________________
वर्ष-३, किरण ८-१]
अर्थप्रकाशिका र संसदासुखजी का ठीक ठीक बोध नहीं हो सका है । परन्तु रल- हे भगवति तेरे. परसाद करण्ड श्रावकाचारकी प्रशस्तिसे बतानी बालासर सामति तोर विवाद। निश्चित है कि रत्नकरण्ड श्रावकाचारकी वचनिका पंडितजीकी अन्तिम कृति है। वह विक्रम संवत्
पंच परम गुरुपद करि ढोक, .. . १९२० में चैत्र कृष्णा चतुर्दशीके दिन पूर्ण हुई है। संयम सहित लहूँ परलोक ॥१४॥ उस समय पंडितजीकी उम्र ६८ वर्षकी हो चुकी थी । इसके बाद आप अधिकसे अधिक दो-चार इन पद्योंसे स्पष्ट प्रतीत होता है कि पण्डित वर्ष ही जीवित रहे होंगे । रत्नकरण्ड श्रावकाचार सदासुखदासजी अपने समाधि मरणके लिये की आपकी यह टीका जैनशास्त्रोंका विशेष अनु- कितने उत्सुक थे । जरूर ही उनका मरस समाधि भव प्राप्त कर लेनेके बाद लिखी गई है, इसी पूर्वक हुआ है और उसके प्रसादसे वे निसन्देह कारण इसमें दिए हुए वर्णनसे पंडितजी, उनकी सद्गतिको प्राप्त हुए होंगे। . चित्तवृत्तिका और सांसारिक देह भोगोंसे । वास्तविक उदासीनताका बहुत कुछ आभास. पंडित सदासुखजीने जो साहित्य सेवा की है, मिल जाता है। उसमें समाधि आदिका जो महत्व और अपने अमूल्य समयको जिनवाणीके अध्ययन पूण वर्सन दिया है उससे पण्डितजीकी समाधि- अध्यापन और टीका कार्यमें बितानेका जो प्रयत्न मरण-विषयक जिज्ञासा एवं भावनाका भी कितना किया है वह सब विद्वानों के द्वारा अनुकरणीय है। ही दिग्दर्शन हो जाता है । और भगवती आराधना संस्कृत-प्राकृतके जैनग्रन्थोंका हिन्दी भाषामें अनुकी टीकाके अन्तके निम्न दो पद्योंसे, जिनमें वादादि कर जो जैनसमाजका उपकार वे कर गये समाधि मरणकी आकाँक्षा व्यक्त की गई है, मेरे हैं वह बड़ा ही प्रशंसनीय और आदरणीय है । उपयुक्त निष्कर्षकी पुष्टि होती है:
इससे जैनसंसारमें आपका नाम अमर हो गया
है। इस समय तक मुझे आपको ७ कृतियोंका पता मेरा हित होनेको और,
चला है । संभव है और भी किसी ग्रंथकी वच
निका लिखी गई हो या कोई स्वतन्त्र ग्रंथ बनाया दीखे नाँहि जगतमें ठौर ।
गया हो । प्रस्तुत 'अर्थप्रकाशिका' टीका और उक्त यातै भगवति शरण जुगही, रत्नकरण्ड श्रावकाचारकी टोकाके अतिरिक्त जिन मरण आराधन पाऊँ सही ॥ १३ ॥
पाँच कृतियोंका पता और चला है वे इस प्रकार
• पठसठ वरस नु प्रायुके, बीते तुझ आधार । शेष मायु तव शरणते, जाहु यही मम सार ॥१७ १-भगवतो आराधना टीका, संवत १९०८ में
-प्रशस्ति, रस्नकरण्ड श्रावकाचारटीका। भादों सुदी दोयजको पूर्ण हुई।