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________________ वर्ष ३, किरण म-1] धर्म बहुत दुर्लभ है हैं जो इसे जानने की कोशिश करते हैं ? कितने के सहारे ही अपनी जीवन-नौकाको चलाते हुए आगे हैं जो जानकर इसपर श्रद्धा लाते हैं ? कितने हैं जो चले जारहे हैं । इन्होंने दुःखकी समस्या समझने; सुख श्रद्धा लाकर इस पर चलते हैं ? कितने हैं जो चलकर का रहस्य मालूम करने, वर्तमान दशासे दूर लखाने, इष्टका साक्षात् करते हैं, मनोरथमें सफल होते हैं, दुःख वर्तमान जीवनसे भिन्न जीवनको लक्ष्य करने, रूढिक के विजेता होते हैं ? मार्गको छोड़ अन्य मार्गको अपनाने की शक्तिका ही लोप बहुत विरले, कुछ गिने चुने मनुष्य-जो जीवन- कर दिया है। इन्हें धर्मतत्त्वको समझने, धर्मतत्त्वमें लोकके उत्तङ्ग शिखर कहला सकते है :। शेष समस्त श्रद्धा लाने, धर्म-मार्ग पर आरूढ़ होनेका सामर्थ्य ही जीवन-लोक पहाड़ी घाटियोंके समान अन्धकारसे व्याप्त प्राप्त नहीं है । मनुष्य-जीवन ही ऐसा जीवन है, जिसमें हैं, पहाड़ी नदियों के समान शीघ्रतासे संसार-सागरकी दुःखानुभूतिके साथ दु:खसुखके रहस्यको समझने, ओर चला जा रहा है। उनके कारणोंको मालूम करने, एक लक्ष्यको छोड़ ___ यह क्यों ? क्या शेष जीवन-लोक दुःखका अनुभव दूसरेको लक्ष्य बनाने एक मार्गको त्याग दूसरेको ग्रहण नहीं करता ? दुःखसे छुटकारा नहीं चाहता ! शेष करनेकी ताकत मौजूद है । मनुष्य जीवन ही हेयोपादेय जीवन-लोक दुःखका अनुभव ज़रूर करता है, दुःखसे बुद्धि, तर्क वितर्क-शक्ति उद्यम पुरुषार्थका क्षेत्र है ।। छुटकारा भी चाहता है। परन्तु वह दुःखसे अपना मनुष्यभवमें ही धर्म-साधना सम्भव है * । उद्धार करने में असमर्थ है । मनुष्यको छोड़कर समस्त जब मनुष्य-भवमें धर्मसाधना सम्भव है, तो मनुष्यप्राणियोंका जीवन-समस्त एकेन्द्रियलोक समस्त वनस्पति में धर्म-साधना क्यों नहीं ? मनुष्यका जीवन सुखी क्यों लोक, समस्त विकलेन्द्रिय लोक, समस्त पशुपक्षिलोक नहीं ? सफल क्यों नहीं ? कृतार्थ क्यों नहीं १ मनुष्यगाढ़ अन्धकारसे ढका है, मोहसे व्याप्त है, भय और जीवनमें भी इतना संक्लेश क्यों ? इतनी दुःख पीड़ा, दुःखसे ग्रस्त है । इन पर भयने, दुःखने इतना काबू क्यों ? इतना भेद भाव क्यों ? इतना संघर्ष क्यों ? पाया है कि यह भय और भयके कारणोंकी ओर, दुःख निस्सन्देह मनुष्य-भवमें ही धर्मसाधना सम्भव है और दुःखके कारणोंकी अोर लखानेसे भी भयभीत हैं। इसीलिये यह उनकी श्रोरसे मुँह फेर कर रह गये हैं, . परन्तु समस्त मनुष्य धर्म साधनाके योग्य नहीं, धर्मके अधिकारी नहीं । इनमें से बहुतसे तो नाममात्रके ही आँख मैंदकर रह गये हैं. ज्ञान रोक कर रह गये हैं। इसीलिये इनकी ज्ञानशक्ति, देखने भाननेकी शक्ति, मनुष्य हैं । श्राकृतिको छोड़कर वे शील शक्ति, प्राचार व्यवहार में पशु समान ही हैं, पशु समान ही बुद्धिहीन स्मरण रखनेकी शक्ति, कल्पना करनेकी शक्ति, सब ही हैं, ज्ञानहीन हैं, जड़ और मूढ़ हैं। उनके ही समान स्व. आच्छादित होगई हैं, खोईसी हो गई है । इन्होंने दुःख को श्रोमल करने की चेष्टामें ज्ञानको ही अोझल कर __ च्छन्द और अनर्गल गतिसे चलने वाले हैं। उन्हें दीन छ दिया है, समस्त जानने वाली चीज़ोंको ही अोमल कर पञ्चास्तिकाय ॥३६॥ दिया है, समस्त लोक और आत्माको ही प्रोझल कर कार्तिकेयानुप्रेचा ॥२९॥ गोम्मटसार (जीवकांड६६८) दिया है । ये यन्त्रकी भाँति अभ्यस्त संस्कारों, संज्ञाओं के प्रश्न उप० ५.३.
SR No.527163
Book TitleAnekant 1940 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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