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________________ धर्म बहुत दुर्लभ है वर्ष ३, किरण ८-६]. इन्हें छोड़कर साधारण जनसे इस तथ्यका पता पूछना ऐसा ही है जैसा कि अन्धेसे मार्गका पता पूछना । वह अण्डे में बन्द शावक के समान अन्धकारसे व्याप्त हैं । वे स्वयं प्रकाशके इच्छुक हैं । उन्होंने अन्तरात्मा को भी नहीं देख पाया है । उनका वचन इस क्षेत्र में प्रमाण नहीं हो सकता । 1 ये सब ही आत जन एक स्वरसे उच्चारण करते हैं कि जीवनका इष्ट इस जीवनसे बहुत ऊँचा है, बहुत महान् है, बहुत सुन्दर है, बहुत आनन्दमय है । वह इष्ट सुखस्वरूप है, सुख पूर्णता में है, पूर्णता श्रात्मा में है* श्रतः श्रात्मा ही इष्ट है श्रात्मा ही प्रिय है, श्रात्मा ही देखने, जानने और आसक्त होने योग्य है | | ये सब ही आश्वासन दिलाते हैं कि जीवन और जीवनका इष्ट दो नहीं, दूर नहीं, भिन्न नहीं, एक ही है । दोनों एक ही स्थान में रहते हैं । केवल अन्तर अवस्था का है – इनमें से एक भोक्ता है, दूसरा केवल ज्ञाता है । एक कर्मशील है दूसरा कृत्कृत्य है । जब श्रात्मा इस वस्थाकी महिमाको देख पाता है तो वह स्वयं महान् हो जाता है। (इ) स देवो यो अर्थं धर्मं कामं सुददाति ज्ञानं च । स ददाति यस्य अस्ति तु श्रर्थः कर्म च प्रव्रज्याः ॥ —बोधप्राभृत (संस्कृतछाया) २४ * "यो वै भूमा तत्सुखम्, नारुपे सुखमस्ति, भूमैवसुखम्” - छा० उप० ७-२३-१ 1 न वा घरे सर्वस्य कामाय सर्व प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति । आत्मा वा घरे दृष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः ॥” - वृह० उप०२.४... † (अ) द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृत्तं परिषस्व ये सब ही आशा बंधाते हैं, कि इष्ट-सिद्धिका मार्ग भी स्वयं श्रात्मामें छुपा है । श्रात्मा स्वयं भाव है, स्वयं भावना है, स्वयं मार्ग है इस मार्गका नाम सत्य है, चूंकि यह मर्त्यको मृत से मिला देता है ।। इसका नाम धर्म है चूंकि यह जीवनको संसार दुःखसे उभार कर सुख में घर देता है $ । यह नीचे से उठाकर सर्वोच्चपद में बिठा देता है ।। यह असम्भव चीज नहीं, प्रत्येक हितेषी इसका साक्षात् कर सकता है । और स्वयं देखलो || *99 ये सब ही प्रेरणा करते हैं "उठो, जागो, प्रमादको त्यागो, सचेत बनो, सत्संगति करो, सत्यको पहिचानो, धर्मका आचरण करो *।” देर करनेका समय नहीं, जाते ।” -ऋग्वेद १.१६४.२० = मुण्डक उप०३-१-१-३. - श्वेताश्वतर उप०४-६-७ (आ) “I and my fother are one.” -Bible-St. John. 10.30 * (अ) तत्वानुशासन ॥ ३२ ॥ (श्रा) “I am the way, the truth and the life" — Bible St. John 14.6. छा० उप० ८ ३.५. $ (अ) “संसारदुःखतःसत्त्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे ।” -रत्नकरण्ड श्रावका ० ॥८॥ (अ) तामिल वेद - प्रस्तावना ४. १ पञ्चाध्यायी २ - ७१५ + अंगुत्तरनिकाय ३-५२ * (अ) उत्तिष्ठ जाग्रत प्राप्य वरान् निबोधत्" (बा) धम्मपद ॥ १६८ ॥ कठ० उप० ६.१४
SR No.527163
Book TitleAnekant 1940 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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