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________________ गोम्मटसार-कर्मकाण्डकी त्रुटि-पूर्ति . [शेखक-पं० परमानन्द शास्त्री] ग्राचार्य नेमिचन्द्र-विरचित गोम्मटसारके पठन तथा उनके कार्योंका वर्णन, क्रम . स्थापन और पाठनका दिगम्बर जैनसमाजमें विशेष उदाहरण द्वारा स्वभाव निर्देशके अनन्तर २२वीं प्रचार है। इस ग्रन्थमें कितना ही महत्व-पूर्ण गाथामें मूलकों की उत्तर प्रकृतियोंकी संख्याका कथन पाया जाता है, जो अन्य ग्रन्थों में बहुत कम क्रमिक निर्देश किया गया है । इसके बाद अधिदेखनेमें आता है। इससे करणानुयोगके जिज्ञासु- कार भरमें कहीं भी उत्तर प्रकृतियोंके क्रमशः नाम ओंको वस्तु तत्त्वके जानने में विशेष सहायता और स्वरूप आदिका कोई वर्णन न करके एकदम मिलती है । इस ग्रंथके दो विभाग हैं, एक जीव- बिना किसी पूर्व सम्बन्धके दर्शनावरणकर्मके नव काण्ड और दूसरा कर्मकाण्ड । इनमेंसे प्रथम भेदोंमेंसे पांच निद्राओंका कार्य २३, २४ और २५ काण्डकी रचना बहुत ही सुसम्बद्ध और त्रुटिरहित नं०की तीन गाथाओं द्वारा बतला दिया गया है। है । किन्तु उसके उपलब्ध दूसरे काण्डके 'प्रकृति और इससे यह कथन सम्बन्ध विहीन तथा क्रम समुत्कीर्तन' नामक प्रथम अधिकारमें बहुत कुछ बिहीन होनेके कारण स्पष्टतया असंगत जान त्रुटियाँ पाई जाती हैं, जिनके कारण उसकी रचना पड़ता है । २२वीं गाथाके अनन्तर तो ज्ञानावरण असम्बद्ध-सी हो गई है। अनेक विद्वानोंको उसके कर्मके पाँच भेदों तथा दर्शनावरण कर्मके प्रथम विषयमें कितना ही सन्देह हो रहा है । मुद्रित प्रति चक्षु, अचक्षु आदि चार भेदोंके नाम स्वरूपादिका को ध्यान पूर्वक पढ़नेसे त्रुटियों और तज्जन्य वर्णन होना चाहिये था. तब कहीं पाँच निद्राओंके असम्बद्धताका बहुत कुछ अनुभव हो जाता है । कार्यका वर्णन संगत बैठता। परन्तु ऐसा नहीं है, यद्यपि संस्कृत और भाषा टीकाकारोंने उक्त अधि- और इसलिये यह स्पष्ट है कि यहाँ निद्राओंसे कारकी अपर्णता एवं असम्बद्धताको बहुत कुछ पर्वका कथन त्रटित है। अंशोंमें दूर कर दिया है फिर भी उसकी मूल- (२) निद्रा-विषयक २५ वीं गाथाके बाद विषयक-त्रुटियाँ अभी तक ज्योंकी त्यों बनी हुई है। २६ वीं गाथामें बिना किसी सम्बन्धके मिथ्यात्व पाठकोंकी जानकारीके लिये यहाँ उनमें से कुछ खास खास त्रुटियोंका दिग्दर्शन कराया जाता है:- * वह गाथा इस प्रकार है: (१) उक्त 'प्रकृति समुत्कीर्तन' नामक अधि- पंच णव दोरिण अट्ठावीसं चउरो कमेण तेणउदी। कारमें कर्मको मूल आठ प्रकृतियोंके नाम, लक्षण ते उत्तरं सयं वा दुग पणगं उत्तरा होति ॥२२॥
SR No.527163
Book TitleAnekant 1940 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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