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________________ ५४२ अनेकान्त ।.. ज्येष्ठ, आषाढ़, वीर-निर्वाण सं०२४६६ पंच य सरीरबंधण्णामं पोरान वह य वेउव्वं । जस्स करमस्स उदए अवजहङ्गायिखीलिया आई । आहारतेजकरमणसरीरबंधण सुणाममिदं ॥७०॥ दिढबंधाणि हवंति हु खीलिय णाम संहडणे ॥८१।। पंच संघादणामं पौरालियं तहय जाण देउवं । जस्स कम्मस्स उदए अण्णोणमसंपत्तहडसंधीओ।। श्राहारतेजकरमण सरीरसंघादणाम मिदि ॥७॥ णरसिर धाणिहवे तं खु असंपत्तसेवढें ॥२॥ समचउरणिगोहं सादीकुजं च वामणं हुडं। कर्मकाण्डकी ३१वीं गाथाके बाद कर्मप्रकृति में संठाणं छन्भेयं इदि णिहिट जिणागमे जाण ॥७२॥ - चार गाथाएँ और हैं, जिनमें से पहलीमें उन नस्क ओरालियवेगुब्वियमाहारयश्चंगुष्वंगमिदिमणिदं। भूमियों के नाम देकर जिनके संहनन-विषयका अंगोवंगं तिविहं परमागमकुसजसाहहिं ॥७३॥ कथन ३१वीं गाथामें किया गया है, शेषमें संहनन___ कर्मकाण्डको २८ वी गाथाके बाद कर्म प्रकृति विषयक कुछ विशेष वर्णन किया है-अर्थात में आठ गाथाएँ और हैं, जिनमें विहायोगति गुणस्थानोंकी दृष्टि से संहननोंका सामान्यरूपसे नाम कर्मके दो भेदोंका और छह संहननोंके नाम विधान करते हुए यह बतलाया है कि मिथ्यात्वादि तथा उनके स्वरूपका पृथक पृथक रूपसे निर्देश सात गुणस्थानों में छहों, अपूर्वकरणादि चार किया गया है। इसलिये जिनके अनन्तर उक्तः गुणस्थानोंमें प्रथम तीन संहनन और क्षपकश्रेणी काण्डकी २९, ३०, ३१ न० की ३ गाथाओंको के पाँच गुणस्थानों में पहला एक, वज्रवृषभनाराच रखनेसे उनका कथन पूर्णरूपसे संगत हो जाता है. संहनन ही होता है । विकल धतुषकमें-एकेन्द्रिय, और फिर उन गाथाओंके क्षेपक होतेकी भी कोई दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवोंमेंकल्पना नहीं की जा सकती, गौर न वे क्षेपक कही असंप्राप्तामृपाटिका नामका छठा संहनन बताया जा सकती हैं । वे आठों गाथाएँ इस प्रकार हैं:- है, असंख्यात वर्षकी आयुवाले देवकुरु-उत्तरकुरु दुविहं विहायणामं पसायअपसव्यगमण इदि णियमा। आदि भोगभुमिया जीवोंमें प्रथम वनवृषभनाराच वज्जरिसहासयं वजणासय-णासयं ॥७॥ ... तामके संहननका विधान किया है और चतुर्थ, तह अद्ध नारायं कीलियसंपत्तपुण्वसेव्ह । - पंचम तथा छटे कालमें क्रमसे छह, अंतके तीन इदि संहडणं कम्विह मणाइणिहणारिसे भणियं ॥७६॥ और पास्त्रीरके एक संहननका होना बतलाया है। जस्स कम्मस्स उड्ये कुजमयं अट्ठीरिसहा सयं। इसी तरह सर्व विदेहक्षेत्रों, विद्याधरक्षेत्रों, म्लेच्छ तस्संहडणं भणिदं वज़रिसणासपणाममिदि. १७५|| खण्डोंके मनुष्य-तियचों और नागेन्द्र पर्वतसे जस्सुदये वजमायं अट्ठीणासयमेव सामखणं । आगेके तियेचोंमें छहों संहननके होनेका विधान रिसहो तस्संहणं णामेण य: वज़णास्यं ॥५८ किया है । इस सब कथन के बाद उक्त काण्डकी जस्सुदये वज मया हड्डामो, बजरहियणासयं। ३२ नं० की गाथा आती है, जिसमें कर्मभमिकी रिसहो तं भणियव्वं णारायसीदसंबद्धणं ॥७॥ त्रियोंके अन्त के तीन संहननोंका कथन किया .वजविसेसेण रहिदा अट्ठीमो अविणासयं ॥ मया है और यह स्पष्ट लिखा है कि उनके जस्सुदये तं भणियं णामेण तं पद्धणासयं ॥४०॥ श्रादिके तीन संहनन नहीं होते । और
SR No.527163
Book TitleAnekant 1940 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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