रुटित है, जिसे चन्द्र जैसे सिद्धान्त चक्रवर्ति विद्वान् आचार्यने
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वर्ष ३, किरण ८.१]
गोम्मटसार-कर्मकाण्डकी त्रुटि-पूर्ति
अपने कर्मकाण्डको ऐसा त्रुटि-पूर्ण बनाया होगा, नहीं पाई जाती और जिन्हें यथास्थान जोड़ देनेसे खासकर ऐसी हालतमें जब कि उनका जीवकाण्ड कर्मकांडका सारा अधूरापन दूर होकर सब कुछ बहुत ही सुसंगत और सुव्यवस्थित जान पड़ता है, सुसम्बद्ध हो जाता है। शेष ८४ गाथाएँ उसमें अवश्य ही इसमें लेखकोंकी कृपासे कुछ गाथाएँ पहलेसे ही मौजूद हैं । इन ७५ गाथाओंमें ७० छूट गई हैं।
गाथाएँ तो कर्मकांडके उक्त प्रकृति समुत्कीर्तन हालमें मुझे आचार्य नेमिचन्द्र के 'कर्म प्रकृति अधिकारमें उपयुक्त बैठती हैं और शेष ५ गाथाएँ नामक एक दूसरे प्रन्थका पता चला और इससे ।
कर्मकाण्डकी ८०८ नंबरकी गाथाके बाद होनी उसको देखने के लिये मेरी इच्छा बलवती हो
चाहियें, क्योंकि इन ५ गाथाओं के बाद कर्मप्रकृति उठी। प्रयत्न करने पर पारा जैनसिद्धान्त भवन
में जो दो गाथाएँ और दी हैं वे उक्त काण्डमें के अध्यक्ष पं० के. भुजबलीजी शास्त्रीके सौजन्यसे ८०९ और ८१० नम्बर पर पाई जाती हैं। मुझे इस ग्रन्थकी एक दस पत्रात्मक प्रतिकी प्राप्ति अब वे ७५ गाथाएँ कौनसी हैं और उनमें से हुई, जो विक्रम संवत् १६६९ की लिखी हुई है। कौन कौन गाथा कर्मकाण्डमें कहाँ पर ठीक बैठती इसमें कुल गाथाएँ १५९ हैं, परन्तु लिपिकर्ताने हैं उसे क्रमशः बतलाया जाता हैगाथाओंकी संख्या १६४ दी है जो कुछ गाथाओं कर्मकाण्डके 'प्रकृति समुत्कीर्तन' नामक प्रथम पर ग़लत अंक पड़ जानेका परिणाम जान पड़ता अधिकारमें मंगलाचरणसे लेकर १५ नं० तक जो है, और यह भी हो सकता है कि ५ गाथाएँ गाथाएँ हैं वे सब 'कर्म प्रकृतिमें भी ज्योंकी त्यों लिखनेसे छूट गई हों, जिसका पता दूसरी प्रतियों पाई जाती हैं और यह बात दोनोंके एक ही प्रकरण के सामने आनेसे ही चल सकता है, अस्तु । होनेको सूचित करती है। १५वीं गाथामें सप्तभंगों
इस ग्रन्थ-प्रतिको देखने और कर्मकाण्डके द्वारा पदार्थों के श्रद्धानकी बात कही गई है, परन्तु साथ उसकी तुलना करनेसे मेरे आनन्दका पार वे सप्तभंग कौनसे हैं यह कर्मकाण्डसे मालूम नहीं नहीं रहा, क्योंकि मैंने जिन त्रुटियोंकी कल्पना की होता, कर्म प्रकृतिमें उनको सूचक निम्न गाथा दी थी वह सब ठीक निकली और उनकी पूर्तिका है जो १६वें नम्बर पर ठीक जान पड़ती है - मझे सहज ही मार्ग मिल गया । इस प्रकरण ग्रंथ सिवनस्थि णत्थि उभयं अव्वतव्वं पुणो वि तत्तियं । परसे कर्मकाण्डका वह सब अधूरापन और असं- दव्वं ख सत्तभंगं श्रादेसवसेण संभवदि ॥१६॥ गतपन दूर हो जाता है जो अर्सेसे विद्वानोंको खटक रहा है । इस 'कर्म प्रकृति' प्रकरणकी १५९
- कर्मकाण्डकी २० नं०की गाथाके बाद, जिसका गाथाओंमेंसे ७५ गाथाएँ ऐसी हैं जो उक्त काण्डमें
नं० एक गाथाके बढ़ जानेके कारण २१ हो जाता
है, कर्म प्रकृति में निम्न पाँच गाथाएँ और दी हैं, * 'ऐलक पन्नालाल सरस्वति भवन' बम्बईमें भी इस जिनमें कर्म बंधका विशेष एवं संगत वर्णन पाया ग्रन्थकी एक प्रति है।
जाता है:
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- अनेकान्त
..[ज्येष्ठ, भाषाढ़, वीर-निर्वाण सं०२४६६
जीवपएसेक्के के कम्मपएसा हु अंतपरिहीणा। जह भंडयार पुरिसो धणं णिवारेइ रायिणा दिएणं । होंति घणणिबडभूवं संबंधो होइ णायब्वो ॥२२॥ . तह अंतराय पणगं णिवारयं होह लद्धीणं ॥३॥ अस्थि अणाईभयो बंधो जीवस्स विविहकम्मेण । कर्मकाण्डकी २२वीं गाथाके बाद कर्म प्रकृतिमें तस्सोदएण जायइ भावो पुण राय-दोस-मत्रो ॥२३॥ निम्न १२ गाथाएँ और पाई जाती हैं जिनसे उस भावेण तेण पुणरवि अण्णे बहुपुरगला है लग्गति । त्रुटिकी पूर्ति हो जाती है जिसका उल्लेख ऊपर
नं०१में किया गया हैजह नुप्पि य गत्तस्स य णिवडारेणुव्वलगंति ॥२४॥
अहिमुहणियमयबोहणमाभिणि बोहियमणिदंइंदियनं । एक समयणिबद्धं कम्मं जीवेण सत्तभेयहि ।
बहुअादि उग्गहादिक कय छत्तीसा-तिसय भेदं ॥३७॥* परिणमई पाउकम्मं बंधं भूयाउ सेसेण ॥२५॥
अत्थादो अत्यंतरमुवलंभं तं भणंति सुदणाणं । सो बंधो चउभेयो णायव्यो होदि सुत्तणिहिटो।।
श्राभिणियोहियपुव्वं णियमेणिड सहजं पमुहं ॥३॥ पयडिटिदिअणुभागप्पएसबंधोहु चउविहो कहियो ॥२६।।
वहीयदित्ति प्रोही सीमाणणेत्ति वरिणयं समये । कर्मकाण्डकी २१वीं गाथाके बाद कर्मप्रकृतिमें भवगुणपच्चयविहियं जं ओहि णाणत्तिणं विति ॥३६॥ निम्न आठ गाथाएँ और पाई जाती हैं, जिनमें चितियमचितियं वा अद्धं चितिय मणेयमेयगयं । उक्त गाथोल्लेखित आठ कर्मों के स्वभाव विषयक मणपजवंति उच्चइज जाणइ तं ख णरलोए ॥४०॥8 दृष्टान्तोंको स्पष्ट करके बतलाया है, और इसलिये . संपुण्णं तु सम्मग्गं केवलमसवत्त सव्वभावगयं । ये सब वहाँ सुसंगत जान पड़ती हैं
लोयालोयवितिमिरं केवलणाणं मुणेदव्वं ॥४१* णाणावरणंकम्मं पंचविहं होइ सुत्तणिटिं। मसुदमोहिमणपज बकेवलणाणावरणमेवं । जह पडिमोपरिखित्तं कप्पडयं छाययं होइ ॥२८॥ पंचवयप्पं णाणावरणीय जाण जिणभणिदं ॥४२॥ दसणावरणं पुण जिह पडिहारों हु णिवदुवारम्हि। सामरणं गहणं भावाणं णेव कटु मायारं । णवविहं पॐ पुडत्थवागिहि सुत्तम्हि ॥२६॥ अविसेसदूण अढे दसणमिदि भण्णदे समये ॥४३॥* महुलित्तखग्गसरिसं दुविहं पुण होह वेयणीयं तु । चक्खूण नं पयासइ दीसइ तं चक्खू दंसणं विति । सायासापविभिएणं सुह-दुक्खं देइ जीवस्स ॥३०॥ . सेसिदियप्पयासो णायन्वो सो अचक्खुत्ति ॥४४॥* मोहेइ मोहणीयं जह मयिरा अहव कोदवा पुरिसं। परमाणुअादियाई अंतिमखंधत्ति मुत्ति दवाई। तं अडवीस विभिएणं णायब्वं जिणु वदेसेण ॥३१॥ तं ओहि दसणं पुण नं पस्सइ ताइ पच्चक्खं ॥४॥ श्राउं चउप्पयारं णारय-तिरिच्छ मणुय सुरगईयं । बहुबिहबहुप्पयारा उज्जोवा परिमियम्मि खेत्तम्मि । हडिखित्त पुरिससरिसे जीवे भवधारणं समत्थं ॥३२ लोयालोयवितिमिरो जो केवलदसणुज्जोओ ॥४६॥* चित्तं पडंबविचित्तं णाणा णाम णिवत्तणं णाम। * इस चिन्ह वाली गाथाएँ गोम्मटसार जीवतेया णवणिय गणियं गइ-जाइ-सरीर-आईयं॥३३॥ काण्डमें क्रमशः नम्बर ३०५, ३१४, ३६३, ४३७, गोदं कुलाल सरिसं णीचुच्चकुलेसु पायणे दच्छं। ४५६, ४८१, ४८३, ४८४, ४८५, २८३, २८४, २८५, घडरंजणाय करणे कुंभायारो जहा णेवरणो ॥३॥ २८६, २७३, २७२, २७४ पर उपलब्ध होती हैं।
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वर्ष ३, किरण ८-१]
चक्खु चक्खू घोही केवल भालोयणाणमावरणं । इत्तो व भणिस्लामो पणणिद्दा दंसणावरणं ॥ ४७॥ हथगिद्धिणिद्दा खिहाणिद्दा य तहेव पयला य । णिद्दा पयला एवं णवभेयं दंसणावरणं ॥ ४८॥
कर्मकाण्डकी २५ वीं गाथाके अनन्तर कर्मप्रकृति में निम्न गाथाएँ और हैं जिनसे उस त्रुटि की पूर्ति हो जाती है जिसका उल्लेख 'ऊपर नं० २ में किया गया है। क्योंकि इनमें से पहली गाथा में क्रमप्राप्त वेदनीयकर्मके साता श्रसाता रूपमें दो भेदों और मोहनीयकर्म के दर्शन मोहनीय तथा चारित्र मोहनीय ऐसे दो भेदोंका उल्लेख करके दूसरी गाथामें यह प्रकट किया है कि दर्शन मोहनीय बंधकी अपेक्षा एक मिध्यात्व रूप ही है और उदय तथा सत्ताको अपेक्षा मिथ्या त्व, सम्यग्मिथ्यात्व तथा सम्यक्प्रकृतिके भेदसे तीन भेदरूप हैं । और इसलिये इनके बाद २६ वीं गाथाका वह कथन संगत बैठ जाता है जिसका उक्त नं० २ में उल्लेख है:
गोम्मटसार कर्मकाण्डकी त्रुटि - पूर्ति
दुहं खु वेणीयं सादमसादं च वेयणीयमिदि । पुदुवियपं मोहं दंसणचा रित्तमोहमिदि ॥१२॥ बंधादिगं मिच्छं उदयं सत्तं पडुच्च तिविहं खु । दंसणमोहं मिच्छं मिस्सं सम्मत्तमिदि जाण ॥५३॥
कर्मकाण्डकी २६ वीं गाथाके बाद कर्मप्रकृति में निम्न गाथाएँ और हैं जिनसे उस त्रुटिंकी पूर्ति हो जाती है जिसका उल्लेख ऊपर नं० ३ में दिया गया है:
दुविहं चरितमहं कसायवेयणियणोकसायमिदि । पढमं सोलवियप्पं विदियं एवभेयमुद्दिहं ॥५५॥ श्रयं अपञ्चक्खाणं पञ्चक्खाणं तहे वसंजलणं । कोहो माणं माया लोहो सोलस कसा एदे ॥५६॥
२४१
सिलपुर विभेदधूली जलरा इसमाणश्रो हवे कोहो । णारयतिरियण रामरगईसु उपायो कमसो ॥५७ सिलट्ठिकट्टवेते यिभेण । खुरंतो माणं । णारयतिरियणरामरगईसु उत्पायनो कमसो ॥५८॥ वेणुवमूलोरब्भयसिंगे गोमुत्तए य खोरपे । सरिसीमायाणारयतिरियणरामरगईसु खिवदि जीवं ॥ ५६* किमिरायचक्कतखुमल हरिहराएण सरिसश्रो बोहो । णारयतिरिक्खमाणुस देवेसुध्पायनो कमसो ॥६०॥* सम्मत्त देससयलचरित्त जहखादचरण परिणामे । घादंति वा कसाया चउ सोलसश्रसंखलोग़भिदा । ६१ हस्स-रदि- अरदि-सोयं भयं जुगुच्छा य इस्थि-पुंवेयं ! संढं वेयं च तहा एव एदे णो कसाया य ॥६२॥ छादयदि सयं दोसे यदो छाददि परंपि दोसे छादणसीला जम्हा तम्हा सो वरिणया इत्थी ॥ ६३ ॥ पुरुगुणभोगे सेदे करेदि लोयहि पुरुगुणं कम्मं । पुरुउत्तमो य जम्हा तम्हा सो वणियो पुरिसो ॥ ६४॥ विरथी व पुमं णपुंसश्रो उहयलिंगविदिरित्तो । इट्ठावग्गिसमाणगवेदणगरुश्रो कलुसचित्तो ॥ ६५॥ णारयतिरियणरामरक्षा उमिदि चउभेयं हवे नाऊं । णामं बादालीसं पिंडापिंडप्पभेयेण ॥ ६६ ॥ णारयतिरिय माणुस देवगइत्ति य हवे गई चदुधा । इगिवितिच उपंचक्खा जाई पंचप्पयारेहिं ॥ ६७ ॥ ओरालियवेगुब्वियाहारय तेजकम्मणसरीरं । इदि पंच सरीरा खलु तारा वियप्पं वियागाहि ॥६८॥
कर्मकाण्डकी २७वें नम्बरको गाथाके बाद कर्मप्रकृति में चार गाथाएँ और हैं, जिनमें बंधनसंघात स ंस्थान और अंगोपांग के भेदोंका उल्लेख है । और जिनसे वह त्रुटि दूर हो जाती है जिसका उल्लेख ऊपर नं० ४ में किया गया है। वे चारों . गाथाएं इस प्रकार हैं:
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५४२
अनेकान्त ।..
ज्येष्ठ, आषाढ़, वीर-निर्वाण सं०२४६६
पंच य सरीरबंधण्णामं पोरान वह य वेउव्वं । जस्स करमस्स उदए अवजहङ्गायिखीलिया आई ।
आहारतेजकरमणसरीरबंधण सुणाममिदं ॥७०॥ दिढबंधाणि हवंति हु खीलिय णाम संहडणे ॥८१।। पंच संघादणामं पौरालियं तहय जाण देउवं । जस्स कम्मस्स उदए अण्णोणमसंपत्तहडसंधीओ।। श्राहारतेजकरमण सरीरसंघादणाम मिदि ॥७॥ णरसिर धाणिहवे तं खु असंपत्तसेवढें ॥२॥ समचउरणिगोहं सादीकुजं च वामणं हुडं। कर्मकाण्डकी ३१वीं गाथाके बाद कर्मप्रकृति में संठाणं छन्भेयं इदि णिहिट जिणागमे जाण ॥७२॥ - चार गाथाएँ और हैं, जिनमें से पहलीमें उन नस्क ओरालियवेगुब्वियमाहारयश्चंगुष्वंगमिदिमणिदं। भूमियों के नाम देकर जिनके संहनन-विषयका अंगोवंगं तिविहं परमागमकुसजसाहहिं ॥७३॥ कथन ३१वीं गाथामें किया गया है, शेषमें संहनन___ कर्मकाण्डको २८ वी गाथाके बाद कर्म प्रकृति विषयक कुछ विशेष वर्णन किया है-अर्थात में आठ गाथाएँ और हैं, जिनमें विहायोगति गुणस्थानोंकी दृष्टि से संहननोंका सामान्यरूपसे नाम कर्मके दो भेदोंका और छह संहननोंके नाम विधान करते हुए यह बतलाया है कि मिथ्यात्वादि तथा उनके स्वरूपका पृथक पृथक रूपसे निर्देश सात गुणस्थानों में छहों, अपूर्वकरणादि चार किया गया है। इसलिये जिनके अनन्तर उक्तः गुणस्थानोंमें प्रथम तीन संहनन और क्षपकश्रेणी काण्डकी २९, ३०, ३१ न० की ३ गाथाओंको के पाँच गुणस्थानों में पहला एक, वज्रवृषभनाराच रखनेसे उनका कथन पूर्णरूपसे संगत हो जाता है. संहनन ही होता है । विकल धतुषकमें-एकेन्द्रिय,
और फिर उन गाथाओंके क्षेपक होतेकी भी कोई दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवोंमेंकल्पना नहीं की जा सकती, गौर न वे क्षेपक कही असंप्राप्तामृपाटिका नामका छठा संहनन बताया जा सकती हैं । वे आठों गाथाएँ इस प्रकार हैं:- है, असंख्यात वर्षकी आयुवाले देवकुरु-उत्तरकुरु दुविहं विहायणामं पसायअपसव्यगमण इदि णियमा। आदि भोगभुमिया जीवोंमें प्रथम वनवृषभनाराच वज्जरिसहासयं वजणासय-णासयं ॥७॥ ... तामके संहननका विधान किया है और चतुर्थ, तह अद्ध नारायं कीलियसंपत्तपुण्वसेव्ह । - पंचम तथा छटे कालमें क्रमसे छह, अंतके तीन इदि संहडणं कम्विह मणाइणिहणारिसे भणियं ॥७६॥ और पास्त्रीरके एक संहननका होना बतलाया है। जस्स कम्मस्स उड्ये कुजमयं अट्ठीरिसहा सयं। इसी तरह सर्व विदेहक्षेत्रों, विद्याधरक्षेत्रों, म्लेच्छ तस्संहडणं भणिदं वज़रिसणासपणाममिदि. १७५|| खण्डोंके मनुष्य-तियचों और नागेन्द्र पर्वतसे जस्सुदये वजमायं अट्ठीणासयमेव सामखणं । आगेके तियेचोंमें छहों संहननके होनेका विधान रिसहो तस्संहणं णामेण य: वज़णास्यं ॥५८ किया है । इस सब कथन के बाद उक्त काण्डकी जस्सुदये वज मया हड्डामो, बजरहियणासयं। ३२ नं० की गाथा आती है, जिसमें कर्मभमिकी रिसहो तं भणियव्वं णारायसीदसंबद्धणं ॥७॥ त्रियोंके अन्त के तीन संहननोंका कथन किया .वजविसेसेण रहिदा अट्ठीमो अविणासयं ॥ मया है और यह स्पष्ट लिखा है कि उनके जस्सुदये तं भणियं णामेण तं पद्धणासयं ॥४०॥ श्रादिके तीन संहनन नहीं होते । और
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वर्ष ३, विरण 4-1] गौम्मदसार-कर्मकाण्डकी एक त्रुटि-पूर्ति
११३ इसलिये उसे किसी तरह भी प्रक्षिप्त नहीं कहा जा पंचय वरुणस्येदं पीदहरिदारुणकिरहवएणमिदि । सकता, जिसे प्रक्षिप्त ठहराकर सेठोजीने अपने गंधं दुविहं णेयं सुगंधदुग्गंधमिदि जाण ॥१॥ स्त्रीमुक्ति विषयकी पुष्टि करनी चाही थी । ३१ वीं तित्तं कडुवकसायं अबिलमहुरमिदि पंचरसणामं ।
और ३२ वीं गाथाओंके मध्यमें इस सब कथन मउगं कक्कम गुरुलहु सीदुण्हं णिद्धरुक्खमिदि ॥१२ । वाली गाथाओंके जुड़नेसे संहनन विषयक वर्णन फासं अङ्क वियभ्यं चत्तारित्राणु पुन्धि अणुकम का वह सब अधूरापन और लंडापन दूर हो णिरवाणु तिरियाणु णराणुदेवाणुपुवुत्ति ॥१३॥ जाता है जिसका ऊपर न० ५ में उल्लेख किया एदा चोइस पिंडप्पयडीओ वरिणदा समासेण । गया है। उक्त चारों गाथाएँ इस प्रकार हैं:- यतो (१) इपिंडप्पयडीओ अडवीसं वरणयिस्सामि ॥३१ खम्मा वंसा मेघा अजणास्छिा तहेव अणवजा। अगुरुनहुगं उवघादं परधादं च जाण उल्सासं । छुट्टी मघवी पुढची सत्तमिया माधवी णामा ॥८६॥ । पादावं उज्जोवं छप्पयडी भगुरुलघुक्कमिदि ॥१॥ मिच्छाऽपव्वद्गा(खवा १)विस सगचदुपणवाणरोसु कर्मकाण्डकी ३३वीं गाथाके बाद कर्मप्रकृतिमें हिममेण ।
छह गाथाएँ और हैं, जिनमेंसे प्रथम दो गाथाओं पढ़मादियामि छत्तिगि प्रोण क्सेिसदो णेया ॥॥ में नामकर्मकी अवशिष्ट २२ अपिंड प्रकृतियों के वियनचाउके छठं, पडमं तु असंखभाउजीवसु । नाम गिनाए हैं। दूसरी दो गाथाओंमें नामकर्मकी च उत्थे पंचमछट्ट' कमसोच्छत्तिगेक संहडणा ॥८॥ उन्हीं अपिण्ड प्रकृतियोंका शुभ-अशुभ रूपसे सम्वविदेहेसु तहा विजाहरम्बाखुमणुयतिरिएसु । विभाजन किया है-जिनमेंसे त्रस १२और स्थावर छस्संहबणा भणिया णागिपरदो य तिरिपसु मा प्रकृतियाँ १० हैं । और शेष दो गाथाओंमें नाम
कर्मकाण्डकी ३२ वीं गाथाके बाद कर्म प्रकृति कमकी ९३ प्रकृति योके कथनकी समाप्ति को सूचित में ५ माथाएँ और हैं जिनमें नामकर्मकी १४ पिण्ड करते हुए क्रमप्राप्त गोत्र और अन्तराय कर्मकी प्रकृतियोंमेंसे अवशिष्ट वर्ण, रस, स्पर्श, और प्रकृतियोंको बतलाकर कर्मों की सब उत्तर प्रकृतियाँ आनुपूर्वी नामकी प्रकृत्तियोंका कथन करके पिण्ड- इस प्रकारसे १४८ होती हैं ऐसा निर्देश किया है । प्रकृतियोंके कथनको समान किया गया है, और वे गाथाएँ इस प्रकार हैं:साथ ही २८ अपिण्डप्रकृतियों के कथनकी प्रतिज्ञा तसथावरं च बादर मुहुमं पजत तह अपज्जत्त। करके उनमेंसे आदिकी अगुरुलघु आदि ६ प्रक- पस्तेय सरीरं पुण साहारखसरीरं थिरं अथिरं ॥१०॥ तियोंका उल्लेख किया । जिनमें प्राताप और सुह-असुह सुहग-दुब्भग-सुरुसर-दुस्सर तहेव सायव्वा । उद्योत नामकी वे प्रकृतियाँ भी शामिल हैं जिनके आदिजमणादिज जसजसवित्तिणिमिपतित्थयरं । उदयका नियम कर्मकाण्डकी ३३ वी गाथामें बत, तसवादपज्जत्तं पत्तेयसरीरथिरं सुहं सुहुगे। लाया गया है । और जिनके बिना ३३ वीं गाथाका मुख्सरमादिश्वं पुणजसकिसिविविणतित्थयरं ॥१३॥ कथन मसंगत जान पड़ता है । वे गाथाएँ इस भावरसुङमअपज्जवं साहारणसमीर अथिर भणियं । प्रकार हैं:
असुहं दुष्भगदुरूपरणाविजअजसकित्तित्ति ॥१०॥
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५४४
अनेकान्त
ज्येष्ठ , आषाद, वीर निर्वाण सं०२४६६
इदि णामप्पयडीओ तेणवदी उन गीच मिदि दुविहं। तृतीय भवमें अथवा उसी भवस मुक्तिको प्राप्त गोदं कम्मं भणिदं पंचविहं अंतराय तु ॥१०॥ करता है और क्षायिक सम्यक्त्व वाला जीव तह दाण बाह भोगोवभोग वीरिय अंतराय विगणेयं । उत्कृष्टरूपसे चतुर्थभवमें मुक्त होजाता है। इदि सव्वुत्तरपयडीओ अडदालसयप्पमा हुति ॥१०२ . . . इन गाथाओंके बाद १९ गाथाएँ ( १०३ से
... उपसंहार १२० नम्बर की ) वे ही हैं जो कर्मकाण्डमें ३४ से ऊपरके इस संपूर्ण विवेचन और स्पष्टीकरण ५१ नम्बर तक दर्ज हैं। शेष ३९ गाथाओंमेंसे ३२ परसे सहृदय पाठकोंको जहाँ यह स्पष्ट बोध होता गाथाएँ ( नं० १२१ से १५२ ) कर्म काँडके दूसरे है कि गोम्मटसारका उपलब्ध कर्मकाण्ड कितना अधिकारमें और दो गाथाएँ (नं० १५८,१५९ ) अधूग और त्रुटियोंसे परिपूर्ण है, । वहाँ उन्हें छठे अधिकार में पाई जाती हैं। बाकीको पाँचः यह भी मालूम हो जाता है कि त्रुटियोंको सहज गाथाएँ जो 'कर्मकांडमें नहीं पाई जाती और ही में दूर किया जा सकता है-अर्थात् उक्त ७५ उसके छठे अधिकारमें गांथा नं० ८८८ के बाद गाथाओंको, जो कि स्वयं नेमिचन्द्राचार्यकी कृति त्रुटि न जान पड़ती हैं वे इस प्रकार हैं:- रूपसे अन्यत्र ( कर्मप्रकृतिमें ) पाई जाती हैं और दसणविसुद्धिविणयं संपण्णत्तं तहेव सीलवदे।
जो संभवतः किमी समय कर्मकाण्डसे छूट गई सणदीचारो त्ति फुडं णाणवजोगं व संवेगो ॥१३॥
अथवा जुदा पड़ गई हैं उन्हें, फिरसे कर्मकाण्डमें सत्तीदो चागतवा साहुसमाही तहेव णायच्वा ।
यथा स्थान जोड़ देनेसे उसे पूर्ण सुससंगत और विजावचं किरियं अरिहंतायरियबहुसुदे भत्ती ॥१५॥ सुसम्बद्ध बनाया जा सकता है । आशा है पवयणयरमाभत्ती श्रावस्सयकिरिय अपरिहाणी य । विद्वान् लोग इस अनुसंधान एवं खोज परसे मग्गप्पहावणं खलु पवयणवच्छल्लमिदि जाणे ॥१५॥ समुचित लाभ उठाएँगे। और जो सज्जन कर्मएदेहिं पसरथेहिं सोलसमावेहि केवलीमूले। काण्डको फिरसे प्रकाशित करना चाहें वे उसमें . तित्थयरणामकम्म बंधदि सो कम्मममिजो मणुसो॥११६ उक्त ७५ गाथाओंको यथास्थान शामिल करके तित्थयरसत्तकम्मं तदियभवे तब्भवे हु सिझदियं ।। उसे उसके पूर्ण संगत और सुसम्बद्ध रूपमें ही खाइयसम्मत्तो पुण उक्कस्सेण दु चउत्थभवे ॥१७॥ प्रकाशित करना श्रेयस्कर समझगे साथ ही जिन्हें इन गाथाओं में तीर्थकर नामकर्मको हेतुभूत विशेष कहना हो वे अपने उन विचारों को शीघ्र
इस विषयमें अनुकूल या प्रतिकूल रूपसे कुछ भी षोडशकारण भावनाओं के नाम दिये है, और यह ही प्रकट करने की कृपा करेंगे। बताया है कि इन प्रशस्त भावनाओं के द्वारा केवलीके पादमूलमें कर्मभूमिका मनुष्य तीर्थकर- ता०२७-६-१९४० वीरसेवामन्दिर, सरसावा प्रकृतिका बंध करता है। साथ ही, यह भी बताया गया है कि तीर्थकर नामकर्मकी सत्तावाला जीव
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धर्म बहुत दुलभ है
[ले० श्री जयभगवाव जैन बी. ए., एसएस. बी. वकील]
यह जीवन दुःखी है:-
दुःखी रहना जीवनका उद्देश नहीं:- .. जिधर देखो, जीवन दुःखी है । यह समस्त जीवन, प्रश्न यह है कि क्या इस प्रकारका दुःखी जीवन जो चार महाभूतों-द्वारा आकाशको घेरकर शरीरवाला जीवनका अन्तिम ध्येय है ? मरणशील जीवन , ही बना है, रूप-संज्ञा-कर्मवाला बना है, जो इन्द्रियोंसे जीवनकी पराकाष्ठा है ? क्या जीवनं इसीके लिये बना देखने में आता है, बुद्धिसे जाननेमें आता है, दुःखी है। है-इसीके लिये रहता है ? क्या इससे अागे ढूंढने के क्यों ?
लिए, इससे आगे बढ़नेके लिये जीवनमें और कुछ . इसलिये कि इसमें लगातार परिवर्तन है, लगातार नहीं ? अस्थिरता है, लगातार अनित्यता है, लगातार इष्टताकाइनका उत्तर नफ़ीमें ही देना होगा। चूँकि जहाँ वियोग है।
यह आर्य सत्य है कि यह जीवन दुःखी है, वहाँ यह भी इसलिये कि इसका श्रादि भोलीभाली बाल्य-लीला आर्य सत्य है कि दुःखी रहना जीवनका उद्देश्य नहीं, में होता है, मध्य मदमस्त जवानीमें होता है, उत्कर्ष मरना जीवनका अन्त नहीं । जीवन इससे कहीं अधिक चिन्तायुक्त बुढ़ापे में होता है और अन्त निश्चेष्टकारी बड़ा है, ऊँचा है, अपूर्व है। मृत्युमें होता है।
इस सत्यके निर्धारित करने में क्या प्रमाण है ? इसलिये कि यह प्रकृति-प्रकोपसे, आकस्मिक उप. इसके लिये दो प्रमाण पर्याप्त हैं । एक स्वात्मअनुभूति द्रवोंसे सद्रा लाचार है । भूक-प्यास, गर्मी-सर्दी, रोग- दूसरा महापुरुष अनुभूति । व्याधिसे सदा व्यथित है । चिन्ता-विषाद, शोक-सन्ताप स्वात्मानमति की साक्षी:से सदा सन्तप्त है । अनिष्ट घटनाओंसे सदा त्रस्त है,
अन्तरात्मा इसके लिये सबसे बड़ा साक्षी है । सबसे नित्य नई निराशाओंसे सदा निराश है और मृत्युसे
बड़ा प्रमाण है । वह दुःखको सत्ताको आत्मतथ्य मान सदा कायर है।
कर कभी स्वीकार नहीं करता । वह बराबर इससे लड़ता - यह जीवन दुःखी है, इसके माननेमें किसीको विवाद नहीं। यह सर्व मान्य है, सब ही के अनुभव
रहता है । वह बराबर इसके प्रति प्रश्न करता रहता है, सिद्ध है। यह आर्य सत्य है, श्रेष्ठ सत्य है ।
शंकायें उठाता रहता है। इसीलिये वह इसकी निवृत्ति
के लिये, इससे भिन्न सत्ताके लिये सदा जिज्ञासावान् * दीघनिकाय २२ वा सुत्त।
बना है।
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अनेकान्त
वह इसमें कभी श्रात्मविश्वास धारण नहीं करता । वह सदा कहता रहता है - "दुःख श्रात्मा नहीं, श्रात्मस्वभाव नहीं, यह अनिष्ट है, अनात्म है, यह न मेरा है, न मैं इसका हूँ, न यह मैं हूँ, न मैं यह हूँ ।
वह इसके रहते कभी संतुष्ट नहीं होता, कभी कृत्यकृत्य नहीं होता । वह इसके रहते जीवसमें सदा किसी कमीको महसूस करता रहता है, किसी पूर्तिके लिये भविष्य की ओर लखाता रहता है, किसी इष्टकी भावनाको भाता रहता है, इसलिये वह सदा इच्छावान्
शान बना है ।
वह दुःखके रहते नित्य नये नये प्रयोग करता रहता हैं, नये नये सुधार करता रहता है, नये नये मार्ग ग्रहण करता है, इसीलिये वह सदा उद्यमशील बना है
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यह कहना ही भूल है कि जीवन इस दुःखी जीवन के लिये बना है, इस दुःखी जीवनकै लिये रहता है । यह न इसके लिये बना है, न इसके लिये रहता है । यह तो उस जीवन के लिये बना है, उस जीवन के लिये टिका है जो इसकी भावनाओं में बसा है, इसकी काम ना रहता है, जो दृष्ट है, अज्ञेय है ।
यदि जीवन इतना ही होता जितना कि यह दृष्टिगत है तो यह क्यों जिज्ञासावान् होता ? क्यों प्राप्त से
प्राप्त की ओर, नीचे से ऊपर की ओर, यहाँसे वहाँकी ओर, सीमित से विशाल की ओर, बुरेसे अच्छे की ओर अनित्यसे नित्यकी ओर, अपूर्ण से पूर्ण की ओर बढ़ने में संलग्न होता ?
[ ज्येष्ठ, भाषाद, वीर निर्वाण सं० २४६६
कर लेता, इसमें संतुष्ट होकर रह जाता, इसमें कृत्कृत्य हो अपना अन्त कर लेता । परन्तु यह जीवन इतना नहीं, यह अन्य भावनाओं के सहारे, भावी आशाओंके सहारे, भ्रष्ट इष्ट के सहारे बराबर चला जा रहा है, बराबर जिन्दा है ।
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इसमें जरा भी अतिशयोक्ति नहीं कि यदि जीवन इतना ही होता, तो जीव इसे सर्वस्व मान कर विश्वास.
+ संयुक्तनिकाय २१. २.
महापुरुषोंकी साक्षी:
यदि यह जानना हो कि वह दृष्ट इष्ट कौनसा है, उसका स्वरूप कैसा है, वह कहाँ रहता है, उसे पानेका क्या मार्ग है, तो इसके लिये अन्तरात्माको टटोलना होगा । यदि अन्तरात्माको टटोलना कसाध्य दिखाई दे तो उन महापुरुषोंके अनुभवोंको अध्ययन करना होगा जिन्होंने तमावरणको फाड़कर अन्तरात्मा को टटोला है, जिन्होंने तृष्णा के उमड़ते प्रवाहको रोक कर अपना समस्त जीवन सत्य-दर्शन में लगाया है, जिन्होंने भयरहित हो आत्माको मन्थनी, दुःखको पेय चिन्तवनको बलोनी बनाकर संसार सागरको मथा है, जिन्होंने मायाप्रपञ्चको फाँदकर सत्यकी गहराई में गोता लगाया हैं, जिन्होंने रागद्वेषको मिटाकर मौत और अमृतको अपने वश किया है, जिन्होंने शुद्ध-बुद्ध दिव्यताका सन्देश दिया है, जो परम पुरुष, दिव्यदूत, देव, भगवान् श्रर्हेत, तीर्थंकर, सिद्ध प्राप्त आदि नामों से विख्यात् हैं, जो संसारके पूजनीय हैं । इस क्षेत्रमें इन्हींका वचन प्रमाण है #
* (अ) प्राप्तः खलु साक्षात्कृतधर्मा यथादृष्टस्यार्थस्य चिख्यापयिषया प्रयुक्त उपदेष्टा ।
- न्यायदर्शन - वात्सायन टीका १-१-७ (आ) येनातं परमैश्वर्यं परानंदसुखास्पदं । बोधरूपं कृतार्थोऽसावीश्वरः पटुभिः स्मृतः ॥ - आप्तस्वरूप ॥२३॥
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धर्म बहुत दुर्लभ है
वर्ष ३, किरण ८-६].
इन्हें छोड़कर साधारण जनसे इस तथ्यका पता पूछना ऐसा ही है जैसा कि अन्धेसे मार्गका पता पूछना । वह अण्डे में बन्द शावक के समान अन्धकारसे व्याप्त हैं । वे स्वयं प्रकाशके इच्छुक हैं । उन्होंने अन्तरात्मा को भी नहीं देख पाया है । उनका वचन इस क्षेत्र में प्रमाण नहीं हो सकता ।
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ये सब ही आत जन एक स्वरसे उच्चारण करते हैं कि जीवनका इष्ट इस जीवनसे बहुत ऊँचा है, बहुत महान् है, बहुत सुन्दर है, बहुत आनन्दमय है । वह इष्ट सुखस्वरूप है, सुख पूर्णता में है, पूर्णता श्रात्मा में है* श्रतः श्रात्मा ही इष्ट है श्रात्मा ही प्रिय है, श्रात्मा ही देखने, जानने और आसक्त होने योग्य है | |
ये सब ही आश्वासन दिलाते हैं कि जीवन और जीवनका इष्ट दो नहीं, दूर नहीं, भिन्न नहीं, एक ही है । दोनों एक ही स्थान में रहते हैं । केवल अन्तर अवस्था का है – इनमें से एक भोक्ता है, दूसरा केवल ज्ञाता है । एक कर्मशील है दूसरा कृत्कृत्य है । जब श्रात्मा इस वस्थाकी महिमाको देख पाता है तो वह स्वयं महान् हो जाता है।
(इ) स देवो यो अर्थं धर्मं कामं सुददाति ज्ञानं च । स ददाति यस्य अस्ति तु श्रर्थः कर्म च प्रव्रज्याः ॥ —बोधप्राभृत (संस्कृतछाया) २४ * "यो वै भूमा तत्सुखम्, नारुपे सुखमस्ति, भूमैवसुखम्”
- छा० उप० ७-२३-१
1 न वा घरे सर्वस्य कामाय सर्व प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति । आत्मा वा घरे दृष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः ॥”
- वृह० उप०२.४...
† (अ) द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृत्तं परिषस्व
ये सब ही आशा बंधाते हैं, कि इष्ट-सिद्धिका मार्ग भी स्वयं श्रात्मामें छुपा है । श्रात्मा स्वयं भाव है, स्वयं भावना है, स्वयं मार्ग है
इस मार्गका नाम सत्य है, चूंकि यह मर्त्यको मृत से मिला देता है ।। इसका नाम धर्म है चूंकि यह जीवनको संसार दुःखसे उभार कर सुख में घर देता है $ । यह नीचे से उठाकर सर्वोच्चपद में बिठा देता है ।। यह असम्भव चीज नहीं, प्रत्येक हितेषी इसका साक्षात् कर सकता है । और स्वयं देखलो ||
*99
ये सब ही प्रेरणा करते हैं "उठो, जागो, प्रमादको त्यागो, सचेत बनो, सत्संगति करो, सत्यको पहिचानो, धर्मका आचरण करो *।” देर करनेका समय नहीं,
जाते ।”
-ऋग्वेद १.१६४.२० = मुण्डक उप०३-१-१-३. - श्वेताश्वतर उप०४-६-७ (आ) “I and my fother are one.”
-Bible-St. John. 10.30
* (अ) तत्वानुशासन ॥ ३२ ॥
(श्रा) “I am the way, the truth and the life" — Bible St. John 14.6.
छा० उप० ८ ३.५.
$ (अ) “संसारदुःखतःसत्त्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे ।”
-रत्नकरण्ड श्रावका ० ॥८॥
(अ) तामिल वेद - प्रस्तावना ४. १ पञ्चाध्यायी २ - ७१५
+ अंगुत्तरनिकाय ३-५२
*
(अ) उत्तिष्ठ जाग्रत प्राप्य वरान् निबोधत्"
(बा) धम्मपद ॥ १६८ ॥
कठ० उप० ६.१४
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चमेकान्त
[ज्येष्ठ, भाषाढ़, वीर-निर्वाण सं०२४५६
शंका समाधानका समय नहीं, मौत मुँह फाड़े खड़ी है, हमारे समान श्रद्धावान, प्रज्ञावान, कार्यकुशल हो जाता इससे पहले कि रोग शरीरको निकम्मा करे, बुढ़ापा है, परम सुखी होजाता है । वह फिर जन्ममरणमें नहीं शक्तियोंको जीर्ण करे, तुम अपने आपको धर्मसाधनामें पड़ता है। लंगादोजो आत्माको जाने बिना, मौतको जीते
धर्म मार्ग ग्रहण करनेकी कठिनताः-- बिना इस भव से विदा हो जाता है वह सदा यमका अतिथि बना रहता है।
परन्तु कितने हैं जो इस धर्म-मार्गको जानते हैं ? इस परिवर्तनशील जगमें एक ही चीज़ अविचल कितने हैं जो इसे जाननेकी सामर्थ्य रखते हैं ? कितने है, वह धर्म है । उसीकी शरण जाई। सल्लक्ष्य इस
+ (4) मां हि पार्थ व्यपाभित्य ये ऽपि स्युः पापयोनयः का शिर है, सद्ज्ञान इसका नेत्र है और सदाचार इस
खियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेपि यान्ति परां गतिम् ॥ के पग हैं, इन तीनोंकी एकतासे ही इसकी सत्ता सुदृढ़
-गीता १.३२. बनी है । यह सदा लक्ष्यको दृष्टि में गाड़कर, सद्ज्ञानसे (या) गीता १८-६६ हेय उपादेयका विवेक करता हुआ उस पार चला (इ) मुण्डक० उप० ३.१.३. जाता है । यह नाश होने वाली चीज़ नहीं, यह निस्य (ई) तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किंवा । है, ध्रुव है, शाश्वत् है । इस पर चलकर ही पूर्वमें
भूत्याश्रितं य इह नास्मसमं करोति ॥" मनुष्योंने सिद्धिका लाभ किया है। इस पर चलकर
-भक्तामर ॥१०॥ मनुष्यं भविष्य में सिद्धिका लाभ करेंगे ।
(उ) I am the light of the world, he that ये सब ही अचलपद पर खड़े हुये अपने आदर्श- followeth me shall not walk in darkness, but द्वारा शिक्षा देते हैं, "यदि इष्ट जीवनकी कामना है, shall have the light of life."
-Bible-St. John 8-12 उसके उत्कृष्ट स्वरूपको जानना है, उसके मार्गको
(55) “He that hearth my word, and belieसमझना है तो हमारी ओर देखो, जो हमारा जीवन है, veth on him that sent me hath everlasting वही इष्ट जीवन है, जो हमारा पद है, वही उत्कृष्ट पद life and shall not come into condemnation but
is passed from death unto life," है, जो हमारा मार्ग है, वही सिद्धीका मार्ग है, जो हम
Bible-St. John 5-24 पर विश्वास लाता है, हमारे बतलाये हुये तत्त्वोंको (ए) "And whosoever livethi and believeth ठीक समझता है, हमारे चले हुए मार्ग पर चलता है, in me shall never die," वह पुनः अन्धकारमें नहीं पड़ता, वह इधर उधर नहीं
-Bible-St. John. 11-26 भटकता, वह व्यर्थ ही शक्ति का हास नहीं करता । वह (ऐ) "If ye had known me, ye should
have known my Father also... he that hath + उत्तराध्यपन ४.१, मज्झिमनिकाय ६३वाँ सुत्त ।
seen me hath seen the Father.... Believe me + वृह उप० ४.१.१४; केन उप०२.१.
that I am in the Father and the Father in me.
Verily verily I say unto you, he that believeth * उत्तराध्ययन २३, १८-४४, सूत्रकृताङ्ग १.८.१,६.
on me, the works that I do, shallibe do also" *निर्ग्रन्थप्रवचन ३.१५, मज्झिमनिकाप-१वौं
-Bible-St. John. Chapter 14.
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वर्ष ३, किरण म-1]
धर्म बहुत दुर्लभ है
हैं जो इसे जानने की कोशिश करते हैं ? कितने के सहारे ही अपनी जीवन-नौकाको चलाते हुए आगे हैं जो जानकर इसपर श्रद्धा लाते हैं ? कितने हैं जो चले जारहे हैं । इन्होंने दुःखकी समस्या समझने; सुख श्रद्धा लाकर इस पर चलते हैं ? कितने हैं जो चलकर का रहस्य मालूम करने, वर्तमान दशासे दूर लखाने, इष्टका साक्षात् करते हैं, मनोरथमें सफल होते हैं, दुःख वर्तमान जीवनसे भिन्न जीवनको लक्ष्य करने, रूढिक के विजेता होते हैं ?
मार्गको छोड़ अन्य मार्गको अपनाने की शक्तिका ही लोप बहुत विरले, कुछ गिने चुने मनुष्य-जो जीवन- कर दिया है। इन्हें धर्मतत्त्वको समझने, धर्मतत्त्वमें लोकके उत्तङ्ग शिखर कहला सकते है :। शेष समस्त श्रद्धा लाने, धर्म-मार्ग पर आरूढ़ होनेका सामर्थ्य ही जीवन-लोक पहाड़ी घाटियोंके समान अन्धकारसे व्याप्त प्राप्त नहीं है । मनुष्य-जीवन ही ऐसा जीवन है, जिसमें हैं, पहाड़ी नदियों के समान शीघ्रतासे संसार-सागरकी दुःखानुभूतिके साथ दु:खसुखके रहस्यको समझने, ओर चला जा रहा है।
उनके कारणोंको मालूम करने, एक लक्ष्यको छोड़ ___ यह क्यों ? क्या शेष जीवन-लोक दुःखका अनुभव दूसरेको लक्ष्य बनाने एक मार्गको त्याग दूसरेको ग्रहण नहीं करता ? दुःखसे छुटकारा नहीं चाहता ! शेष करनेकी ताकत मौजूद है । मनुष्य जीवन ही हेयोपादेय जीवन-लोक दुःखका अनुभव ज़रूर करता है, दुःखसे बुद्धि, तर्क वितर्क-शक्ति उद्यम पुरुषार्थका क्षेत्र है ।। छुटकारा भी चाहता है। परन्तु वह दुःखसे अपना मनुष्यभवमें ही धर्म-साधना सम्भव है * । उद्धार करने में असमर्थ है । मनुष्यको छोड़कर समस्त
जब मनुष्य-भवमें धर्मसाधना सम्भव है, तो मनुष्यप्राणियोंका जीवन-समस्त एकेन्द्रियलोक समस्त वनस्पति
में धर्म-साधना क्यों नहीं ? मनुष्यका जीवन सुखी क्यों लोक, समस्त विकलेन्द्रिय लोक, समस्त पशुपक्षिलोक
नहीं ? सफल क्यों नहीं ? कृतार्थ क्यों नहीं १ मनुष्यगाढ़ अन्धकारसे ढका है, मोहसे व्याप्त है, भय और
जीवनमें भी इतना संक्लेश क्यों ? इतनी दुःख पीड़ा, दुःखसे ग्रस्त है । इन पर भयने, दुःखने इतना काबू
क्यों ? इतना भेद भाव क्यों ? इतना संघर्ष क्यों ? पाया है कि यह भय और भयके कारणोंकी ओर, दुःख
निस्सन्देह मनुष्य-भवमें ही धर्मसाधना सम्भव है और दुःखके कारणोंकी अोर लखानेसे भी भयभीत हैं। इसीलिये यह उनकी श्रोरसे मुँह फेर कर रह गये हैं, .
परन्तु समस्त मनुष्य धर्म साधनाके योग्य नहीं, धर्मके
अधिकारी नहीं । इनमें से बहुतसे तो नाममात्रके ही आँख मैंदकर रह गये हैं. ज्ञान रोक कर रह गये हैं। इसीलिये इनकी ज्ञानशक्ति, देखने भाननेकी शक्ति,
मनुष्य हैं । श्राकृतिको छोड़कर वे शील शक्ति, प्राचार
व्यवहार में पशु समान ही हैं, पशु समान ही बुद्धिहीन स्मरण रखनेकी शक्ति, कल्पना करनेकी शक्ति, सब ही
हैं, ज्ञानहीन हैं, जड़ और मूढ़ हैं। उनके ही समान स्व. आच्छादित होगई हैं, खोईसी हो गई है । इन्होंने दुःख को श्रोमल करने की चेष्टामें ज्ञानको ही अोझल कर
__ च्छन्द और अनर्गल गतिसे चलने वाले हैं। उन्हें दीन
छ दिया है, समस्त जानने वाली चीज़ोंको ही अोमल कर पञ्चास्तिकाय ॥३६॥ दिया है, समस्त लोक और आत्माको ही प्रोझल कर कार्तिकेयानुप्रेचा ॥२९॥ गोम्मटसार (जीवकांड६६८) दिया है । ये यन्त्रकी भाँति अभ्यस्त संस्कारों, संज्ञाओं के प्रश्न उप० ५.३.
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प्रदेकान्त
[ज्येष्ठ, आषाढ़, वीर-निर्वाण सं०२४६६
%3
और दुनियाका कुछ पता नहीं, भूत और भविष्यका उच्छेद करना चाहते हैं, भव-उत्पति द्वारा भयको कुछ पता नहीं, उनके लिए वर्तमान क्षण ही काल है, निर्मूल करना चाहते हैं । वर्तमाम जीवन ही जीवन है।
बहुतसे सात्विक बुद्धि हैं, सरल हृदय हैं, नम्रभाव ___ बहुतसे पशु-समान तो नहीं हैं, परन्तु दुर्वद्धि हैं. हैं, वे अपने सुख-दुःखका विधाता अपनेसे बाहिर,अपने श्रालसी और शक्तिहीन हैं । वे पशुसमान अचेत जीवन से भिन्न, अपनेसे दूर मानते हैं । वे उस सत्ताको समस्त को, पुरुषार्थहीन जीवनको सुखी मानते हैं। वे जान बझ शक्ति, समस्त मन, समस्त सुख, समस्त पूर्णताका कर पशु-समान अज्ञानमार्गके अनुयायी बने हैं। वे भण्डार जानते हैं । वे उसकी भक्ति उपासनासे, प्रार्थना निद्रा-तन्द्रामें पड़े हुए, सुरापानमें झमते हुए, नशैली याचनासे दुखका अभाव, सुखका लाभ होना समझते वस्तुओंके नशेमें ऊँघते हुए, दुःखको भुलानेमें लगे हैं।
भी हैं। ये याज्ञिक मार्गके अनुयायी हैं । ये अपनेको धर्मको
_ जानने वाला, धर्म पर चलने वाला मानते हैं । परन्तु बहु तसे विचारवान् हैं, रसिक और भावुक हैं, ये धर्म जानते हुए भी धर्म नहीं जानते, धर्म मानते परन्तु शक्तिहीन हैं, वे बिना पुरुषार्थ प्रानन्द मोगी हए भी धर्म नहीं मानते. धर्म पर चलते हुए भी धर्म होना चाहते हैं, वे भोगमार्गके अनुयायी बने हैं । वे पर नहीं चलते । ये सब मिथ्यात्वसे पकड़े हुए हैं । विषयवासनामें सने हुए, संगीत-सुरासुन्दरीमें रमे हुए, मोह मायासे हगे हुए हैं । सुख-आस्वादनमें लगे हैं, दुःख-कारणोंको बहकानेमें - ये यक्ष-वनस्पति में, पशु-पक्षियोंमें, हवा पानीमें, लगे हैं।
नदी पर्वतोंमें, बनखण्ड-देशभूमिमें, चान्दसूरजमें, ग्रह... बहुतसे कुशाग्र बुद्धि हैं, बड़े पुरुषार्थी और उद्यमी नक्षत्रमें, आकाश-काल में, प्रकृति-विभूतिमें, परम शक्तिहैं; व्यवहार-कुशल और कर्मयोगी हैं; परन्तु बाह्यसुखी वान देवताका दर्शन करते हैं । विशेष दिशाको हैं, अपनेसे बाहिर सुख ढूंडने वाले हैं, प्रपञ्चमें विश्वास दिव्य दिशा, विशेष देशको दिव्य देश, विशेष कालको रखने वाले हैं, ये लोकको विजय करनेमें लगे हैं। दिव्यकाल, विशेष रूपको दिव्यरूप मानते हैं । ये विभिन्न वस्तुओंके जमा करनेमें लगे हैं । ये धन-धान्य विशेष भाषाको दिव्य भाषा, विशेष वाक्यको. दिव्यकञ्च ने पाषाण, ज़र-ज़मीन, महलमाड़ी बटोरने में लगे वाक्य, विशेष वाक्य-संग्रहको दिव्य शास्त्र समझते हैं । हैं. । ये स्वार्थसिद्धि में विश्वास करने वाले हैं, ये सिद्धि. ये विशेष जाति वाले, विशेष कर्माचारी, विशेष रूपधारी मार्गकी शिष्टता-अशिष्टतामें विश्वास करने वाले नहीं । को गुरु ग्रहण करते हैं । ये विशेष प्रकारका रूप धारण इसीलिए ये आपस में लड़ते-भिड़ते, कटते-मरते, लटवे- करना, विशेष भाषा बोलना,विश्वेष वाक्यका जप करना, खसोटते यथा तथा आगे बढ़ रहे हैं । ये व्यवहार मार्ग विशेष विधि अनुसार विशेष २ कर्म करना धर्म मानते के अनुयायी हैं, उद्योग-मार्गके अनुयायी हैं । ये हैं । इनमें भला देवता कहाँ ? दिव्यता कहाँ ? धर्म परिग्रह-द्वारा अपूर्णताका अन्त करना चाहते हैं, व्यव. कहाँ ? साय-द्वारा दुःखका अभाव करना चाहते हैं । ये 'शठं ये सब अपनेसे बाहिर, अपनेसे भिन्न तत्त्वके भक्त प्रति शाठ्यं' के अनुयायी हैं । कैर संशोधन द्वारा बैरका बने हैं, ये सब नाम, रूप,कर्म के उपासक बने हैं । ये
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वर्ष ३, किरण 5-8 ]
धर्म बहुत दुर्लभ है
देश-काळ परिमित सप्ताके सेवक बने हैं । वे सब धर्मके धर्म तत्त्वकी सूक्ष्मता:लोभ में भासके पीछे चलने वाले हैं, जल के लोभ में मरीचिका के पीछे दौड़ने वाले हैं, अमृतके लोभ में संसार-वनमें घूमने वाले हैं । ये सब धर्म हीन हैं।
इसका क्या कारण है ? जब सब ही जीव सुखके मिली हैं, · सब ही सुखके लिए प्रयत्नशील हैं, तो वे सुख मार्ग पर क्यों नहीं चलते ? उनकी दृष्टि धर्मकी और क्यों नहीं जाती ? वे धर्मका आचरण क्यों नहीं करते ? क्यों यह धर्म एक ढकोसला है ? भ्रम है ? दिल बहलानेकी वस्तु है ! केवल एक शुभ कामना है ?
वास्तविक है:
नहीं, धर्म ढकोसला नहीं, भ्रम नहीं, बहलानेकी चीज़ नहीं, यह वास्तविक है । यह इतना ही वास्तविक है जितना कि सुख और सुखकी भावना, पूर्णता और पूर्णताकी भावना, अमृत और अमृतकी भावना । यदि सुख और सुखकी भावना वास्तविक हैं तो सुखका मार्ग वास्तविक क्यों नहीं ? कोई भावना ऐसी नहीं, जिसका भाव न हो, कोई भाव ऐसा नहीं, जिसकी सिद्धी का मार्ग न हो । जहाँ भावना रहती है, वहीं उसका भाव रहता है, जहाँ भाव रहता है वहीं उसका मार्ग रहता है । सुखकी भावना, पूर्णताकी भावना मृतकी भावना श्रात्मा में बसी हैं। इसलिये सुखमयी तस्व, पूर्णतामयी तत्त्व, अमृतमयी तत्त्व भी आत्मा में रहता है । श्रात्मामें ही उसकी सिद्धीका मार्ग परन्तु इस तत्वको समझने, इस मार्गको ग्रहण करने में दो कठिनाइयाँ हैं - १. धर्म तत्वकी सूक्ष्मता २. जीवन कीं विमूढता ।
है ।
* भाषाभूत ॥११०॥
छुपा
२५१
यह धर्म-तत्व यद्यपि बहुत सीधा और सरल है, बहुत निकट और स्वाश्रित है । यह ऐसा ही सीधा है जैसे दीप-शिखा, ऐसा ही सरल है जैसे दीप प्रकाश, ऐसा ही निकट है जैसे दूध में घी, ऐसा ही स्वाश्रित है जैसे शरीर में स्वास्थ्य । यद्यपि यह सर्वप्राप्य है, सकल भेद भाव रहित प्राणिमात्र में मौजूद है । यद्यपि इसीके सहारे समस्त जीवनका विकास नीचे से ऊपर की ओर हो रहा है - शारीरिक जीवनसे सामाजिक जीवनका चोर, सामाजिक आर्थिक की ओर आर्थिकसे मानसिक की
र, मानसिक से नैतिककी ओर, नैतिकसे आध्यात्मिक की ओर - परन्तु इस तत्वका मानना कठिन हो गया है, इसके जाननेका जो साधन अन्तज्ञीन है, वह काम में न श्रानेसे - अभ्यास में न रहने से कुण्ठित हो गया है, मलीन हो गया है, खोया सा हो गया है, चौर जो इसके विपरीत तत्वको देखने जाननेका साधन है, वह इन्द्रियज्ञान, बुद्धिज्ञान, नित्य प्रति अभ्यास में लाने से अधिक अधिक तीक्ष्ण हो गया है ।
धर्मका तत्त्व कोई ऐसी बाह्य वस्तु नहीं जो इन्द्रियों से दिखाई दे, बुद्धि से समझ में आये, हाथ पावसे पकड़ में श्राये, रुपये-पैसेसे खरीदी जाए, यह अन्तरङ्ग वस्तु है, तर्क और बुद्धिसे दूर है, हाथ और पाँवोंसे परे है । यह जीवन में छुपा है, जीवनको विकल करनेवाली अनुभूतियोंगें छुपा है, जीवनको ऊपर उभारनेवाली भावनात्रों में • छुपा है । यह अव्यन्त गइन है, यह सूक्ष्मता से दिखाई देने वाला है, अन्तर्ज्ञानसे समझ में आनेवाला है जो अनुभवी पण्डित हैं, वेही इसे देख सकते हैं * ।
-
* कठ० उप०३.१२.१ मीता ७. २५ । मज्झिमनिकाय
२६बाँ सुच
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१५२
अनेकान्त
इसीलिये अनेक विष जानने पर भी यह बतलाया नहीं जाता, अनेक प्रकार शास्त्रोंके पढ़ने और मनन करनेसे भी यह दृष्टिमें नहीं आता । इसका बोध बहुत दुर्लभ ।
है
इस धर्मके मर्मको जाने बिना, जीवन उद्देश्यको जानना, उद्देश - सिद्धि के मार्ग को जानना, उत्थान उपायों को जानना, शरीर, गृहस्थ, समाज और राष्ट्र प्रति कर्तव्योंको जानना, उनके अनुसार जीवनको बनाना, नितान्त असम्भव है । जब लक्ष्यका ही पता नहीं, मंजिल काही पता नहीं, तो मार्गका पता कैसे लग सकता है ? इसीलिए जीवन में विविध प्रसंग श्रा पड़ने पर बहुत बार साधारण जन ही नहीं बड़े२ बुद्धिमान भी कर्म-कर्म के मामले में कर्तव्य विमूढ हो जाते हैं । उस वक्त यह निर्णय करना कि अमुक स्थिति में क्या करना चाहिये, क्या नहीं करना चाहिये बहुत मुश्किल हो जाता है ।
जहाँ धर्म-तत्वको जानना दुर्लभ है, धर्म-मार्गको निश्चित करना कठिन है, वहाँ धर्मतत्व पर श्रद्धा लाना, धर्म-मार्ग पर चलना और भी मुशकिल है, धर्म
मार्ग बाला से भी अधिक नेड़ा है, तुर धारसे भी अधिक तीक्ष्ण है । बहुत थोड़े हैं, जो धर्मको जानते हैं बहुत ही कम हैं जो इस पर श्रद्धा लाते हैं । बहुत हो बिरले हैं जो इस पर चलते हैं ।
मुरडक० उप० ३.२.३
* "वोहिं अच्चत्तदुलहं होदि" द्वादशानुप्रेक्षा ॥८३॥ किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः” - गीता ४.१६.
[ ज्येष्ठ, आषार, वीर निर्वाण सं०१४६६
यह मार्ग लक्ष्यमें ज़रासी भ्रान्ति होने से, जरासा प्रमाद होने से नीचेसे निकल जाता है । इसका पथिक मोहके पैदा हो जानेसे श्राचारमें विषमता अजाने से पथसे स्खलित हो जाता 1
* (अ) "सुरस्य धारा निशिता दुरत्यया, दुर्गं पथः तत कवयो वदन्ति” --कठ० उ० ३.१४. (आ) उत्तराध्ययन सूत्र ३.२०; १०,४; १६.४.
धर्म-मार्गपर कौन चल सकता है ?
जो निर्भ्रान्त है, आस्तिक बुद्धि वाला है, जीवनलक्ष्यको सदा दृष्टिमें रखनेवाला है, जो आध्यात्मिक जीवनको साध्य और अन्य समस्त जीवनको अर्थात् शारीरिक, गृहस्थ सामाजिक, राष्ट्रिक, नैतिक जीवनको साधन मानने वाला है, जो मोक्ष पुरुषार्थको परम पुरुसमझने वाला है। जो समदृष्टि है, सब ही 'प्राणियोंको पार्थ और अन्य समस्त पुरुषार्थोंको सहायक पुरुषार्थं
अपने समान देखने वाला है' जो समबुद्धि है; सब ही अवस्था में एक समान रहने वाला है जो सुख के समय हर्ष को और दुःख के समय विषादको प्राप्त नहीं होता वह ही धर्ममार्ग पर चल सकता है।
जो तत्वज्ञानी है, श्रात्म अनात्मका भेद जानने वाला है । जो भावनामयी तत्वको आत्मा और नाम, रूप, कर्मात्मक तत्वको अनात्म मानने वाला है, जो विवेकशील है, हित हितका विचार रखने वाला है, जिसके लिये न कुछ अच्छा है, न कुछ बुरा है । जो हित-साधक है वही अच्छा है, जो हित-बाधक है वही बुरा है। जो प्रत्येक कर्मके अच्छेपन और बुपिनको केवल उसके अभिप्रायसे नहीं जाँचता, बल्कि उसके फल, उसके परिणामसे जाँचने वाला है। जो विशाल
(इ) "Because strait is the gate and narrow is the way which leadeth unto life, and few there are that find it."
---Bible St. Matthew, 7-14.
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वर्ष ३, किरण 5-6]
धर्म बहुत दुर्लभ है
५५३
दृष्टि है, अनेकान्ती है, प्रत्येक तत्वको, प्रत्येक घटनाको उन्नति करता हुआ दूसरोंकी उन्नतिको नहीं रोकता, प्रत्येक पुरुषार्थको अनेक अपेक्षाओंसे देखने वाला है। जो अपने उठने के साथ दूसरोंको उठाता चलता है अनेक अपेक्षाओंसे समझने वाला है, जो सर्वग्राहक उभारता चलता है; वही धर्म मार्ग पर चल सकता है । है, जो अपनी दृष्टिको एकान्तमें डालकर संकीर्ण नहीं जो जितेन्द्रिय है, वशी है, शान्त चित्त है, विषयों होने देता । जो स्वहित-परहित, व्यक्तिगत हित की आसक्तिसे लक्ष्यको नहीं भूलता, कषायोंकी तीव्रतासे स्मष्टि गत हित, वर्तमान हित, भावि हित सब ही हितों कर्तव्यको नहीं छोड़ता, बाधाओंसे घबराकर धीरताको की अपेक्षासे पुरुषार्थके हेय उपादेयपनका निर्णय नहीं खोता, वही धर्म पर चल सकता है। करने वाला है, जो प्रज्ञावान है, जो साध्य और साधन, जो श्रात्म-विश्वासी है; जो सहायता-अर्थ बाह्य व्यवहार और निश्चय में से किसीकी भी उपेक्षा नहीं देवी देवताओंकी ओर नहीं देखता,उनके प्रति याचनाकरता, जो यथावश्यक अपने समय और शक्तिको सब प्रार्थना नहीं करता, उनके प्रति यज्ञ हवन, पूजा भक्ति में ही पुरुषार्थों में बाँटने वाला है । जो सदा अपनेको समय नहीं खोता, जो स्वयं आत्मशक्तियोंमें भरोसा स्थिति अनुरूप बनाने वाला है, वही धर्म-मार्ग पर चल रखने वाला है, दृढ़ संकल्प शक्ति वाला है, निर्भय है, सकता है ।
साहसी है, उद्यमी है, वही धर्म-मार्ग पर चल सकता ___ जो निर्मोही है; नाम-रूप-धर्मात्मक जगतमें रहता है। हुश्रा भी कभी उसको अपना नहीं मानता, कभी उसका जो सदा जागरूक और सावधान है, जो अतिक्रम, होकर नहीं रहता, जो कमल समान सदा ऊपर होकर व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचारसे अपने मार्गको दूषित रहता है, सदा अात्महितका विचार रखता है । जो नहीं होने देता । जो निरहंकार है, "मैं" और "मेरे" समस्त जगत, उसके समस्त पदार्थ, समस्त सम्बन्ध, के प्रपंचमें नहीं पड़ता; जो निष्काम है, निराकारी है, समस्त रीतिरिवाज, समस्त संस्थाप्रथा, समस्त विधि- जो कोई भी काम मान, मिथ्यात्व, निदानके वशीभूत विधान, समस्त क्रियाकर्मको व्यवहार मानता है, ऊपर होकर नहीं करता, जो अपने कियेका फल धन-दौलत, उठनेका साधन मानता है, साधन मानकर उनको पुत्र-कलत्र, मान-प्रतिष्ठा श्रादि किसी भी दुनियावी अर्थ ग्रहण करता है, रक्षा करता है, प्रयोग करता है, यथा- के रूपमें नहीं चाहता, जो अपनी समस्त शक्ति, समस्त वश्यक उनमें हेरफेर करने, सुधार करनेमें तत्पर रहता पुरुषार्थ, समस्त जीवन, ब्रह्मके लिये अर्पण करता है, है, यथावश्यक सदा 'उन्हें त्यागने, आहुति देनेमें समस्त विचार, समस्त वाणी, समस्त कर्म ब्रह्मके लिये तय्यार रहता है, वही धर्ममार्ग पर चल सकता है। होम करता है, वही धर्म-मार्ग पर चल सकता है । ___ जो अहिंसावान है, दयावान है, सबके हितमें जो कर्म-कुशल है, योगी है, जो बालक-समान अपना हित मानता है, सबके उद्धारमें अपना उद्धार एक बार ही चान्दको पकड़ना नहीं चाहता, जो सहायक मानता है; जो सबका हितैषी है, सबका मित्र है, जो शक्तियोंको बढ़ाता हुआ, विपक्ष शक्तियोंको घटाता
आप रहता है दूसरोंको रहने देता है, जो खुद स्वतन्त्र हुआ, श्रेणीबद्ध मार्गसे ऊपरको उठाता है, वही धर्म है, दूसरोकी स्वतन्त्रताका श्रादर करता है, जो अपनी मार्ग पर चल सकता है ।
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५५४.
अनेकान्त
अर्थात् जो सम्यकदृष्टि है, स्थितप्रज्ञ है, स्थिर बुद्धि है, समदर्शी है, योगी है, श्रास्तिक्य- प्रशम-संवेग अनु कम्पा गुण वाला है। निशंकित आदि श्रष्ट अङ्ग वाला त्रिमूढता और अष्ट मद रहित है, त्रिशल्यसे खाली है, मैत्री-प्रमोद-करुणा, माध्यस्थ भाव से भरा है, अविरोध रूपसे धर्म-अर्थ-काम- पुरुषार्थोंकी सेवा करने वाला है, वही धर्म-मार्ग पर चल सकता है, वही वास्तव में धर्मात्मा है, वही सुखका अधिकारी है ।
[ ज्येष्ठ, आषाद, वीर निर्वाण सं०२४६६
भिन्न और जीवन ही कौनसा है ? इस इन्द्रिय-ज्ञान से भिन्न और ज्ञान ही कौनसा है ? इस लोकको छोड़ कर और किधर जाये ? इस जीवनको छोड़ कर और किधर लखाये ? इस ज्ञानको छोड़कर और किसका सहारा ले ? इस तरह देखता जानता हुआ यह बहिरात्मा बना है । यह नास्तिक बना है । अपनेसे विमुख बना है । इस प्रकार सक्ति में पड़ा है, परासक्ति में रत 'है' परासक्ति में प्रसन्न है, उसके लिए दुःखको साक्षात् करना, दुःखके कारणों को समझना, दुख-निरोधका • संकल्प करना, दुःख-निरोधके मार्ग पर लगना बहुत कठिन है । जो इस प्रकार इन्द्रिय बोधको ही बोध मानता है, इन्द्रिय प्रत्यक्षको ही वस्तु मानता है, उसके लिये श्रदृष्टमें विश्वास करना, श्रदृष्ट के लिये उद्यम
う
करना बहुत मुशकिल है ।
लोक विमूढ़ है:
1.
जहाँ धर्म तत्त्व इतना सूक्ष्म है, धर्म-मार्ग इतना . कठिन है, वहाँ यह लोक अन्धा है, यहाँ देखने वाले बहुत थोड़े हैं † । यहाँ जीवन अनादि की भूलभ्रान्ति से ढका है, अविद्यासे पकड़ा हुआ है, मोहसे प्रसा हुआ है, यह अपने को भुलाकर परका बना हुआ है, अपनेको न देखकर बाहिरको देख रहा है, अपनेको न टटोलकर बाहिरको टटोल रहा है, अपनेको म पकड़ कर बाहिरको पकड़ रहा है। इसकी सारी रुचि, सारी श्रासक्ति, सारी शक्ति बाहिरकी ओर लगी हुई है, सारी इन्द्रियाँ बाहिर को खुली हुई है, सारी बुद्धि बाहिर में घसी हुई है, सारे ara बाहिरको फैले हुए हैं ।
इसके लिये इस दिखाई देने वाले लोकसे भिन्न और लोक ही कौनसा है ? इस सुख दुःख वाले जीवन से
+ अन्धभूतो अयं लोको तनुकेरथ विपस्सति
- धम्मपद ॥ १०४ + (अ) “पराचि खानि ततुणत् स्वयम्भूस्तस्मात् पराङ् पश्यति नान्तरात्मन - कठ० उप० ४. १. (श्रा) बहिरात्मेन्द्रियद्वा रैरात्मज्ञानपराङ्मुखः । स्फुरितः स्वात्मनो देहमात्मत्वेनाध्यवस्यति ॥
- समाधितंत्र ॥ ७ ॥
धर्म दृष्टि लोक दृष्टिसे भिन्न है :
लोककी इस दृष्टिमें और धर्मकी दृष्टि में बड़ा अंतर है ज़मीन आस्मानका अन्तर है । इनमें यदि कोई समानता है तो केवल इतनी कि दोनोंका अन्तिम उद्देश्य एक है - दुख-निवृत्ति, सुख-प्राप्ति | इसके . श्रुतिरिक्त दोनों में विभिन्नता ही विभिन्नता है । दोनोंकी सुख-दुःख की सीमाँसा भिन्न है। दोनोंका निदान भिन्न है । दोनों का निदान साधन भिन्न है। दोनोंकी चिकित्सा भिन्न है दोनोकी चिकित्सा-वित्रि भिन्न है और दोनोंके स्वास्थ्यमार्ग मित्र हैं
-
पहिली दृष्टि प्रानन्द, सुन्दरता, वैभव और शक्ति का आलोक बाह्य जगतमें करती है, दूसरी इनका + कठ० उप० २. ६; तैत० उप०२. ६.१. + मोच प्राभृत ॥ ८, ११ ॥ योगसार ॥ ७ ॥ * मज्झिमनिकाय २६वां सुत्त ।
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वर्ष ३, किरण ८-१]
धर्म बहुत दुर्लभ है
आलोक अन्तरात्मा में करती है । पहिली बाह्य लोकको उच्चगति-नीचगतिके करने वाले हैं . । आत्मा ही महान् और आशावान मानती है। दूसरी अन्तःलोकको संसारका हेतु है, आत्मा ही संसारका उच्छेदक है, महान् और आशावान ठहराती है । पहिली. बाह्यलोकके श्रात्मा ही श्रात्माका मित्र है, अात्मा ही आत्माका प्रति कामना, आसक्ति, परिग्रहका व्यवहार करना शत्रु है । सिखाती है। दूसरी बाह्य लोकके प्रति प्रशमता, उदा. पहिलेके लिए दुःख का कारण बाह्य शक्तिका सीनता और त्यागका वर्ताव बतलाती है।
कोप है. देवी-देवताओंका प्रकोप है, ईश्वरका प्रकोप पहिलीकी भावना है धन-धान्यकी प्राप्ति, सन्तानकी है, दूसरी के लिए दुःख का कारण स्वयं आत्माकी दूषित प्राप्ति, दीर्घ आय की प्राप्ति, आरोग्यकी प्राप्ति, पितलोक वृत्ति है, उसकी अपनी विपरीत श्रद्धा, अज्ञान अविद्या,
और स्वर्ग लोककी प्राप्ति है। दूसरीकी भावना है सत् मोह-तृष्णा है । की प्राप्ति, ज्ञानकी प्राप्ति, उच्चताकी प्राप्ति, अनन्तकी प्राप्ति, अक्षय सुखकी प्राप्सि, अमृतकी प्राप्ति, अपवर्ग धमका भाग
- धर्मका मार्ग लोक मार्गसे भिन्न है:--... की प्राप्ति है।
. पहिलीके लिए दुःख निवृत्तिका उपाय दुःखविस्मृति - पहिलीके लिये प्रश्न हल करनेका साधन, तत्त्व- है, अज्ञान है, निद्रा-तन्द्रा है, सुरापान है। दूसरीके निर्णय करने का प्रमाण इन्द्रिय-ज्ञान है, बुद्धि-ज्ञान है, लिए दुःख निवृतिका उपाय शान है। दुःख को साक्षात् दुसरीके लिये जाननेका साधन, निर्णय करनेका प्रमाण करना है, दुःख के कारणोंको जानना है,उन कारणोंका अन्तर्ज्ञान है, श्रुतज्ञान है।
विच्छेद करना है। पहिलो के लिए जीवनका विधाता, श्रात्मासे भिन्न, पहिलीके लिए दुःख निवृत्तिका उपाय बाम शमात्मा बाहिर प्राकृतिक शक्ति है-शक्तियोंके अधि- क्तियों-देवी-देवताओं ईश्वरकी-याचना-प्रार्थना है, ष्ठावा देवी देवता हैं,देवी देवताओं के नायक ईश्वर है। पूजा वंदना है, भक्ति-उपासना है । दूसरीके लिए दुःख दूसरीके लिए जीवनका विधाता-जीवनका अधिष्ठाता निवृत्ति का उपाय प्रारम-विश्वास है, श्रात्म-पुरुषार्थ स्वयं श्रात्मा है, आत्माके ही शुभाशुभ भाव हैं, शुभा- है, आत्म-शक्ति है । जो श्रात्माकी शरण जाता है, शुभ कर्म हैं । ये ही जीवनमें सुख-दुःख, उत्थान-पतन आत्माके लिए ही सब कुछ समर्पण करता है, वह
अथर्व ६. १२०.३ । यज० ११.३० । अग्वेद दुख नहीं पाता है । जो बाह्य देवी देवताओंकी उपा-- १०.१६१.४ । अथर्व १२.१।
धम्मपद ॥ १६५ ।।, सामायिकपाठ ॥ ३० ॥ * (अ) असतो मा सद् गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, समयसार ।। १०२ ॥ कोशिकी. उप. १.२, कठ.
मृत्योर्मा अमृतं गमयेति-छा० उप०८.१४ उप०.१.२, ७, श्वेताश्वतर उप० १.२३ (आ) अमृतस्य देवधारणो भूयासम्"
गीता ६.५, विन्धप्रवचन १.३.. -तैत० उप०१.४.१. द्विादशानुप्रेक्षा ॥ ॥१॥
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- अनेकान्त
[ज्येष्ठ, आषाढ़, वीर-निर्वाण सं०२४१६
सना करता है, वह धर्म तत्वको नहीं जानता, वह देव- प्रकृतिमें विश्वास रखने वाला प्रकृतिरूप हो जाता ताओंके पशुके समान है ।. . है। पशुपक्षियोंकी अज्ञानमय भोगदशाको पसन्द करने
पहिलीके लिये दुःख निवृत्तिका उपाय प्राकृतिक वाला पशु पक्षिरूप हो जाता है । देवताओंमें श्रद्धा विजय है, लौकिक विजय है। उसका साधन वशीकरन रखने वाला देवतारूप, पितरोंमें श्रद्धा रखने वाला मन्त्रतन्त्र है वैज्ञानिक आविष्कार है। दूसरीके लिये भूतप्रेतरूप होजाता है। और आत्मामें श्रद्धा रखने दुःख-निवृत्तिका उपाय . अात्म-विजय है । उसका वाला श्रात्मस्वरूप होजाता है। साधन इन्द्रिय-संयम है, मन-वचन कायका वशीकरण इस तरह बाह्य दृष्टि वाला संसारकी ओर चला है, आध्यात्मिक शिल्प है।
___ जाता है और अन्त दृष्टिवाला मोक्षकी ओर चला जाता पहिलीके लिये सुखका मार्ग इच्छावृद्धि है; परि- है। संसारका मार्ग और है और मोक्षका मार्ग और है। ग्रह-वृद्धि है, भोगवृद्धि है । दूसरीके लिए सुखका मार्ग संसार-मार्गसे चलकर धन-दौलत की प्राप्ति हो इच्छात्याग है, परिग्रह स्यांग है, भोगत्याग है। सकती है, परिग्रह श्राडम्बरकी प्राप्ति हो सकती है, भोग पहिलीके लिए सुखका मार्ग अहंकार, विज्ञान
- उपभोगकी प्राप्ति हो सकती है। बल वैभव की प्राप्ति और विषयवेदनामें बसा है। दूसरीके लिये सुखमार्ग
हो सकती है, मान मर्यादाकी प्राप्ति हो सकती है । साम्यता, अन्तर्ध्यान और अन्तर्लीनतामें रहता है।
परन्तु पूर्णताकी प्राप्ति नहीं हो सकती, सुख की प्राप्ति पहिलीका मार्ग प्रवृति मार्ग है । दूसरीका मार्ग नहा।
ही नहीं हो सकती, अमृत की प्राप्ति नहीं हो सकती।
___धर्म मार्ग ही ऐसा मार्ग है जिस के द्वारा मनुष्य निवृत्ति-मार्ग है । पहिलीका फल संसार है, दूसरीका।
' लौकिक सुख, लौकिक विभूति को प्राप्त होता हुआ फल मोक्ष है।
, अन्त में निर्माणसुख को प्राप्त कर लेता है। ____ जो.जैसी श्रद्धा रखता है वैसी ही कामना करता यदि पर्णताकी इच्छा है तो सिद्ध पुरुषोंकी ओर है, जैसी कामना करता है वैसा ही मार्ग ग्रहण करता देख, यदि अक्षय सुख की अभिलाषा है तो निराकुल है, वैसा ही कर्म करता है, जैसा कर्म करता है वैसा ही सुखी पुरुषोंकी ओर देख । यदि अमृत की भावना है संस्कार, वैसी ही शक्तिको उपजाता है, वैसा ही वह हो तो अमर पुरुषोंकी ओर देख । जो उनका मार्ग है उसे जाता है ।
ही ग्रहण कर। मिथ यो अन्या देवताम् उपास्ते, अन्यो ऽसौ अन्यो...... -- भम् अस्मीति, म स वेद, अथ फ्रेव स देवानाम्"
. --यह उप० १.४.१० . (मा) भद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छूछः स एष (अ) भय खस्वाहः काममयः एवायं पुरुष इति, स . सः--गीता १०.३.
यथा कामों यवति, तातुर्भवति यत्नुर्भवति (इ) निस्कपरिशिष्ट ३.६; तत्कर्म कुरुते, यत्कर्म कुरुते तदपिसम्पद्यते । । गोता ७.२१-२३, १. २५.
-बृह० उप० ४-४-५. *धम्मपद ॥५॥
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वीरशासन- जयन्ती - उत्सव
इस वर्ष वीर सेवा मंदिर में श्रावण कृष्णा प्रतिपदा ता० २० जुलाई सन् १९४० शनिवारको वीरशासन जयन्तीका उत्सव गत वर्ष से भी अधिक समारोह के साथ मनाया गया । नियमानुसार प्रभात फेरी निकली, फंडाभिवादन हुआ, मध्यान्ह के समय गाजे बाजे के साथ जलूस निकला और फिर ठीक दो बजे पं० श्री० मक्खनलालजी अधिष्ठाता ऋषभ ब्रह्मचर्याश्रम चौरासी- मथुराके सभापतित्वमें जल्सेका प्रारम्भ हुआ और वह ५॥ बजे तक रहा | जल्सेमें बाहर से सहारनपुर मुजफ्फरनगर, देहली, मथुरा, नकुड़ कैराना अबदुल्लापुर, जगाधरी और नानौता आदि स्थानोंसे अनेक सज्जन पधारे थे ।
मंगलाचरण, तिथि- महत्व और आगत पत्रों का सार सुनाने के अनन्तर सभा भाषणादिका कार्य आरम्भ हुआ, जिसमें निम्न सज्जनोंने भाग लिया
ला० नाहरसिंहजी सम्पादक जैन प्रचारक सरसावा, चि० भारतचन्द्र, श्रमप्रकाश, मा० रामानन्दजी गायानाचार्य, प्रो० धर्मचन्द्रजी, ब० कौशलप्रमादजी, ला०हुलाशचन्दजी, पं० रामनाथजी वैद्य, पं० राजेन्द्रकुमारजी कुमरेश, पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार, सौ० इन्द्रकुमारी ' हिन्दीरत्न' शारदादेवी और सभाध्यक्ष पं० मक्खनलालजी ।
भाषणोंमें प्रो० धर्मचन्दजी, बा०कौशलप्रसाद जी, मुख्तार साहब और सभापति महोदय के
भाषण बहुत ही प्रभावक एवं महत्वके हुए हैं । इन भाषणों में वीर शासन के महत्वका दिग्दर्शन कराने के साथ साथ उनके पवित्रतम शासन पर अमल करने की ओर विशेष लक्ष दिया गया है । वीर भगवान् के अहिंसा आदि खास सिद्धान्तों का इस ढँगसे विवेचन किया गया कि उससे उपस्थित जनता बड़ी हो प्रभावित हुई । और सभी के दिलों पर यह गहरा प्रभाव पड़ा कि हम वीरशासनकी वास्तविक चर्यासे बहुत दूर हैं और उसे अपने जीवनमें ठीक ठीक न उतार सकने के कारण ही इतनी अवनत दशाको पहुँच गये हैं ।.. अब कि वीरकी हिंसा और सत्य के एक अंशका... • पालन करनेसे गाँवीजी महात्मा हो गये और सारे संसारको दृष्टिमें प्रतिष्ठाको प्राप्त हुए, तब वीर के उन अहिंसा और सत्य आदि सिद्धान्तों का पूर्णतया पालन करके उन्हें अपने जीवन में उतार कर अथवा वीरके नक्शे कदम पर चल करकेसंसारका ऐसा कौनसा प्रतिष्टित पद है जिसे हम प्राप्त न कर सकें । फिर भी हम वीरशासन के रहस्य को भूले हुए हैं - उसके अनेकान्त और स्थाद्वाद सिद्धान्तसे अपरिचित हैं - इसी कारण हम बीर- शासनका स्वयं आचरण नहीं करते और न दूसरोंको ही करने देते हैं; मात्र उसे अपनी बपौती समझ कर ही प्रसन्न हो रहते हैं ! जो शासन संसार के समस्त धर्मोसे श्रेष्ठतम, अवाधित एवं सुखशान्तिका मूल है, जिससे दुनयाके सभी
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________________ Regd. No. L. 4328. विरोधोंका समन्वय हो सकता है तथा जो जीवा- लिये कटिबद्ध हो। त्माकी प्रगति एवं विकासका खास साधन है और भाषणोंका जनता पर अच्छा असर पड़ा और जिसका आश्रय पाकर अधमसे अधम मनुष्य एवं उसने अपनी भूल तथा ग़लतीको बहुत कुछ महपशु-पक्षी तक सभी जीव अपनी आत्माका उत्थान सूस किया। कर सकते हैं उसमें हम अनाभिज्ञ रहें, उसे स्वयं भाषणोंके अतिरिक्त गायनोंका भी अच्छा अमलमें न लाएँ और न दूसरोंको ही उस पर आनन्द रहा। मा० रामानन्दजीका महावीरके अमल करने दें, यह कितनी बड़ी लज्जा एवं खेद जीवन सम्बन्धमें बहुत ही अच्छा गायन और की बात है ! ऐसी हालतमें हमारा अपनेको प्रभावक उपदेश हुआ / चि० भरतचन्दका गायन ' वीरका अनुयायी उपासक था सेवक बतलाना बहुत ही सुन्दर एवं चित्ताकर्षक था / चि० भरतकितना हास्यजनक है उसे बतलानेकी जरूरत चन्दकी अवस्था इस समय 13 वर्षकी है, इतनी नहीं रहती / वीर-शासनका सच्चा उपासक छोटीसी वयमें वह गायनकलामें प्रवीण विद्वानकी या अनुयायी वही हो सकता है जो वीरके नक्शे भाँति मनोमोहक गाना गाता है। उसकी आवाज़ क़दम पर चलता हो / अथवा उनके सिद्धान्तों बहुत ही मधुर और सुरीली है और वह एक होनपर स्वयं अमल करता हुभा दूसरोंको भी अमल हार बालक जान पड़ता है / उसका भविष्य उज्ज्वल करनेके लिये प्रेरित करता हो, और जो अमल हो यही हमारी भावना है / इस तरह यह करनेको उद्यमी हो उन्हें सब प्रकारसे अपना सह- जल्सा बहुत ही शानदार एवं प्रभावक हुआ है। योग प्रदान करता हो और इस तरह तन मन धनसे बोरके सिद्धान्तोंका प्रचार करने करानेके -परमानन्द जैन शास्त्री वीर-सेवामन्दिरको सहायता हालमें वीरसेवा मन्दिर सरसावाको निम्न सज्जनोंकी ओरसे 48 रु० की सहायता प्राप्त हुई है, जिसके लिये दातार महानुभाष धन्यवादके पात्र हैं:-- 21) ला० मुरलीधर बनवारीलाल जैन कचौरा जि० इटावा (पिताश्रीके स्वर्गवासके समय निकाले हुए दानमेंसे) 15) ला• विश्वम्भरदास जिनेश्वरदास बजाज मैंसी जि० मुज्जफरनगर (वेदी प्रतिष्ठाके अवसर पर)। 7) बा. बास्मल उग्रसैन जैन, मगाधरी जि. अम्बाला (पुत्र विवाहकी खुशीमें) 5) ला• मनोहरलाल ताराचन्द जैन माइती बड़ौत नि मेरठ (विवाहकी खुशीमें) 48) अधिष्ठाता-'वीरसेवामंदिर सरसावा, जि० सहारनपुर / 'बीर प्रेस ऑफ इण्डिया' कनॉट सर्कस न्यू देहली में छपा /