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________________ वर्ष ३, किरण ८-६] यति-समाज १०१ दरबारोंमें भी उनकी प्रतिष्ठा जम गई । जनतामें तक नहीं मिलता था । पाटण उस समय उनका तो प्रभाव था ही, राजाश्रय भी मिल गया; बस केन्द्रस्थाने था । कहा जाता है कि वहाँ उस और चाहिये क्या था ? परिग्रह बढ़ने लगा, समय चैत्यवासी चौरासी आचार्योंके अलग क्रमशः वह शाही ठाटबाट सा हो गया । गही अलग उपाश्रय थे । सुविहितोंमें उस समय श्री तकियोंके सहारे बैठना, पान खाना, स्नान करना, वर्द्धमानसूरिजी मुख्य थे। उनके शिष्य जिनेश्वरशारीरिक सौन्दर्यके बढ़ानेके साधनोंका उपयोग, सूरिसे जैनमुनियोंकी इतनी मार्गभ्रष्टता न देखी जैसे बाल रखना, सुगंधित तेल और इत्रफुलेलादि गई, अतः उन्होंने गुरु जीसे निवेदन किया कि सेवन करना, और पुष्पमालाओंको पहनना आदि पाटण जाकर जनताको सच्चे साधुत्व का ज्ञान विविध प्रकारके आगम-विरुद्ध आचरण प्रचलित कराना चाहिये, जिससे कि धर्म, जो कि केवल हो गये । बाहरके आडम्बरोंमें ही माना जाने लगा है, वास्तविक रूपमें स्थापित हो सके। इन विचारों सुविहित मुनियों को यह बातें बहुत अखरी, के प्रबल आन्दोलनसे उनमें नये साहसका सञ्चार उन्होंने सुधारका प्रयत्न भी किया, पर शिथिला- हुआ और वे १८ मुनियोंके साथ पाटण पधारे । चारियोंके प्रबल प्रभाव और अपने पर्ण प्रयत्नके उस समय उन्हें वहाँ ठहरनेके लिये स्थान भी अभावके कारण सफल नहीं हो सके। समर्थ नहीं मिला, पर आखिर उन्होंने अपनी प्रतिभासे आचाय हरिभद्रसूरिने भी अपने संबोध-प्रकरण में स्थानीय राजपुरोहितको प्रभावित कर लिया, चैत्यवासियोंका बहुत कड़े शब्दोंमें विरोध किया और उसीके यहाँ ठहरे । जैसा कि पहले सोचा है। इस प्रकरणसे चैत्यवासका स्वरूप स्पष्ट रूपमें गया था, चैत्यवासियोंके साथ विरोध और प्रकट होता है । प्रसिद्ध कहावत है कि "पापका घडा मुठभेड़ अवश्यम्भावी थी उन लोगोंने जिनेश्वरभरे बिना नहीं फूटता" । समयके परिपाकके परे सूरिजीके आनेका समाचार पाते ही जिस किसी होने पर ही कार्य हुआ करते हैं । व्रण भी जब तक प्रकारसे उन्हें लाञ्छित कर निर्वासित करानेकी पूरा नहीं पक जाता, तब तक नहीं फटता । ग्यार- ठान ली। विरुद्ध प्रचार उनका पहला हथियार हवीं शताब्दीमें चैत्यवासियोंका प्राबल्य इतना बढ़ था। उन्होंने अपने कई शिष्यों और आश्रित गया कि सुविहितोंको उतरने या ठहरनेका स्थान व्यक्तियोंको यह कहा कि तुम लोग सवत्र इस - बातका प्रचार करो कि "यह साधु अन्य राजोंके * विशेष जाननेके लिये देखें हरिभद्रसूरिजी छद्मवेशी गुप्तचर हैं, यहाँका अान्तरिक भेद प्राप्त रचित संवोध-प्रकरण, गणधरसार्द्धशतक वृहद वृत्ति, कर राज्यका अनिष्ट करेंगे । अतः इनका यहाँ संघपट्टकवृत्ति प्रादि । ५० बेचरदासजी रचित, जैन रहना मंगलजनक न होकर उलटा भयावह ही है । साहित्य माँ विकार थवाथी थयेली हानी' ग्रन्थमें भी जितनी शीघ्र हो सके इनको यहाँसे निकाल देना संबोध सत्तरीके आधारसे अच्छा प्रकाश डाला गया है। चाहिये। राष्ट्रके हितके लिये हमें इस बातका
SR No.527163
Book TitleAnekant 1940 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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