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________________ वर्ष ३, विरण 4-1] गौम्मदसार-कर्मकाण्डकी एक त्रुटि-पूर्ति ११३ इसलिये उसे किसी तरह भी प्रक्षिप्त नहीं कहा जा पंचय वरुणस्येदं पीदहरिदारुणकिरहवएणमिदि । सकता, जिसे प्रक्षिप्त ठहराकर सेठोजीने अपने गंधं दुविहं णेयं सुगंधदुग्गंधमिदि जाण ॥१॥ स्त्रीमुक्ति विषयकी पुष्टि करनी चाही थी । ३१ वीं तित्तं कडुवकसायं अबिलमहुरमिदि पंचरसणामं । और ३२ वीं गाथाओंके मध्यमें इस सब कथन मउगं कक्कम गुरुलहु सीदुण्हं णिद्धरुक्खमिदि ॥१२ । वाली गाथाओंके जुड़नेसे संहनन विषयक वर्णन फासं अङ्क वियभ्यं चत्तारित्राणु पुन्धि अणुकम का वह सब अधूरापन और लंडापन दूर हो णिरवाणु तिरियाणु णराणुदेवाणुपुवुत्ति ॥१३॥ जाता है जिसका ऊपर न० ५ में उल्लेख किया एदा चोइस पिंडप्पयडीओ वरिणदा समासेण । गया है। उक्त चारों गाथाएँ इस प्रकार हैं:- यतो (१) इपिंडप्पयडीओ अडवीसं वरणयिस्सामि ॥३१ खम्मा वंसा मेघा अजणास्छिा तहेव अणवजा। अगुरुनहुगं उवघादं परधादं च जाण उल्सासं । छुट्टी मघवी पुढची सत्तमिया माधवी णामा ॥८६॥ । पादावं उज्जोवं छप्पयडी भगुरुलघुक्कमिदि ॥१॥ मिच्छाऽपव्वद्गा(खवा १)विस सगचदुपणवाणरोसु कर्मकाण्डकी ३३वीं गाथाके बाद कर्मप्रकृतिमें हिममेण । छह गाथाएँ और हैं, जिनमेंसे प्रथम दो गाथाओं पढ़मादियामि छत्तिगि प्रोण क्सेिसदो णेया ॥॥ में नामकर्मकी अवशिष्ट २२ अपिंड प्रकृतियों के वियनचाउके छठं, पडमं तु असंखभाउजीवसु । नाम गिनाए हैं। दूसरी दो गाथाओंमें नामकर्मकी च उत्थे पंचमछट्ट' कमसोच्छत्तिगेक संहडणा ॥८॥ उन्हीं अपिण्ड प्रकृतियोंका शुभ-अशुभ रूपसे सम्वविदेहेसु तहा विजाहरम्बाखुमणुयतिरिएसु । विभाजन किया है-जिनमेंसे त्रस १२और स्थावर छस्संहबणा भणिया णागिपरदो य तिरिपसु मा प्रकृतियाँ १० हैं । और शेष दो गाथाओंमें नाम कर्मकाण्डकी ३२ वीं गाथाके बाद कर्म प्रकृति कमकी ९३ प्रकृति योके कथनकी समाप्ति को सूचित में ५ माथाएँ और हैं जिनमें नामकर्मकी १४ पिण्ड करते हुए क्रमप्राप्त गोत्र और अन्तराय कर्मकी प्रकृतियोंमेंसे अवशिष्ट वर्ण, रस, स्पर्श, और प्रकृतियोंको बतलाकर कर्मों की सब उत्तर प्रकृतियाँ आनुपूर्वी नामकी प्रकृत्तियोंका कथन करके पिण्ड- इस प्रकारसे १४८ होती हैं ऐसा निर्देश किया है । प्रकृतियोंके कथनको समान किया गया है, और वे गाथाएँ इस प्रकार हैं:साथ ही २८ अपिण्डप्रकृतियों के कथनकी प्रतिज्ञा तसथावरं च बादर मुहुमं पजत तह अपज्जत्त। करके उनमेंसे आदिकी अगुरुलघु आदि ६ प्रक- पस्तेय सरीरं पुण साहारखसरीरं थिरं अथिरं ॥१०॥ तियोंका उल्लेख किया । जिनमें प्राताप और सुह-असुह सुहग-दुब्भग-सुरुसर-दुस्सर तहेव सायव्वा । उद्योत नामकी वे प्रकृतियाँ भी शामिल हैं जिनके आदिजमणादिज जसजसवित्तिणिमिपतित्थयरं । उदयका नियम कर्मकाण्डकी ३३ वी गाथामें बत, तसवादपज्जत्तं पत्तेयसरीरथिरं सुहं सुहुगे। लाया गया है । और जिनके बिना ३३ वीं गाथाका मुख्सरमादिश्वं पुणजसकिसिविविणतित्थयरं ॥१३॥ कथन मसंगत जान पड़ता है । वे गाथाएँ इस भावरसुङमअपज्जवं साहारणसमीर अथिर भणियं । प्रकार हैं: असुहं दुष्भगदुरूपरणाविजअजसकित्तित्ति ॥१०॥
SR No.527163
Book TitleAnekant 1940 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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