SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्ष ३, किरण ८-६] यति-समाज हुए मनुष्य और पचास पैड़ीसे गिरे हुए मनुष्यमें बौद्ध और वैष्णवोंकी भांति अवस्था हुए बिना समयका अन्तर अवश्य रहेगा। नहीं रहती। पर यह भी तो मानना ही पड़ेगा कि अब साध्वाचारकी शिथिलताके कारणों एवं परिस्थितिने जैन मुनियों के प्राचारोंमें भी बहुत इतिहासकी कुछ आलोचना की जाती है, जिससे कुछ शिथिलता प्रविष्ट करादी। उसी शिथिलताका वर्तमान यति-समाज अपने आदर्शसे इतना दूर चरम शिकार हमारा वर्तमान यति-समाज है। क्यों और कैसे हो गया? इसका सहज स्पष्टीकरण इस परिस्थितिके उत्पन्न होनेमें मनुष्य प्रकृति हो जायगा; साथ ही बहुतसी नवीन ज्ञातव्य बातें के अलावा और भी कई कारण हैं जैसे (१) पाठकोंको जाननेको मिलेंगी। बारहवर्षीय दुष्काल, (२) राज्य विप्लव, (३) अभगवान महावीरने भगवान पार्श्वनाथके न्य धर्मों का प्रभाव, (४) निरंकुशता, (५) समयकी अनुयाइयोंकी जो दशा केवल दो सौ ही वर्षों में अनुकूलता, (६) शरीर-गठन और (७) संगठनहो गई थी, उसे अपनी आँखों देखा था । अतः शक्ति की कमी इत्यादि । उन्होंने उन नियमोंमें काफी संशोधन कर ऐसे प्रकृतिके नियमानुसार पतन एकाएक न होकर कठिन नियम बनाये कि जिनके लिये मेधावी क्रमशः हुआ करता है । हम अपने चर्मचक्षु और श्रमणकेशी जैसे बहुश्रुतको भी भगवान गौतमसे स्थूलबुद्धिसे उस क्रमशः होनेवाले पतनकी कल्पना उनका स्पष्टीकरण कराना पड़ा है। सूत्रकारों ने भी नहीं कर सकते, पर परिस्थिति तो अपना उसे समयकी आवश्यकता बतलाई और कहा कि काम किये ही जाती है। जब वह परिवर्तन बोधप्रभु महावीरसे पहलेके व्यक्ति ऋजुप्राज्ञ थे और गम्य होता है, तभी हमें उसका सहसा भान होता महावीर-शासन कालके व्यक्तियों का मानस उससे है-"अरे ! थोड़े समय पहले ही क्या था और बदल कर वक्र जड़की ओर अग्रसर हो रहा था । अब क्या हो गया ? और हमारे देखते देखते दो सौ वर्षों के भीतर परिस्थितिने कितना विषम ही ?" यही बात हमारे साधुओं की शिथिलताके परिवर्तन कर डाला, इसका यह स्पष्ट प्रमाण है। बारेमें लागू होती है। बारह वर्षके दुष्काल आदि महावीरने वस्त्र परिधानकी अपेक्षा अचेलकत्वको कारणोंने उनके आचारको इतना शिथिल बना अधिक महत्व दिया, और इसी प्रकार अन्य कई दिया कि वह क्रमशः बढ़ते बढ़ते चैत्यवासके रूप नियमोंको भी अधिक कठोर रूप दिया। में परिणत हो गया। चैत्यवासको उत्पत्तिका समय भगवान महावीरकी ही दूरदर्शिताका यह पिछले विद्वानोंने वीरसंवत् ८८२ में बतलाया है, सुफल है कि आज भी जैन साधु संसारके किसी पर वास्तव में वह समय प्रारम्भका न होकर मध्य भी धर्मके साधुओंसे अधिक सात्विक और कठोर कालका है * । जैसा कि ऊपर कहा गया है कि नियमों-आचारोंको पालन करने वाले हैं । अन्यथा परिवर्तन बोधगम्य हुए बिना हमारी समझमें नहीं के उत्तराध्ययन सूत्र "केशी-गौतम-अध्ययन" पुरातत्वविद् श्री कल्याणविजयजीने भी प्रभाकल्पसूत्र वक चरित्र पर्यालोचनमें यही मत प्रकाश किया है।
SR No.527163
Book TitleAnekant 1940 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy