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________________ वर्ष ३, किरण ८-] जैनियों की दृष्टि में बिहार जैनग्रंथ भी आचार्य चाणक्यको सम्राट विन्दुसार श्रेणिक ( बिम्बसार ) और उसके पुत्र कुणिक का प्रधानमंत्री प्रकट करते हैं । बिन्दुसारके (अजातशत्रु ) के नामोंके साथ लगाई गयी है। स्वर्गस्थ होने पर ई० पूर्व २७२ में इसका पुत्र पर अशोकके २२ ३ वर्षकी 'भावरा' की प्रशस्तिमें अशोक राज्यारूढ़ हुआ। कई विद्वानोंका मत है जिसमें उसके बौद्ध होनेके स्पष्ट प्रमाण हैं, उसकी कि सम्राट अशोकने अपनी प्रशस्तियोंमें जो पदवी केवल 'पियदसि' पायी जाती है, 'देवानांअहिंसा, सत्य, शील आदि गुणों पर जोर दिया पिय' नहीं। इसी बीचमें वह जैनसे बौद्ध हुआ उससे प्रतीत होता है कि वह स्वयं जैनधर्मा- होगा । पर आजकल बहुत मत यही है कि वलम्बी रहा हो तो आश्चर्य नहीं। प्रो० कनका अशोक बौद्ध था । (जैन इतिहासकी पूर्व पीठिका) कहना है कि 'अहिंसाके विषयमें अशोकके जो जैनियों की वंशावलियों और अन्य ग्रन्थों में नियम हैं वे बौद्धोंकी अपेक्षा जैनियोंके सिद्धान्तों उल्लेख है कि अशोकका पौत्र 'सम्प्रति' था, से अधिक मिलते हैं । जैनग्रंथों में इसके जैन होनेका उसके गरु 'सहस्ति' आचार्य थे और वह जैनप्रमाण भी स्पष्ट उपलब्ध है। कवि कल्हणकी धर्मका बड़ा प्रतिपालक था। उसने 'पियदसि' के 'राजतरंगणी' में अशोक द्वारा काश्मीरमें जैनधर्म- नामसे बहुतसी प्रशस्तियाँ शिलाओं पर का प्रचार किये जानेका वर्णन है। यही बात अंकित करायी थी । इस कथनके आधार पर अबुलफजलकी 'आइने अकबरीसे भी विदित प्रो० पिशेल और मि० मुकर्जी जैसे विद्वानोंका होती है। कुछ विद्वानोंका मत है कि अशोक मत है कि जो शिलाप्रशस्तियाँ अब अशोकके पहले जैनधर्मका उपासक था, पश्चात् बौद्ध नामसे प्रसिद्ध हैं, वे सम्भवतः 'सम्प्रति' ने होगया था। इसका एक प्रमाण यह दिया लिखवायी होंगी । पर सरविन्सेन्ट स्मिथकी जाता है कि अशोक के उन लेखोंमें जिनमें उसके राय इसके विरुद्ध है । वे उन सब लेखोंको स्पष्टतः बौद्ध होनेके कोई संकेत नहीं पाये जाते अशोकके ही प्रमाणित करते हैं। अशोकके बल्कि जैन सिद्धान्तोंके ही भावोंका आधिक्य हे, समयमें सम्प्रति युवराज था और उसीने अपने राजाका उपनाम 'देवानांपिय पियदसी' पाया जाता अधिकारसे अशोकको राजकोषमें से बौद्धहै। 'देवानां पिय' विशेषत: जैनग्रन्थोंमें ही राजा- संघको दान देनेका विरोध कर दिया था। की पदवी पायी जाती है। श्वेताम्बरी ‘उवाई' सम्राट कुनालके शासनमें भी शासन-सूत्र उसी (औपपातिक ) सूत्रग्रन्थोंमें यह पदवी जैन राजा के हाथ में था । दशरथ के समय में भी वही १७ देखो, 'राजाविलकथे' ( कन्नड़) वास्तविक शासक रहा । यही कारण है कि बहुत१८ देखो, 'यः शान्तवृजिनो राजा प्रयन्तो जिनशासनम्। से ग्रन्थोंमें सम्प्रतिको ही अशोकका उत्तराशुष्कलेऽत्र वितस्तात्रौ तस्तार स्तूपमंडले ॥ ०१ धिकारी लिख दिया है । जैन-साहित्यमें सम्प्रति१९ देखो, 'अली फ्रंथ आफ अशोक', थामस-कृत। का वही स्थान है जो बौद्ध-साहित्यमें अशोक
SR No.527163
Book TitleAnekant 1940 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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