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________________ यति समाज [ लेखक-श्री अगरचन्द नाहटा] नागमों एवं कोषग्रन्थोंमें यति, साधु, मुनि, पालन करना 'असिधार पर चलने के समान हो' - निर्ग्रन्थ, अनगार और वाचंयम आदि शब्द कठिन बतलाया गया है । कहीं कहीं 'लोहेके चने एकार्थबोधक माने गये हैं * अर्थात् यति साधुका चबाने' का दृष्टान्त भी दिया गया है, और वास्तही पर्यायवाची शब्द है, पर आज कल इन दोनों वमें है भी ऐसा ही। जैनधर्म निवृत्ति प्रधान है,और शब्दोंके अर्थमें रात और दिनका अन्तर है । इस मनुष्य-प्रकृतिका झुकाव प्रवृत्तिमार्गकी ओर का कारण यह है कि जिन जिन व्यक्तियों के लिये अधिक है-पौद्गलिक सुखोंकी ओर मनुष्यका इन दोनों शब्दोंका प्रयोग होता है, उनके आचार- एक स्वाभाविक आकर्षण-सा है । सुतरां जैन सा. विचारमें बहुत व्यवधान हो गया है । जो यति ध्वाचारों के साथ मनुष्य-प्रकृतिका संघर्ष अवश्यशब्द किसी समय साधुके समान ही आदरणीय म्भावी है। इस संघर्ष में जो विजयी होता है, वही था, आज उसे सुन कर काल-प्रभावसे कुछ और सच्चा साधु कहलाता है । समय और परिस्थिति ही भाव उत्पन्न होते हैं। शब्दोंके अर्थमें भी समय बहुत शक्तिशाली होते हैं; उनका सामना करना के प्रभावसे कितना परिवर्तन हो जाता है, इसका टेढ़ी खीर है। इनके प्रभावको अपने ऊपर न यह ज्वलन्त उदाहरण है। लगने देना बड़े भारी पुरुषार्थका कार्य है । अतः जैनधर्ममें साधुओंके आचार बड़े ही कठोर इस प्रयत्नमें बहुतसे व्यक्ति विफल-मनोरथ ही और दुश्चरणीय हैं । अतएव उनका यथारीति नजर आते हैं । विचलित न होकर, मोरचा बाँध * अथ मुमुक्षुः श्रमणो यतिः ॥ ७॥ वाचयंमो कर डटे रहने वाले वीर बिरले ही मिलेंगे । भगव्रती साधुरनगार ऋषिमुनिः, निम्रन्थो भिक्षुः। यतते । वान् महावीरने यही समझ कर कठिनसे कठिन मोक्षायेति यतिः (मोक्षमें यत्न करने वाला यति है)। आचार-विचारको प्रधानता दी है। मनुष्य प्रकृति जितनी मात्रामें आरामतलब है, उतनी ही मात्रामें यतं यमनमस्त्यस्य यती ( नियमन, नियंत्रण रखने वाला यति है।) कठोरता रखे बिना पतन होते देर नहीं लगती । --अभिधानचिन्तामणि । आचार जितने कठोर होंगे, पतनमें भी उतनी ___ जइ (पु० ) यति, साधु, जितेन्द्रिय संन्यासी देरी और कठिनता होगी। यह बात अवश्य है कि (औपपातिक, सुपार्श्व, पाइप्रस इमहण्णवो भा० २ उत्थानमें जितना समय लगता है, पतनमें उससे कहीं कम समय लगता है फिर भी एक पैड़ीसे गिरे पृ० ४२७)
SR No.527163
Book TitleAnekant 1940 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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