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________________ ५२६ अनेक [ ज्येष्ठ अषाढ़, वीर- निर्वाण सं० २४६६ सी० एम० वर्डवुड और श्रीयुत स्वर्गीय काशीप्रसाद जायसवाल प्रमुख हैं। " ईसा की ५ वीं शताब्दी तक के प्राचीन जैन ग्रन्थ एवं बाद के शिलालेखों का कथन है कि जब उत्तरभारत में बारह वर्षोका घोर दुर्भिक्ष पड़ा था तब चन्द्रगुप्त अन्तिम श्रुत केवली श्री भद्रवाहुके साथ दक्षिणकी ओर चला गया और वर्तमान मैसूर राज्यान्तर्गत श्रवणबेलगोल में- जहाँ अब तक उसके नामकी यादगार है-मुनि के तौर पर रहकर अन्तमें वहीं पर वह उपवासपूर्वक स्वर्गासीन हुआ | श्रवणबेलगोलकी स्थानीय अनुश्रुति भी भद्रबाहु और चन्द्रगुप्तका सम्बन्ध जोड़ती है। इतना ही नहीं; अनुश्रुति द्वारा श्रवणबेल्गोल के साथ इन दोनोंका भी सम्बन्ध जुड़ता है | श्रवणबेलगोलके दो पर्वतों में से छोटेका नाम 'चन्द्रगिरि' है जो कि चन्द्रगुप्त नामक किसी महान् व्यक्तिका स्मृति चिन्ह है। इसी पर एक गुफा भी है जिसका नाम 'भद्रबाहु' गुफा है । इसी पर्वत पर एक सुन्दर प्राचीन मन्दिर भी है, जिसका नाम 'चन्द्रगुप्तवस्ति' है । अथवा धननन्द था । इसका मन्त्री शकटार जैन धर्मानुयायी था, जो अन्त में मुनि होगया था । १४ इसके पुत्र स्थूल भद्र और श्रीयक थे । स्थूल भद्र जैन मुनि होगये थे और श्रीयक को मन्त्रीपद मिला था । इसीका अपर नाम सम्भवतः राक्षस था । यद्यपि उस समय भारतमें घननन्द सबसे बड़ा राजा समझा जाता था फिर भी इसमें इतनी योग्यता नहीं थी कि यह इतने विस्तृत राज्यको समुचित रीति से सँभाल लेता । फलतः उधर कलिंगको ऐरवंशके एक राजाने इससे जीत लिया; इधर चाणक्य की सहायता से चन्द्रगुप्त ने इसपर आक्रमण कर दिया। अन्त में ई० पूर्व ३२६ में नन्द वंशकी इतिश्री होगई । सर स्मिथ के कथनानुसार इसने ही जैनियों के तीर्थ पंचपहाड़ीका निर्माण पटना में कराया था । मौर्य वंश – जैन - साहित्य और शिलालेखोंसे मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त जैन-धर्मका परम भक्त प्रमाणित होता है । इतिहास - लेखक दीर्घ - काल तक इस बात पर विश्वास करने को तैयार नहीं हुए । परन्तु अब इधर कुछ वर्षोंसे ऐतिहासिक विद्वानोंने बहुमत से चन्द्रगुप्तका जैनधर्मानुयायी होना स्वीकार कर लिया है । इन विद्वानोंमें मि० विन्सेन्ट ए० स्मिथ, मि० ई० थामस मि० विल्सन, मि० बी० लुईस राइस, सं० इन्साइक्लोपीडिया आफरिलीजन, मि०जार्ज १४ देखो, 'आराधना कथा कोश' भाग ३, पृष्ठ ७८-८१ । १५ देखो, 'हिस्ट्री एण्ड लिटरेचर श्राफ जैनिज्म' । सम्राट चन्द्रगुप्त का उत्तराधिकारी बिन्दुसार भी परिशिष्ट पर्व आदि जैन ग्रन्थों से जैन धर्मावलम्बी सिद्ध होता है । जैन ग्रन्थों में इसका दूसरा नाम सिंहसेन मिलता है। बिन्दुसार अपने श्रद्धेय पिता के समान बड़ा प्रतापी था । इसकी विजयों का पूर्ण वृत्तान्त उपलब्ध होने पर निस्सदेह इसे भी चन्द्रगुप्त और अशोक जैसे सम्राटोंकी श्रेणी में अवश्य स्थान मिल सकता है । १६ देखो, 'मौर्य साम्राज्य के जैन वीर' पृष्ठ । ११८-१४८ ।
SR No.527163
Book TitleAnekant 1940 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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