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________________ प्रदेकान्त [ज्येष्ठ, आषाढ़, वीर-निर्वाण सं०२४६६ %3 और दुनियाका कुछ पता नहीं, भूत और भविष्यका उच्छेद करना चाहते हैं, भव-उत्पति द्वारा भयको कुछ पता नहीं, उनके लिए वर्तमान क्षण ही काल है, निर्मूल करना चाहते हैं । वर्तमाम जीवन ही जीवन है। बहुतसे सात्विक बुद्धि हैं, सरल हृदय हैं, नम्रभाव ___ बहुतसे पशु-समान तो नहीं हैं, परन्तु दुर्वद्धि हैं. हैं, वे अपने सुख-दुःखका विधाता अपनेसे बाहिर,अपने श्रालसी और शक्तिहीन हैं । वे पशुसमान अचेत जीवन से भिन्न, अपनेसे दूर मानते हैं । वे उस सत्ताको समस्त को, पुरुषार्थहीन जीवनको सुखी मानते हैं। वे जान बझ शक्ति, समस्त मन, समस्त सुख, समस्त पूर्णताका कर पशु-समान अज्ञानमार्गके अनुयायी बने हैं। वे भण्डार जानते हैं । वे उसकी भक्ति उपासनासे, प्रार्थना निद्रा-तन्द्रामें पड़े हुए, सुरापानमें झमते हुए, नशैली याचनासे दुखका अभाव, सुखका लाभ होना समझते वस्तुओंके नशेमें ऊँघते हुए, दुःखको भुलानेमें लगे हैं। भी हैं। ये याज्ञिक मार्गके अनुयायी हैं । ये अपनेको धर्मको _ जानने वाला, धर्म पर चलने वाला मानते हैं । परन्तु बहु तसे विचारवान् हैं, रसिक और भावुक हैं, ये धर्म जानते हुए भी धर्म नहीं जानते, धर्म मानते परन्तु शक्तिहीन हैं, वे बिना पुरुषार्थ प्रानन्द मोगी हए भी धर्म नहीं मानते. धर्म पर चलते हुए भी धर्म होना चाहते हैं, वे भोगमार्गके अनुयायी बने हैं । वे पर नहीं चलते । ये सब मिथ्यात्वसे पकड़े हुए हैं । विषयवासनामें सने हुए, संगीत-सुरासुन्दरीमें रमे हुए, मोह मायासे हगे हुए हैं । सुख-आस्वादनमें लगे हैं, दुःख-कारणोंको बहकानेमें - ये यक्ष-वनस्पति में, पशु-पक्षियोंमें, हवा पानीमें, लगे हैं। नदी पर्वतोंमें, बनखण्ड-देशभूमिमें, चान्दसूरजमें, ग्रह... बहुतसे कुशाग्र बुद्धि हैं, बड़े पुरुषार्थी और उद्यमी नक्षत्रमें, आकाश-काल में, प्रकृति-विभूतिमें, परम शक्तिहैं; व्यवहार-कुशल और कर्मयोगी हैं; परन्तु बाह्यसुखी वान देवताका दर्शन करते हैं । विशेष दिशाको हैं, अपनेसे बाहिर सुख ढूंडने वाले हैं, प्रपञ्चमें विश्वास दिव्य दिशा, विशेष देशको दिव्य देश, विशेष कालको रखने वाले हैं, ये लोकको विजय करनेमें लगे हैं। दिव्यकाल, विशेष रूपको दिव्यरूप मानते हैं । ये विभिन्न वस्तुओंके जमा करनेमें लगे हैं । ये धन-धान्य विशेष भाषाको दिव्य भाषा, विशेष वाक्यको. दिव्यकञ्च ने पाषाण, ज़र-ज़मीन, महलमाड़ी बटोरने में लगे वाक्य, विशेष वाक्य-संग्रहको दिव्य शास्त्र समझते हैं । हैं. । ये स्वार्थसिद्धि में विश्वास करने वाले हैं, ये सिद्धि. ये विशेष जाति वाले, विशेष कर्माचारी, विशेष रूपधारी मार्गकी शिष्टता-अशिष्टतामें विश्वास करने वाले नहीं । को गुरु ग्रहण करते हैं । ये विशेष प्रकारका रूप धारण इसीलिए ये आपस में लड़ते-भिड़ते, कटते-मरते, लटवे- करना, विशेष भाषा बोलना,विश्वेष वाक्यका जप करना, खसोटते यथा तथा आगे बढ़ रहे हैं । ये व्यवहार मार्ग विशेष विधि अनुसार विशेष २ कर्म करना धर्म मानते के अनुयायी हैं, उद्योग-मार्गके अनुयायी हैं । ये हैं । इनमें भला देवता कहाँ ? दिव्यता कहाँ ? धर्म परिग्रह-द्वारा अपूर्णताका अन्त करना चाहते हैं, व्यव. कहाँ ? साय-द्वारा दुःखका अभाव करना चाहते हैं । ये 'शठं ये सब अपनेसे बाहिर, अपनेसे भिन्न तत्त्वके भक्त प्रति शाठ्यं' के अनुयायी हैं । कैर संशोधन द्वारा बैरका बने हैं, ये सब नाम, रूप,कर्म के उपासक बने हैं । ये
SR No.527163
Book TitleAnekant 1940 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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